दो बरस पहले ऐसे ही माँ चली गई थीं आँखों में आँसू भर के, मन में एक टीस लिए.
शुभि कितना रोई थी तब ना, शुभि तो उतना अपनी विदाई पर भी नहीं रोई थी जितना उस दिन रोई थी.
यह रोने और उदासी का सिलसिला तो उसी दिन से शुरू हो गया था जिस दिन दीदी ने माँ का रिजर्वेशन करा कर टिकट सेंड किया था .
शुभ छोटी थी शायद इसीलिए माँ से उसका लगाव बड़ी बहन से ज्यादा था और शुभि बदनसीब थी शायद इसलिए भी माँ के प्रति उसका स्नेह अतिरिक्त था.
शुभि माँ को अपने पास चाह कर भी कभी रख नहीं पाई,, ना सही हमेशा के लिए मगर शांतनु तो महीने दो महीने के लिए भी माँ को बुलाने के हिमायती ना रहे. बुलाना क्या वह तो माँ की कभी खैर खबर तक नहीं पूछते थे.
वह तो क्रोध और आवेश में आकर शुभि ने बिना पति की आज्ञा लिए माँ को बुला लिया था और ठान लिया था कि छः महीने तक अपने पास रखेगी. मन में विद्रोह का बीज पनप गया था. शांतनु ने अचानक माँ को देखा तो उनका मुँह फूले हुए गुब्बारे जैसा फूल आया. शुभि ने जैसे ध्यान ही नहीं दिया, ध्यान देती तो एक और महाभारत का निर्माण हो जाता.
दीदी ही माँ को पहुँचा गई थी,जीजा जी को समय नहीं मिला था, शुभि ने ही कहा..
इलू को लेकर तुम ही आ जाओ दीदी, इलू को देखे हुए कितने दिन हो गए..
दरअसल दीदी से मिले हुए भी तो कितने बरस हो गए थे.
रेगिस्तान में बहार आने की सी असंभव बात होती है…बेटियों के जीवन में खुशियों का आना..विशेष कर विवाह के बाद.
यह विडंबना ही तो है ना की उम्र का एक बड़ा हिस्सा माँ-बाप भाई-बहन के साथ गुजारने के बाद उन्हीं के साथ हम एक दिन बिताने के लिए तरसते हैं. शांतनु को न जाने क्यों माँ नहीं पसंद थीं..कहते..
तुम्हारी माँ को अपनी बेटी का घर जोड़ना चाहिए, मगर वह तो तुम्हें घर तोड़ने के नए-नए गुरण सिखाती रहती हैं. शुभि का मन कसैला हो आता..
क्यों क्या मिल जाएगा इससे मेरी माँ को…
शुभि का प्रश्न होता…निरूत्तर हो जाते शांतनु.
शादी के दिन से ही वे तो नाराज हैं अपने ससुराल वालों से, दर असल शादी में उनको मन माँगी चीज नहीं मिली और बाद में जब छोटी बड़ी हर चीज का ताना देने लगे तो सहते सहते शुभि की जुबान चलने लगी, दोनों में आपस में लड़ाइयाँ होने लगीं और इसके लिए माँ दोषी ठहराई जाती.
माँ तो खुद बेसहारा थी, पापा के पास था ही क्या,, एक घर तक तो नहीं छोड़ गए माँ के लिए.जो भी था दो बेटियों की पढ़ाई और शादी में ही खर्च हो गया. बेटा नहीं था क्या पता यही सोच कर पापा ने कोई घर नहीं बनाया, मगर यह तो सोचा ही नहीं कि उनके मरने के बाद माँ किस ठिकाने पर गुज़र करेगी. वह तो जीजा जी का एहसान था कि वे माँ को सम्मान के साथ अपने घर में रखे हुए हैं मगर क्या सिर्फ दीदी का ही फर्ज है मां के प्रति,क्या शुभि उनके दूध के कर्ज से मुक्त है.
कभी-कभी यह सवाल शुभि शांतनु से करती तो जवाब मिलता..
तुम बेशक करो अपनी मां के लिए,पढ़ी लिखी हो कमा सकती हो..
इसका सीधा सा मतलब होता कि शुभि का उस घर पर कोई अधिकार नहीं जिसे उसने अपने जीवन के इतने बरस दे दिए..
