सामने नीम का पेड़ खड़ा लहरा रहा था। ऐसा लग रहा था कि वह कह रहा हो “आओ बेटा तुम्हें अपनी आगोश में ले लूं ।तुम्हें चिंता करने की जरूरत बिल्कुल भी नहीं है।”
बस अपनी कुछ उम्मीद को लेकर मैंने मायके के दहलीज में कदम रखे थे यह सोचकर कि शायद मेरे कदम रखते ही मेरे तीनों भाइयों के बीच का मतभेद खत्म हो जाएगा !
मगर सिर्फ यह मेरी भूल थी। सामने तीन दीवारें दिखाई दे रही थी।दिलों के बीच दीवार खड़ी हो चुकी थी, अब यह कैसे खत्म होती!
झगड़ा सिर्फ इस नीम के पेड़ को लेकर था।यह किसके हिस्से में हो, इस बात को लेकर तीनों के बीच घमासान जारी था ।
अंततः यह निर्णय लिया गया कि इस पेड़ को ही गिरा दिया जाएगा और इसकी लकड़ियों का भी बंटवारा होगा और उस जगह का भी।
अंतिम बार मैं अपने नीम के पेड़ से मिलने आई थी, देख तो लूं एक आखिरी बार!
नीम का यह पेड़ मेरे बचपन की सारी खुशियों का गवाह रहा है। गर्मियों में अम्मा कहती थीं थोड़ी देर नीम के पेड़ के नीचे खेलो ताकि फोड़े फुंसी ना हो।
कुछ देर तक मैं उसके नीचे खड़ी हो गई, पता नहीं ईश्वर का विधान क्या है समझ में नहीं आता! मेरे तीनों भाई आपस में जान देते थे। मैं ही उनके बीच कबाब में हड्डी बन जाती थी और लड़ाई लगाया करती थी लेकिन ये तीनों एक दूसरे के लिए अपनी जान देने के लिए तैयार रहते थे।
बड़े भैया ने अपना इंजीनियरिंग इसलिए ड्रॉप किया था कि मंझले भैया इंजीनियरिंग निकाल लें, क्योंकि पापा के पास इतना सामर्थ्य नहीं था कि दो दो बच्चों को इंजीनियरिंग पढ़ा सकें।
छोटा प्रयाग सबका दुलारा था। अम्मा तो उसपर जान देती थी।
लेकिन न जाने कौन से ग्रह का साया मेरे परिवार में पड़ गया!!
अब इन ऊंची दीवारों को फांदकर कहां जाऊं? किसके घर पहले जाऊं?
मैं नम आंखों से नीम के पेड़ के तले खड़ी थी।
तभी बड़े भैया की आवाज मेरी कानों में पड़ी “अरे नीतू, वहां क्या कर रही है तू?”
उनकी आवाज से मैं अपने प्रश्न व्यूह से बाहर आई। अपनी आंखें पोंछा और उनके पैर छूकर प्रणाम किया।
“आओ अंदर आओ!”
भैया के चेहरे पर परिचित मुस्कान मौजूद थी।
“ शैला जरा चाय बनाना, देखो कौन आया है?” भैया अपने चिरपरिचित अंदाज में खुशी से भाभी को आवाज देते हुए बोले।
“नीतू तुम चाय लेगी या कॉफी? भैया को चाय पसंद थी इसलिए मैंने चाय बोल दिया।
भाभी भी खुशी से बलैंया लेते हुए बोली “बहुत अच्छा किया नीतू तू आ गई । तुम्हें देखते ही भैया खुश हो जाते हैं।”
थोड़ी देर तक बैठने के बाद में मंझले भैया के पास चली गई और फिर छोटे प्रयाग के पास।
सब ने मुझे हाथों हाथ लिया।
मैं आश्चर्यचकित थी इस बात से कि इतनी देर से मुझे यह नहीं पता था कि मां कहां है?
“प्रयाग मां कहां गई?”
उसके चेहरे पर शून्यता दिखाई दे रही दे रही थी। वह झल्लाते हुए बोला
“नीतू,हम तीनों ने मिलकर यह फैसला किया था कि मां चार चार महीने सबके पास रहेंगी मगर मां को यह नागवार लगा।
उनके इगो पर आ गया।
“ अब मेरा भी बंटवारा करोगे? घर जमीन ज्यादा सब तो बांट लिए मेरा बंटवारा नहीं होना चाहिए।”
“इसका क्या मतलब है?”मैं उसकी बात समझ ही नहीं पाई।
“नीतू अब क्या बताऊं घर की बात!”प्रयाग बोल रहा था उसकी बात मेरे गले में ही अटक गई।
“घर की बात !!”
