उसकी सास महीनों से कमला को भला-बुरा कहकर उसे प्रताड़ित कर रही थी जिसको वह सिर झुकाकर वह सुन लेती थी लेकिन जब उसकी सास ने उसके पति की दूसरी शादी की घोषणा की तो कमला की देह में आग लग गई।
उसकी आंँखों से क्रोध की चिन्गारियांँ निकलने लगी। उसने विफरते हुए कहा, “मांँजी!.. बिना डाॅक्टरी जांँच करवाये शादी की बात मत सोचें!.. दोष किसमें है मुझमें है या मेरे पति में, यह पता चलना चाहिए,
बिना सोचे समझे मुझ पर बांझ का ठप्पा नहीं लगायें.. अगर मुझमें दोष होगा तो मैं स्वयं इनकी जिन्दगी से दूर चली जाऊँगी मुझे आपकी खरी-खोटी सुनने के लिए यहाँ नहीं रहना है, फिर शौक से अपने बेटे की शादी कीजिए मुझे कोई एतराज नहीं होगा।.. किन्तु अब मैं आपका अन्याय सहन नहीं करूंँगी। “
जानकी के पुत्र अभय की शादी कमला से हुए दो-तीन वर्ष हो गए थे किन्तु उसकी बहू की गोद सूनी की सूनी ही थी। अपने खांदान पर विराम लगने के खतरे की आशंका से जानकी व्याकुल हो उठी थी।
जिस बहू को अपने प्यार और दुलार से वह सराबोर रखती थी, उसकी सुख-सुविधाओं में कोई कमी नहीं होने देती थी उसमें तेजी से गिरावट आने लगी थी। जानकी के अंदर असंतोष की चिंगारी समय बीतने के साथ-साथ ज्वाला में परिवर्तित होने लगी थी।
कलांतर में कमला द्वारा किये गए घरेलू कार्यों में नुक्स निकालकर उसके बहाने अपने दिल की भड़ास निकालने लगी। समय-समय पर तानों-उलाहनों का उपहार देने से भी नहीं चूकती। उसी क्रम में कभी-कभी वह यह भी कहती कि उसको तो ऐसा लगता है कि वह बिना पोता खेलाए इस संसार से चली जाएगी, उसका किस्मत ही खराब है फिर वह बुदबुदाती कि जिसकी बहू ही कुलक्षणी हो, तो वह क्या कर सकती है।
अपनी सास के तीर से भी अधिक नुकीले कठोर वचनों की बौछारों की वेदना से वह मर्माहत होकर छटपटाने लगती किन्तु वह विवश थी उसके दंश को झेलने के लिए।
ऐसे मौकों पर अभय अक्सर कहता, “क्या तुम बिना मतलब के बक-बक करती रहती हो?.. क्या हमलोगों की उम्र ढल गई है या हमलोग बूढ़े-बूढ़ी हो गए हैं जो तुम अपने भी परेशान रहती हो और हमलोगों को भी परेशानी में डाले रहती हो.. तुम खामखा घर के शांत वातावरण को खराब करती रहती हो।”
” तुम दोनों पति-पत्नी एक ही सिक्के के दो पहलू हो.. अरे अकलमंद!.. जब तुम्हारी शादी हुई थी, उस समय इस गांव के जितने लड़कों की शादी हुई सभी बाप बन गए.. तुम अभी तक निःसंतान हो, कुछ महीनों के बाद भी बाल-बच्चे नहीं हुए तो तुम्हारी औरत पर बांझ का ठप्पा लग जाएगा और तुम पर भी.. “
” चुप!.. तुम मुझे आज दफ्तर जाने दोगी या नहीं या तुम्हारा प्रवचन सुनते रहें”उसने गुस्से में चीखकर कहा।
प्रायः उसके घर में गर्मा-गरम बहस और चर्चाएं कमला को बच्चा नहीं होने के कारण होने लगी।
अभय अपने गांव से पांँच-सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित छोटे से शहर के एक दफ्तर में नौकरी करता था। उसके परिवार में उसकी मांँ और पत्नी कमला थी। उसके दो बहनों की शादी उसी समय हो गई थी जब उसके बापू जीवित थे।
अपनी सास की कटाक्ष युक्त बातें उसके कलेजे में नश्तर की तरह चुभती थी। मौके-बेमौके खरी-खोटी भी सुनाती रहती थी, जिससे उसके दाम्पत्य जीवन की स्निग्धता और सरसता अंतिम सांसें ले रही थी। उसके जीवन की मिठास में कड़वापन घुलने लगा था।
ऐसी परिस्थितियों में रिश्तेदारों और ननदों ने मोबाइल के माध्यम से पूछना भी शुरू कर दिया था कि खुशखबरी कब सुना रही हो तब वह लज्जित होकर मौन हो जाती, फिर तुरंत बात-चीत का विषय बदलकर बात करने के लिए विवश हो जाती थी।
इसका प्रभाव पति-पत्नी पर भी पड़े बिना नहीं रहा। अभय और कमला के बीच एक दूसरे को जोड़ने वाले भरोसे की दीवार दरकने लगी। आकर्षण विकर्षण में, नजदीकियांँ दूरियों में बदलने लगी। उनके आपस की कमेस्ट्री में फर्क पड़ने लगा।
ऐसे ही कलह के माहौल में फिक्रमंद जानकी ने अपने बेटे-बहू के समक्ष ऐलान कर दिया कि अगले साल तक कमला ने खांदान का वारिस पैदा नहीं किया तो वह अभय की दूसरी शादी कर देगी, वह अपने बेटे पर नामर्द का ठप्पा नहीं लगने देगी।
जब अभय ने भी पत्नी के विचारों से अपनी सहमति जताई तो उसकी मांँ भभक पड़ी, “तुम भी अपनी पत्नी की ही भाषा बोल रहे हो।”
“समय की माँग है मांँ.. जमाना बदल गया है।”
डाॅक्टरी जांँच पर सबकी सहमति बन गई।
जब पति-पत्नी की डॉक्टरी जांँच की गई तो दोष अभय में पाया गया।
कमला दोषमुक्त हो गई।
जानकी का चेहरा लटक गया था।
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
मुकुन्द लाल