झाड़ू लगाने से बर्तन मांजने तक, कपड़े धोने से खाना बनाने तक, बच्चों की परवरिश,क्या इन सबके एवज में शुभि को चंद दिनों के लिए अपनी माँ को अपने पास बुला कर रखने का भी अधिकार न था.
बस इसी बात से चिढ़न पैदा हो गई थी शुभि के मन में,शांतनु के घर वालों से वह भी कोई मतलब नहीं रखती. बार-बार शुभि के मन में शांतनु द्वारा अपनी माँ के किये अपमान की घटनाएं याद आ जातीं.. कैसे उन्होंने न माँ के आने पर उनका आशीर्वाद लिया न जाने पर.
सुबह सात बजे की ट्रेन थी, पाँच बजे ही शुभि हुई माँ को लेकर स्टेशन चली गई,शांतनु सोने का नाटक किये लेटे रहे उठकर गेट तक भी नहीं आए…स्टेशन तक जाना तो दूर की बात थी. क्या इंसानियत भी नहीं रह गई थी उनमें.
खैर.. माँ को विदा कर शुभि महीने भर रोती रही. अब न जाने मिलना हो भी या ना हो माँ से.
बस कलेजा तब से ही पत्थर हो गया है उसका.इस बीच शांतनु के पिता भी चल बसे. माँ अकेली रह गईं. देवर अपने साथ नौकरी पर ले गए.शुभि ने एक बार भी नहीं कहा कि.. अम्मा हमारे साथ चलिए.
मन ही ना हुआ. शांतनु को यह बात बुरी लगी. लड़ाई भी हुई फिर बात थम गई. समय बीतता रहा.अब तो देवर की पोस्टिंग भी इसी शहर में हो गई है..जहाँ शुभि है.तब से देवर के साथ ही रहती आई अम्मा को शांतनु अभी छः महीने पहले लेकर आए,ज़िद पर अड़ गए तो शुभि ने भी कुछ ना कहा,सोचा क्या फायदा विरोध करने से,कौन सा उसकी कमाई खाएंगीं.
अम्मा आईं तो मगर शुभि ने सिवाय पैर छूने के औपचारिकता के और कुछ न पूछा. अपने कर्तव्यों को निभाते हुए कभी उसका मन ही ना हुआ कि अम्मा के पास बैठकर उनके हाल-चाल की तफ्दीश करे. बस दिन बीतते रहे मगर दिन बीते कुछ ज्यादा ही दिन बीत गए. शुभि ने एक दिन पूछ ही लिया..
क्यों… देवर जी अम्मा को वापस ना ले जाएंगे क्या..
क्यों…अम्मा यहीं रहेगीं अब..
शांतनु अकड़ कर बोले.
शुभि को तो जैसे आग लग गई, तम तमाकर बोली..
क्यों…क्यों रहेगी यहीं.. आपने तो मेरी माँ के लिए कह दिया कि मैं कमाऊं तो ही उन्हें रखून तो आप भी काम करने वाली नौकरानी रखकर अपनी अम्मा की सेवा कराइए.
शांतनु गुस्से में उठकर चले गए.
शुभि को यह टीस थी कि उसे उसकी माँ से जिस तरह अलग कर दिया गया अब वह भी शांतनु को कुछ ऐसे ही अनुभव से रूबरू कराएगी.. तभी उन्हें एहसास होगा की माँ के लिए तड़प क्या होती है.
शुभि का तिक्त मन बार-बार अम्मा से बहस कर बैठता, बात ही बात में वह शांतनु को अपनी माँ से किये दुर्व्यवहार की याद दिलाने लगी..
अंततः एक दिन अम्मा ने खुद ही देवर जी को बुला लिया और सामान उठा उनके पास चली गईं.
शांतनु उदास बैठे थे माँ के जाने से.
शुभि इतनी भी पत्थर दिल ना हो सकी. उसने तो विवाह के बाद से ही माँ का विछोह सहा है.. वह कैसे न समझ पाती शांतनु का दुःख…बस कभी शांतनु ही उसका यह दुःख नहीं समझ पाए..
पास जाकर बोली…
उदास मत होइए, कुछ दिन देवर जी के पास रह लें फिर ले आइएगा अपनी माँ को.
मैं तो बस एक ही बात समझाना चाहती थी आपको कि इंसान के चले जाने पर ही उसकी कीमत का एहसास होता है हमें..
क्योंकि यही वह शै है जो लौट कर कभी वापस नहीं आती.
श्वेता सोनी
#कीमत