गांव के मोड़ पर जब बस जाकर लगी… तब तक अंधेरा हो चुका था… केडी (कुंजबिहारी दास) तो यह सोचकर बस पर चढ़ा था कि… अंधेरा होने से पहले पहुंच जाऊंगा… पर बरसात के दिनों में… कब समय से पहले अंधेरा कर दे… क्या भरोसा…ऊपर से बस का सफर… समय आगे पीछे हो ही जाता है…
बस रुकते ही केडी अपना चक्के वाला सूटकेस झट से उतार कर नीचे आ गया… बस चलती बनी… कोई और साथ उतरता तो थोड़ी कंपनी मिल जाती… पर आज यहां उतरने वाला वह अकेला ही था…
अपनी सूटकेस को खड़ा कर… पहिए पर डाल… एक हाथ से खींचता हुआ केडी घर की तरफ चल दिया… कुछ ही दूर चला होगा कि फोन मधुर आवाज में प्यार से बजने लगा…” अरे ये तो वीडियो कॉल है नेहू का… हां नेहू …!”
“हां केडी… पहुंच गए ना ठीक-ठाक…!”
” हां… बस पहुंचने ही वाला हूं…!”
बात करते-करते ही अचानक सामने से आती हुई एक मोटरसाइकिल से किनारा लेते… केडी थोड़ा रोड के ज्यादा ही साइड हो गया… साइड होते ही पैर छप्प से किसी ताजा गोबर में धंस गया…”छी छी…!”
” क्या हुआ…?”
” अरे इसलिए मेरा यहां आने का मन नहीं करता… रखो फोन…!”
” पर हुआ क्या…?”
” अरे बाद में बताता हूं…!” बोलकर केडी ने फोन कट कर दिया…पूरा ताजा ही था या फिर बरसात के कारण ताजा रह गया था… “छी बदबू कितनी आ रही है…!” केडी का मन खट्टा हो गया… कितना महंगा परफ्यूम लगाकर… वह सुबह घर से निकला था… अभी तक एकदम ताजा गुलाब की तरह महक रहा था उसका बदन…
और अब यह गोबर कैसे जाऊंगा घर… पर अब क्या कर सकता था… उसी तरह एक पैर से चप्प चप्प करता आगे बढ़ा… यहां वहां पैर रगड़ता… बीच-बीच में गढ्ढों से टकराकर… चक्के वाला बैग भी उलट जा रहा था… परेशान परेशान हो गया मन घर पहुंचते…
आते ही सबसे पहले मां के पैर छूकर जूतों को निकाल फेंका… ” का हुआ बाबू …इतने गुस्से में काहे लग रहे हो…?”
” गुस्से में ना लगूं तो क्या करूं… तुम्हारी जिद के कारण बार-बार… ना चाहते हुए भी यहां आना पड़ता है… यह रोड है… यह गांव की हालत है… पहले से पता था फिर भी किसी को भेज भी नहीं पाई… और ऊपर से यह गोबर…!”
“गोबर पर पैर पड़ गया…ए बाबू …कुछ ज्यादा नहीं महक रहा है हो… गोबर नहीं है रे… ई तो गूं लगता है…!”
” ए अम्मा चुप रहो… गोबर ही है…!”
” नहीं बाबू गोबर नहीं है… नहीं नहीं एकदमे गूं है…मनुख का गोबर… अच्छे से देखकर नहीं चले… नहा लो और जूतो साफ कर लो अच्छे से… हम नहीं छूएंगे… हमको बोलते हैं… कर का रहे थे… आंख कहां था तुम्हारा…!”
” फोन आ गया था…!”
” हां वही तो बात है… फोन आ गया था… जाओ साफ होकर आओ… तब अंदर आना… बाहर चापाकल चलाकर पहले जूता साफ करो… जाओ महक गया पूरा घर…!”
