चंद्र प्रकाश जी अपने मित्र रमेश की पौत्री का रिश्ता कराने के लिए भागम भाग कर रहे थे। लड़का उनकी जानकारी में था। दोनों पक्षों में उनकी उठ-बैठ थी।
रिश्ता कराने के चक्कर में कई बार उन्हें यात्रा भी करनी पड़ी। अपने घर पर भी उनको बातें सुननी पड़ती थी कि बे फालतू के कामों में लगे रहते हैं।
कौन भलाई देता है आजकल। लेकिन चंद्र प्रकाश जी सब बातों को सुनकर भी अपने मित्र की पौत्री का रिश्ता कराने में जुटे हुए थे।
उन्होंने अपनी जेब से भी काफी पैसे खर्च कर दिए थे इन सब चक्करों में। आखिरकार रिश्ता तय हो गया।
चंद्र प्रकाश जी खुश थे कि चलो उनकी मेहनत सफल हुई।
लेकिन रिश्ता होने के पश्चात रमेश के परिवार वाले उनसे अपेक्षित सा व्यवहार करने लगे।
‘मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं है’ वाली कहावत चरितार्थ हुई। विवाह में भी मात्र सिंगल कार्ड देकर खाना पूर्ति कर ली गई।
चंद्र प्रकाश जी शगुन का लिफाफा देने विवाह में गए तो वहां भी स्वयं को उपेक्षित सा पाया।
वह लिफाफा देकर बाहर निकल ही रहे थे तो उनकी जान पहचान के कुछ लोग उनको देखकर बोले, “अरे चंद्र प्रकाश जी अपने ही तो कराया है इतना बढ़िया रिश्ता। हमारे बच्चों के लिए भी बताओ ना ऐसा ही कोई रिश्ता”
चंद्र प्रकाश जी कुछ कहते इससे पहले ही कन्या के पिता सारे किए कराए पर #झाड़ू मारते हुए बोले, “अरे इसमें इनकी कौन सी बढ़ाई है? वह तो मेरी लड़की का भाग्य है जो इतने ऊंचे घर में रिश्ता हो गया”।
‘नेकी कर और दरिया में डाल’ की भावना रखें चंद्र प्रकाश जी बेइज्जत होकर घर लौट आए।
सच्चाई यही है कि रिश्ते कराने वाले को दोनों पक्षों की ओर से बुराई ही मिलती है।
#झाड़ू मारना मुहावरा आधारित लघु कथा
स्वराजित मौलिक
प्राची अग्रवाल
खुर्जा उत्तर प्रदेश