मैं खुली आंखों उसे एकटक देख रही थी। उसे समझ में आ गया। उसने अपनी बात को संभालते हुए कहा
“नीतू ,तू अपने ससुराल में तो उलझी रहती है। तुम अपने पति परिवार और बच्चों को संभालो। हमारे घर की टेंशन मत लो। हम सब संभाल लेंगे।”
अब कहने को कुछ बचा नहीं था। मैंने उससे पूछा “वह सब ठीक है पर यह तो बताओ कि मां कहां गई?”
“मां शारदा होम चली गई है?”
“क्या मां वृद्धाश्रम चली गई है? यह तुम लोगों ने क्या किया? किस बात पर इतना मतभेद हो गए कि तुमने मां को ही हटा दिया।”
“हमने मां को वृद्धाश्रम नहीं भेजा।यह मां की खुद की इच्छा थी।
तुम उनसे बात क्यों नहीं कर लेती?”
कई बार उनसे बात करने की कोशिश की मगर मां का फोन कभी लगता ही नहीं था।
कई बार भाभी से पूछ भी चुकी थी मगर उनका गोल-गोल जवाब यह बताता था कि मां की तबीयत ठीक नहीं रहती इसलिए उनके पास फोन नहीं रहता।
मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। मैंने अपना पर्स उठाया कहा
“मैं मां से मिलकर आती हूं।”
मेरे मन में कई सवाल आ रहे थे जा रहे थे उन्हें सवालों के साथ मेरा थ्री व्हीलर रुक गया ।
“शारदा होम यानी वृद्धाश्रम का बोर्ड मेरा स्वागत कर रहा था।
कुछ फॉर्मेलिटी करने के बाद मैं रिसेप्शन रूम में बैठ गई।
थोड़ी देर में मां को वहां आते हुए देखा।
मां उदास नहीं थीं।मुझे देखते ही उन्होंने मुझे गले से लगा लिया।
“ यह सब क्या है? आप यहां क्यों हैं?”
“अरे छोड़ो ना उन तीनों की बात। इतने दिनों बाद तुमसे मुलाकात हुई है बैठकर बातें करते हैं।”
“पर मां मैं आपको यहां रहने नहीं दूंगी। आप मेरे साथ चलिए।”
“अरे नहीं, नहीं मुझे नरक का भागीदार मत बनाओ।मैं यहीं ठीक हूं। आखिर मेरी ग़लती थी मैंने उनमें संस्कार नहीं भरे।”
“मगर मां कोई क्या कहेगा कि चार बच्चों की मां वृद्धाश्रम में…!”
“अरे वृद्धाश्रम तो है नहीं ना, यह तो तेरी बड़ी मौसी का घर है जिसे तेरे मौसा जी ने वृद्धाश्रम में बदल दिया।
मुझे यहां किसी बात की कमी नहीं। मैं खुश हूं। मेरे बहुत सारे दोस्त बन चुके हैं, सब मेरा ख्याल रखते हैं।
उस घर में रहकर लड़ाई झगड़े से तो अच्छा ही नहीं तो कि मैं यही रहूं।”
बचपन में हम शारदा मौसी के यहां जाते भी थे इसलिए वह जगह कुछ अनजान नहीं था। मौसी की कैंसर से मृत्यु के बाद उनकी आत्मा की शांति के लिए मौसा जी ने इसे अनाथ बुजुर्गों के लिए घर बना दिया था।
बड़े ही भारी मन से मै मां से विदा लेकर वहां से निकली।
दूसरे दिन सुबह ही मुझे वापस लौटना था।
रातभर करवट बदलने के बाद नींद देर से आई और सुबह ठक-ठक की आवाज से नींद खुली।
तभी बड़ी तेजी से आवाज करता हुआ कुछ धड़ाम से गिर गया।
मैं कमरे से निकलकर बालकनी में आ गई ।
सामने नीम का पेड़ कटे फटे हाल में धराशाई गिरा हुआ था।
मेरी आंखें भर आई।
रिश्तों में मन के भेद इतने ज्यादा क्यों हो जाते हैं कि हमारी सोच में भी मतभेद हो जाते हैं ।
बहुत सारे प्रश्न अनुत्ररित थे।
मैंने सबसे विदा लिया और वहां से निकल आई।
सब ने झोली भर भर कर मुझे गिफ्ट दिया था।
सब कुछ ठीक था मगर आपसी कौन सी लड़ाई थी।
अगर किसी को थोड़ी जमीन ज्यादा मिल जाती या किसी को थोड़ी जमीन कम मिल जाती तो उससे क्या हो जाता?
एक समय ऐसा था कि बड़े भैया ने अपने इंजीनियर बनने का सपना छोड़ दिया था मगर आज की सच्चाई मुझे खून के आंसू रुला रही थी।
*सीमा प्रियदर्शिनी सहाय
#मतभेद
मौलिक और अप्रकाशित रचना
बेटियां साप्ताहिक विषय के लिए