वरदान – बालेश्वर गुप्ता : Moral Stories in Hindi

    अरे बबुआ कब तक यूँ ही निट्ठल्ला  पड़ा रहेगा।घर से निकल, जा कही कोई  नौकरी वोकरी ढूंढ।

     मैं क्या करूँ बापू?सब जगह दरख्वास्त भेज रहा हूं, पर नौकरी मिलना तो दूर,कोई इंटरव्यू को भी नही बुला रहा।

       तो बबुआ एक काम कर तू नोयडा चला जा।वहां छीलेरा गावँ में तेरा चाचा रहवै है, वो तुझे  वही गावँ में कोई दुकान करवा देगा।कम से कम अपने लायक तो कमा लेगा।सुन सुबह ही चला जाइयो।

      वो बापू –मेरी– रुचि तो पढ़ाने में है, दुकान कहाँ चला पाऊंगा?

        अरे कर्मजात दुकान के आगे मास्टरी को तरजीह देवे है,फिर मास्टरी भी कहाँ मिली तुझे? मुझे सब पता है तू कैसी मास्टरी करे है।कस्बे में थू थू हो रही है।मेरा मुँह मत खुलवा रे,हम गरीब है,पर अपनी इज्जत न खोवे है और न दूसरे की इज्जत खोवे हैं।हम तेरे हाथ जोड़े हैं बबुआ हमे दागदार मत बना।तेरा चाचा बतावे था कि वही कही एक सस्ते में दुकान मिले है,वह भी मदद करेगा।अब तू बस चला ही जाइयो।

       अलीगढ़ के पास के एक कस्बे में धन्नी राम का परिवार रहता है।राकेश धन्नी राम का बेटा है। ग्रेजुएट हो जाने के बाद भी कोई नौकरी न मिल पाने के कारण वह तो दुखी था ही,उससे अधिक उसके पिता धन्नी थे।उन्हें लगता कि राकेश नौकरी का प्रयास उतना नही कर रहा जितना  उसे करना चाहिये।

ऐसा नही था कि राकेश के प्रयासों में कमी थी,पर वह शिक्षण क्षेत्र में जाना चाहता था,जहां उसे सफलता नही मिल पा रही थी।राकेश अपने खाली समय मे अपने कस्बे की सेवा बस्तियों में वहां के गरीब बच्चों को वही के मंदिर में निःशुल्क पढ़ाने लगा।यह वहां के सरकारी स्कूल के अध्यापक मलूक को नागवार गुजरने लगी।

राकेश के निशुल्क पढ़ाने के कारण उसके ट्यूशन पर प्रभाव पड़ने लगा।मलूक ने एक दो बार कहा भी कि भई राकेश तुम कहाँ इस मास्टरी के चक्कर मे पड़े हो,यहां तो हम है ना।राकेश सीधे सादे स्वर में मलूक के आशय को न समझ,कह देता कि मास्टर जी ये पढ़ाना लिखाना मेरा शौक है,उसे पूरा कर रहा हूँ।

      मलूक ने समझ लिया कि राकेश मानने वाला नही है,सो उसने एक योजना के तहत राकेश को बदनाम करने की ठान ली,जिससे राकेश बदनामी से डरकर यहां आना ही बंद कर देगा।उसी बस्ती के रामदीन की बेटी रामी यूँ तो हाई स्कूल में पढ़ती थी,कभी कभी वह राकेश से पढ़ाई में मदद लेने आ जाती थी,पर वह समय पूर्व ही कुछ अधिक ही बड़ी दिखाई देने लगी थी।

बस मलूक ने राकेश के बारे में कानाफूसी चला दी कि वह रामी के चक्कर मे यहां आता है।राकेश तो अनभिज्ञ रहा पर उसके पिता के पास यह कानाफूसी पहुंच ही गयी।यह सुनकर धन्नी के पावों के नीचे से धरती ही खिसक गयी।तभी धन्नी ने सोच लिया कि वह राकेश को कस्बे से बाहर भेज देगा।

       राकेश अपने पिता की बात सुन धक से रह गया,उसकी समझ ही नही आया कि उसने ऐसा क्या कर दिया जो वह उसके परिवार का कलंक बन गया।अपने पिता के रौद्र रूप एवं इच्छा को देखकर  उसने नोयडा जाने का मन बना लिया।अगले दिन सुबह ही राकेश अपनी अम्मा और बापू के चरण स्पर्श कर नोयडा रवाना हो गया।