केडी का मन तो कर रहा था कि यहीं से सीधे वापस हो जाए… पर अब रात को कोई बस भी तो नहीं मिलती… जूता हाथ में उठाकर.… बाहर चापाकल पर ले जाकर साफ करने के अलावा कोई ऑप्शन नहीं था…
सब साफ करके… नहा धोकर केडी अंदर आया… “आओ रे कुंज इधर ही आओ… यहीं खाना लगा दिए हैं…!” अम्मा बोली.…
जाते-जाते एक बार फोन के स्क्रीन पर नजर पड़ गया… आखिर करीब एक घंटा हो गया था फोन देखे… देखा तो नेहू का तीन मिस्ड कॉल…फोन हाथ में उठाते ही फिर प्यार भरा रिंगटोन बजने लगा… जल्दी से उठाते हुए केडी बोला…” क्या हुआ नेहू… सब ठीक तो है… इतनी बार फोन कर दी…!”
” हां हां यहां सब ठीक है… तुम ही तो बोले थोड़ी देर में करता हूं… क्या हुआ था तब…!”
” अरे कुछ नहीं… गोबर पर पैर पड़ गया था…!”
“छी… इसलिए मेरा मन नहीं करता गांव जाने का… मां ठीक है ना…!”
” हां सब ठीक है… बाद में करता हूं…!”
आंगन में इतनी ही देर में चाची, चचेरा भाई केशव उसके बच्चे, सब का जमावड़ा लग गया था… केशव ही ही करके हंसते हुए बोला…” क्या कुंज बिहारी गूं पर पैर धर दिए… देखकर नहीं चले… यहां पर तो बरसात में बहुत सावधानी का जरूरत पड़ता है… रास्ता चलते कीड़ा मकोड़ा सांप बिच्छू कुछ मिल जाएगा… ऐसे चलोगे तो कैसे होगा… यह तुम्हारा शहर का सड़क नहीं है ना…!”
उसकी बात पर एक फीकी हंसी हंसता हुआ केडी मां से बोला…” अरे मां पूरा घर अंधेरा करके क्यों रखी हो… लाइट जलाओ ना…!”
” ना रे बाबू… लाइट मत जलाना…!”
” क्यों क्या हो गया…?”
” अरे बहुत कीड़ा फतिंगा उड़ेगा रे… खाना नहीं खा सकोगे.… उसी में सब पड़ जाएगा.…!”
” तो अंधेरा में कैसे खाएंगे…?”
” अंधेरा कहां है…? उधर का लाइट के पास देखो… कितना कीड़ा उड़ रहा है… सब इधर आ जाएगा…मत जलाओ… नहीं तो सब बुधियारी निकल जाएगा… ऐसे ही खाओ…!”
केडी मन खट्टा करके थाली पर बैठ गया… दो कौर उठाकर झुंझलाते हुए बोला…” क्या मां… कोई सब्जी नहीं मिला तुमको… भिंडी में करेला कौन मिलता है… एकदम बेकार कर दी स्वाद…!”
अम्मा बोली…” दोनों तो तुमको अच्छा लगता है… ज्यादा सब्जी था ही नहीं… दो-चार ठो दोनों था तो आपस में फेंट दिए.… पानी बरस रहा था दो दिन से… इसलिए सब्जी नहीं मंगा सके… देखते हैं कल केशव से बोलेंगे… ला देगा…!”
केडी खाना खाकर उठा फिर मां से बोला…” कितना समस्या है यहां… फिर भी क्यों नहीं रहती हमारे साथ… बोलो… क्यों पड़ी हो यहां… वहां बच्चे हैं… नेहू रहती है दिन भर घर में…फिर भी तुम यहां बैठी रहो…और हर 2 महीने 3 महीने पर… मैं यहां आकर यहां के चक्कर काटता रहूं… साथ रहोगी तो इतनी दौड़ भाग तो नहीं होगी…!”
