सुबह चाय के साथ अखबार हाथ में लेते ही आरती अन्दर तक हिल गयी। चाय का कप हाथ से छूट कर जमीन पर बिखर गया। मन का मंदिर जो सुना हो गया था।
“तो क्या नवीन सर अब नहीं रहे?”
और अतीत का पन्ना फड़फड़ाने लगा।
सातवीं कक्षा में थी आरती। उसी समय हिन्दी के एक नये शिक्षक की नियुक्ति हुई थी। नवीन महतो। नवीन सर सातवीं से बारहवीं तक की कक्षा में हिन्दी पढ़ाते थे। हिन्दी साहित्य की गद्य-पद्य दोनों विधाओं में उनकी गहरी पैठ थी।
चाहे सूर-तुलसी की कविताएं हों या दिनकर की उर्वशी। रचना के साथ साधारणीकरण हो जाता था। हर छात्र- छात्रा अपने को ही नायक, नायिका की जगह पर देखने लगता था। सभी बच्चे नवीन सर के दीवाने थे। न जाने कैसे एक सातवीं के छात्र को नवीन सर का जन्मदिन मालूम पड़ गया। उन सबों ने मिलकर नवीन सर को जन्मदिन पर कुछ सरप्राइज देना चाहा।
किसी ने केक लाया, तो किसी ने रंगीन कागज और कुछ बैलून और अपनी इच्छानुसार सभी कुछ-न- कुछ उपहार भी लाये थे। आरती भी उपहार लाना चाहती थी, लेकिन आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण वह खरीद नहीं सकी। अतः उसने एक सुन्दर सा कार्ड बनाकर उस पर नवीन सर के लिए कुछ कविताएँ लिखकर लाई।
टिफिन टाइम में टेबल पर केक सजाकर नवीन सर को बुलाकर लाया और सभी उनके साथ मिलकर उनसे केक कटवाया, उन्हें शुभकामनाएं दी। अपना- अपना उपहार भी दिया। आरती पीछे खड़ी थी। वह संकोच में थी कि मैं कुछ नहीं ला सकी।
सबकी नजर बचाकर चुपके से जहाँ सबके उपहार रखे थे उसी के बीच अपना कार्ड रखकर आरती चुपके से कमरे से निकल गयी। नवीन सर बच्चों के इस पहल से भाव-विभोर हो उठे। सभी ने केक भी खाया।
दूसरे दिन कक्षा में आते ही नवीन सर ने सबसे पहले आरती को खड़ा किया।
” तुम कल केक खाए बगैर ही क्यों चली गयी?”
आरती ने झूठ का सहारा लिया। कैसे कहती कि मेरे पास उपहार खरीदने के पैसे नहीं थे इसलिए…
“सर, कल दोपहर में ही घर जल्दी जाना था, इसलिए…….”
सर समझ गये कि आरती झूठ बोल रही है, क्योंकि उन्होंने उसे टिफिन के बाद भी देखा था। फिर भी वो खामोश रहे। उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा-
“आरती, तुम्हारी कविता मुझे बहुत अच्छी लगी। उसे मैं हमेशा अपने पास रखूँगा। क्या तुम्हें कविता लिखने का शौक है?”
आरती ने ‘हाँ’ में सिर हिला दिया।
आरती प्रतिभा संपन्न लड़की थी। नवीन सर का प्रोत्साहन पाकर नित्य नयी-नयी कविताओं का सृजन करने लगी। नवीन सर भी साहित्य सृजन करते थे। ये सिलसिला ग्यारहवीं तक चला।नवीन सर आरती की प्रतिभा के बीच गरीबी को नहीं आने देना चाहते थे। उन्होंने
आरती की कविताओं का संग्रह प्रकाशित करवाया। सभी पत्र-पत्रिकाओं में उसकी रचना छपवाने लगे। नवीन सर स्वयं भी कहानियाँ वगैरह लिखते थे। उनकी कहानियाँ भी पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थी। काॅलेज में जाने के बाद भी आरती नवीन सर के सम्पर्क में हमेशा रहती थी।
कविताओं के बहाने लगभग रोज ही मिलती थी। एक दिन उसे पता चला कि नवीन सर गाँव जा रहे हैं अपना परिवार लाने। बच्चा अब स्कूल जाने लायक हो गया है। सुनते ही आरती जैसे चक्कर खाकर गिर जायेगी। वह नवीन सर को अविवाहितसमझ रही थी।
सम्भलने के बाद चुपचाप घर लौट आयी। नवीन सर के निस्वार्थ सहायता को आरती प्यार समझ बैठी थी। वह समझने लगी थी कि कोई क्यों किसी की इतनी मदद करेगा? जरूर सर को कविता और कवयित्री दोनों पसंद है। उसने नवीन सर को अपने मंन- मंदिर में स्थापित कर दिया था।