अक्षर धाम मंदिर के पास एक गली में राकेश के चाचा मनोहर ने उसे एक दुकान किराये पर दिलवा दी,जिसमे परचून का सामान रखवा दिया गया।अब राकेश का अधिकतर समय दुकान पर ही व्यतीत होने लगा।फिरभी उसके मन मे अध्यापन का जुनून मौजूद था,पर कही नौकरी मिल नही रही थी।

उसकी दुकान पर अधिकतर ग्राहक आसपास की सेवा बस्तियों के ही थे।समय के साथ उसका मेलजोल अपने ग्राहकों से बढ़ रहा था।एक दिन राकेश ने उनसे उनके बच्चों को निःशुल्क पढ़ाने की इच्छा व्यक्त की।यह प्रयोग वह अपने गृहनगर में कर ही चुका था।बस्ती वाले इस बात से तो खुश थे कि उनके बच्चों को राकेश पढ़ायेगा,उन्होंने सहमति भी प्रदान कर दी,पर समस्या थी स्थान की जहां बच्चो को पढ़ाया जा सके।स्थान की उपलब्धता नही हो पा रही थी।

       अचानक एक दिन राकेश को एक उपाय सूझ गया।बस्ती वालो ने भी सहमति दे दी।यमुना बैंक मेट्रो स्टेशन के नीचे एक कील ठोक कर उस पर दो घंटे के लिये एक ब्लैक बोर्ड टांग लिया जाता,बस्ती से आने वाले बच्चे बैठने के लिये अपना आसन लेकर वहां बैठ जाते और राकेश उन्हें पढ़ाने लगते।

निस्वार्थ भाव से राकेश बस्ती के बच्चो को बिना किसी से कोई सहयोग लिये अकेले ही,पढ़ाने का कार्य करने लगे।बस्ती के लोग राकेश से बहुत प्रभावित हो गये थे।राकेश बच्चो को मात्र अक्षर ज्ञान ही नही दे रहे थे,वरन वे बच्चो को संस्कारित भी कर रहे थे।बस्ती वालो को अपने बच्चों के व्यवहार में साफ परिवर्तन दिखायी देने लगा था,उनमें पहले वाली उद्दंडता और असभ्य भाषा नही रह गयी थी।

     एक दिन राकेश ऐसे ही बच्चों को वही मेट्रो स्टेशन के नीचे कील पर टंगे ब्लैक बोर्ड की सहायता से बच्चो को पढ़ा रहे थे,तभी एक व्यक्ति वहां आया और चुपचाप दूर से राकेश के क्रिया कलाप देखता रहा,इस बीच उसने उनके फ़ोटो भी खींचे, राकेश के पढ़ाते हुए तो बच्चो के अपने अपने टाट पट्टी पर बैठकर पढ़ते हुए।

बाद में उस व्यक्ति ने राकेश से बातचीत भी की।और सब बातों के बीच उस व्यक्ति ने पूछा राकेश जी इन बच्चों को पढ़ाने से आपको क्या प्राप्त होता है तो राकेश का उत्तर था,शुकुन,अपने जुनून को पूर्ण करने की शांति।सुनकर वह व्यक्ति  अचंभित रह गया।

     अगले दिन समाचार पत्रों में राकेश और उसकी कक्षा के फोटो छपे थे,साथ ही राकेश के निस्वार्थ सेवा भाव की प्रशंसा भी।टीवी चैनलन्स ने भी राकेश के बारे में प्रशंसात्मक समाचार टेलिकास्ट किये।अचानक राकेश लोकप्रिय हो गया था।उसके कस्बे में भी उसकी धूम मच गयी थी।

      इस सबसे राकेश को इतना लाभ अवश्य हुआ कि उसे प्रशानिक सिफारिश से अध्यापन की नौकरी मिल गयी।पर राकेश ने मेट्रो स्टेशन के नीचे उन बच्चों को पढ़ाना नही छोड़ा।कल शाम उसके कस्बे से चेयरमैन साहब उसको खोजते हुए आये और राकेश को अपने आलिंगन में लेकर बोले अरे तूने तो अपने कस्बे का नाम रोशन कर दिया है।अबकी रविवार को तुझे आना है,नगर पालिका की ओर से तुझे सम्मानित किया जाना है।

       अपने बेटे राकेश के गले मे पड़ी फूलमालाएं देख धन्नी का सीना आज चौड़ा हो गया था।मलूक कही अपना मुंह छिपाता फिर रहा था।मलूक द्वारा लगाया गया झूठा कलंक आज राकेश के लिये तो वरदान बन गया था।

बालेश्वर गुप्ता,नोयडा

मौलिक एवं अप्रकाशित

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