” तुम्हारा दो कमरे का घर तुमको मुबारक… समझा बाबू… हम इतना बड़का हवेली छोड़कर वहां डब्बा में नहीं बैठेंगे… और बच्चा लोग देखेगा मोबाइल, टीवी पढेगा कि हमको टाइम देगा… और बहुरिया को अपना काम से फुर्सत मिलता है… तो हाथ में बैठ जाती है ले के अपना मोबाइल चलाने… हमसे कौन बतियाता है… दो रूम का घर में…
सबका मुंह दिन भर बकर बकर देखने से अच्छा है… यहां खुला में सांस लेते हैं… दिन भर बतियाते हैं सबसे… नहीं जाना हमको… दो महीना में हम दो जनम का सुख ले लिए… अब सुख नहीं चाहिए… ई पेंशन के चक्कर में… तनी तुमको भी परेशानी होता है… हम भी सोचते हैं आओगे तो मुंह देखेंगे… नहीं तो क्या जरूरत है… मत आओ… खेती पथारी इतना है ना… की पेंशन का पैसा नहीं पहुंचाओगे ना तब भी मजे में रहेंगे… !”
उधर से चाचा जी ने आवाज लगाई…” कुंज बिहारी… ए कुंज बिहारी…!”
केडी चिढ़ते हुए उठा…” इतना लंबा नाम बोलते इन लोगों को कैसे अच्छा लगता है… कितना बढ़िया केडी है…!” बुदबुदाता हुआ केडी उठा तो अम्मा बोली…” हां तू हो गया केडी… बहुरिया स्नेहलता हो गई नेहू… ए बाबू…ई केडी और नेहू गांव में नहीं चलता… देखो चाचा जी काहे बुलाए हैं…!”
केडी ने उठकर जैसे ही चप्पल में पैर डाला की पैर के नीचे कुछ सिहर गया…” क्या था रे बाबू.… क्या था…?”
” कुछ नहीं मां… केंचुआ था शायद…!”
केशव ने टॉर्च का लाइट मारा उधर…” नहीं रे कुंज… हट पीछे… पैर हटा… केंचुआ नहीं है रे… सांप है सांप…!”
“सांप…!” केडी कूद कर ऊपर चढ़ गया…” केंचुआ जैसा तो दिख रहा है…!”
” हां बरसात है ना बाबू.… गांव में बहुत संभाल के पैर रखना पड़ता है…!”
केशव ने फट से उसे भगा दिया… केडी को अब सूखे में भी हर जगह सांप ही दिख रहा था… चाचा जी से मिलकर वापस आया तो मां से बोला…” मां यह कैसा मतभेद है तुम्हारा हमसे… जो यहां आकर बस गई हो…!”
” मतभेद काहे का रे बाबू… कोई मतभेद थोड़े है.… खुशी है… हमको यहीं खुशी है बाबू… यहीं रहने दो… वहां खुशी नहीं मिलता है… बोलकर अम्मा हंस पड़ी…
” रहो तुम यहीं खुश… पर इस बार आने में देर हो गई थी… इसलिए बरसात में आना पड़ा… लेकिन अगली बार से बरसात में नहीं आऊंगा… धूप निकले तो बुलाना…!”
केडी मच्छरदानी में घुसकर… अब खुद को सुरक्षित महसूस कर रहा था… अगले दिन सुबह उजाला देख केडी का मन शांत हुआ… रात की सारी तस्वीर एक बार ही आंखों के सामने आ गई… पहले गोबर… फिर अंधेरा… कीड़े मकोड़े… फिर सांप… उठते ही मां से बोला.…” मां 8:00 बजे की बस है… मैं निकल जाऊंगा…!”
” पर आज भर रुक जा बाबू… कल जाना…!”
” नहीं मां… धूप निकलेगी तब आऊंगा तो रुकूंगा… आज तो जाने ही दो…!”
” 7:00 तो बज गया… अभी ही निकलेगा…!”
” हां… बस आधे घंटे में तैयार होकर निकलता हूं…!”
चक्के वाले बैग में सारा सामान तो मां के लिए था… सब कुछ खाली कर बैग उठा कर जाने को हुआ… तो मां ने फिर से घर के दाल दलहन से बैग को पहले से अधिक भर दिया…
अब जाकर मां के पैर छू… केडी यानी कुंज बिहारी दास चल दिया… यह सोचकर की चाहे कुछ हो जाए… बरसात में तो अब नहीं आऊंगा…
स्वलिखित
रश्मि झा मिश्रा
#मतभेद