आजीवन उनके साथ जीने का सपना देख रही थी। अब वह सपना टूट चुका था। वह किसी से कुछ कह भी नहीं सकती थी। यहाँ तक कि नवीन सर को भी नहीं। नवीन सर ने ऐसा कभी कोई बर्ताव नहीं किया था जिससे लगे कि वे प्यार का पैगाम भेज रहे हैं।
गलतफहमी की शिकार हुई आरती का एकतरफा प्यार उसे कहीं का नहीं छोड़ा। चाहत कोई वस्तु नहीं है कि निकाल कर फेक दें, एक बार दिल जिसके हवाले हो जाता है उसी का होकर रह जाता है। आरती ने बहुत कोशिश की कि नवीन सर को हमेशा के लिए भूल जाऊँ और माता- पिता के कथनानुसार एक अजनबी को जिन्दगी सौप दूँ।
दो साल बीत गये। इसी बीच किसी तरह आरती ने बी.ए.कर लिया, लेकिन नवीन सर की यादें थोड़ी भी धूमिल नहीं हुई, बल्कि हृदय में स्थापित मूर्ति दिनों- दिन निखरती गयी।
अब वह दिल अपना था कहाँ? जो इसका कहना मानता। वह तो नवीन सर का हो चुका था।
बी.एड. का बहाना कर शादी करना नहीं चाहती थी। इधर इसके माँ- बाप आगे पढ़ाने की स्थिति में नहीं थे। आरती की जिद पर अपने स्वाभिमान को दरकिनार कर माँ ने अपनी बहन से गुजारिश की कि आरती को अपने पास रखकर बी.एड. करा दो। मौसी छोटे से शहर में रहती थी। आरती वहीं रहने लगी और अपनी पढ़ाई पूरी की।
अब- तक आरती ये निश्चय कर चुकी थी कि वह आजीवन कुंवारी रहकर साहित्य-सृजन में आपना जीवन बितायेगी।
घर में स्पष्ट रूप से ऐलान कर दिया था कि वह शादी नहीं करेगी। घर में तूफान आ गया, जो सम्भवतः जोर- जबरदस्ती पर भी उतर सकता था।
सुबह होने से पहले ही आरती एक पत्र अपनी माँ के सिरहाने रख घर से निकल गयी।
बी.एड.के दौरान काॅलेज में एक अच्छी दोस्त बनी थी जो स्कूल में शिक्षिका भी थी, उसी के घर ठहर गयी। एक दूसरे शहर में वह नौकरी के लिए आवेदन दे चुकी थी। उसका परिणाम आने ही वाला था। कुछ दिन बाद उसकी नियुक्ति दूसरे शहर में हो गयी और वह सदा के लिए अपने माँ-बाप के लिए मर चुकी थी। इसे प्रेम- पुजारिन कहें या प्रेम में पागल- दिवाने? ये तो वही जान सकता है जिसने प्रेम किया हो।
मन-मंदिर में नवीन सर को बैठा साहित्य सृजन और स्कूल के कामों में व्यस्त हो गयी।
अभी आठ साल ही तो हुए थे कि आज ये खबर-
“प्रसिद्ध उपन्यासकार की दुर्घटना मे मौत।”
फोन की घंटी से वर्तमान का आभास हुआ।
वह नवीन सर के श्राद्ध में जाना चाहती है। वह समझ नहीं पा रही थी कि जब वह नवीन सर की सुहागन नहीं बन सकी तो आज विधवा कैसे हो सकती है? लेकिन उसका दिल बार- बार स्वयं को आज विधवा मान रहा था।
और उसने जाने का निर्णय ले ही लिया।
वहाँ अपना परिचय नवीन सर की एक छात्रा के रूप में दिया।
श्राद्ध संस्कार समाप्त होने के बाद वह उस समय तो लौट कर आ गयी, लेकिन मन में एक संकल्प लेकर। नवीन सर की पत्नी कैंसर से पीड़ित थी। घर की हालत ठीक नहीं थी। अब नवीन सर भी नहीं रहे। आरती उनकी पत्नी से बड़ी सावधानी और आत्मीयता के साथ फोन पर बात की। उनकी पत्नी से कहा-
आप व्यवहारिक होकर सोचिए। आपकी तबियत खराव है।आपके बच्चे की जिम्मेदारी कौन लेगा? आपके बाद इन बच्चों का क्या होगा? नवीन सर ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है। ये उनके प्रति मेरी श्रद्धांजलि होगी। आप अपनी एक बेटी को मुझे दे दीजिए, मैं उसे अपनी बेटी की तरह रखूँगी और पढ़ाई से लेकर शादी तक जिम्मेदारी मेरी होगी। यदि आप इजाजत देंगी तो मैं उसे कानूनन गोद भी ले सकती हूँ।
बीमार और लाचार माँ को यह सही विकल्प लगा। नवीन सर से आरती के बारे में सुन चुकी थी। पुस्तक प्रकाशित करवाने की बात भी जानती थी।
आरती आकर उसकी छोटी बेटी स्नेहा को अपने साथ ले गयी। स्नेहा में नवीन सर की छवि देख आरती अपने प्यार को परिपूर्ण होती देख रही थी।
पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।