“तू स्कूल क्यों नहीं आया? मैं स्कूल के फाटक पर तुम्हारा इंतजार करता रहा। दो दिनों बाद पेपर है और तुम घर पर हो। क्या बात है? बताओ तो सही!”नवीन छुट्टी के बाद अपने दोस्त रतन के घर पहुंचा।
“हां यार! इस बार मुझे परीक्षा देने का मन नहीं”रतन ने कहा।
यह कैसी मजाक वाली बात हुई भाई! परीक्षा छोड़ी जाती है? मुझे तो बिल्कुल समझ नहीं आ रहा।”नवीन ने उसे डांटते हुए कहा।
तब रतन रोने लगा। रोते हुए कहने लगा-“मैंने फीस नहीं जमा करी है। मैम ने कहा,”कल यदि फीस नहीं जमा करोगे तो परीक्षा में नहीं बैठ पाओगे।” फीस के लिए पैसे नहीं थे इसलिए मैं स्कूल नहीं गया। मां जहां काम करती है न,
अभी महीने पूरे नहीं हुए इसलिए रुपए नहीं मिले। मां ने फीस देने की बात कही लेकिन वे लोग नहीं माने। पढ़ाई हमारे बस की नहीं! इतना कह वह चुप हो गया।”नवीन भी रूंआसा हो गया। कुछ देर दोनों चुप रहे। नवीन ने चुप्पी तोड़ी।”एक काम करता हूं।
मैंने गुल्लक में पैसे जमा किए हैं ना, वह तुम्हें दे दूंगा और तुम फीस जमा कर देना। जब तुम्हारे पास पैसे हो जाएंगे तब मुझे वापस कर देना।” रतन की आंखों में चमक आ गई और नवीन के गले लग गया।
“ठीक है दोस्त ,मैं घर जा गुल्लक से पैसे निकाल तुम्हें आकर दे जाता हूं और तुम कल स्कूल आकर फीस जमा कर देना।”ऐसा कह नवीन अपने घर की ओर चल पड़ा।
शाम में अपनी मम्मी से नजरें बचा उसने गुल्लक से पैसे निकाले और रतन को दे आया। रतन की मां जब काम करके लौटी तब रतन ने कहा,”मां, पैसे का इंतजाम हो गया। कल मैं स्कूल जाऊंगा और फीस जमा कर दूंगा।” रतन की बातें सुन उसकी मां गरम हो गई।
“कहां से लाए तुमने पैसे? चोरी की है तुमने रतन?”रतन कुछ कहता, उससे पहले मां ने जोरदार चांटा जड़ दिए और कहा,”तुम नहीं पढ़ते तो क्या हो जाता। सही -सही बता। किसके चुराए हैं पैसे?”
“नहीं मां। मैंने नहीं चुराए।”रोते हुए सारी बातें कह डाली।
मां ने उसे गले लगाते हुए कहा,”मुझे माफ़ कर दे बेटा! मैं तुम पर बिना जाने समझे गरम हो गई।”
संगीता श्रीवास्तव
लखनऊ
स्वरचित, अप्रकाशित।