मानसी, ये दूध का गिलास निधि के कमरे में दे आ, उसकी परीक्षाएं चल रही है, दूध पीयेंगी तो पढ़ने में भी मन लगेगा, अपनी सास आरती जी की बात सुनकर मानसी अपना खाना छोड़कर पहले दूध देकर आ गई, वो अपने खाने की थाली से दोबारा खाने लगी थी कि आरती जी बुदबुदाने लगी, ‘
सारा टाइम खाने में लगा देगी तो घर का बचाकुचा काम कब करेगी? खाना तो इतने आराम से खाती है जैसे कि अपने मायके में बैठी हो, अरे! ये ससुराल है, यहां तो एक पांव पर खड़े रहकर गृहस्थी के धर्म निभाने होते हैं, इस तरह धीरे-धीरे काम करेगी तो आगे घर कैसे चलायेगी?”
मानसी ने सब सुन लिया था, और उसे पता था कि ये सब आरती जी उसे जानबूझकर सुना रही है, उसने खाना खाया और कड़वे घूंट पीकर रह गई, रसोई की तरफ जाकर रसोई का काम निपटाने लगी।
तभी घंटी बजती है, वो दरवाजा खोलती है, “भाभी ये मेरे दोस्त हैं, इन्हें आपके हाथ का खाना खाना है, तो आप फटाफट बना दीजिए, आधे घंटे बाद हमें निकलना है, मानसी देखती रह गई, उसका देवर मयंक अपने पांच दोस्तों को लाया था और आधे घंटे में छह लोगों का खाना बनाने में मुश्किल तो आयेगी।
उसने अपनी सास से कहा कि वो थोड़ी मदद कर दे, पर आरती जी अपने कमरे में चली गई, मानसी ने जैसे – तैसे करके फटाफट कूकर में दाल चढ़ाई, सूखी आलू-प्याज की सब्जी बना दी और बूंदी का रायता बनाकर पापड़, अचार के साथ गरमागरम पूडिया बना दी, शुक्र है चार बर्नर वाली गैस ने समय तो बचा दिया और खाना भी बना दिया।
रात को थक-हार कर अपने कमरे में गई और उसे पलंग पर लेटते ही नींद आ गई।
सुबह नींद खुली तो उसे अफसोस हुआ कि वैभव कब कमरे में आये, उसे पता ही नहीं चला।
‘आपने मुझे जगाया क्यों नहीं?’ मानसी ने उलाहना दिया।
‘तुम बहुत गहरी नींद में सो रही थी, इसलिए सोने दिया, अच्छा सुनो आज मेरे कॉलेज के दोस्त अपने परिवार समेत घर आ रहे हैं, रात का डिनर यही पर करेंगे, कुछ अच्छा सा बना लेना, पहले ही बताकर जा रहा हूं, दिन भर आराम से तैयारी कर लेना’ वैभव ये कहकर ऑफिस के लिए तैयार होने लगा।
मानसी रसोई में गई और चाय-नाश्ते की व्यवस्था करने लगी, शाम को क्या बनाऊं? इतने लोगों का खाना एक साथ कभी बनाया भी नहीं, कैसे बनायेगी? ये भी उसके दिमाग में चल रहा था।
उसने अपनी सासू मां से पूछा कि, ‘मम्मी जी शाम को खाने में क्या बनाऊं? और कितनी सब्जियां लूं? इनके दोस्त परिवार समेत आ रहे हैं, पन्द्रह लोग वो होंगे, पांच हम लोग हो जायेंगे, तो किस हिसाब से कितना खाना बनाना है?
अभी का तो चाय-नाश्ता, खाने का अता-पता नहीं है, और शाम के खाने का राग अलाप रही है, जल्दी से हाथ चला तेरे ससुर जी पार्क से आते ही होंगे, उन्हें आते ही नाश्ता चाहिए, मानसी कुछ ना बोल सकी और वो अपने सुबह के काम-काज और रसोई निपटाने में लग गई।
अभी चार महीने पहले ही शादी हुई थी, मानसी अपने भावी ससुराल को लेकर बहुत ही उत्सुक थी, उसे लग रहा था कि छोटा सा परिवार है तो सब कुछ अच्छा होगा, आरती जी जब भी मिलती बड़े ही प्यार से बात करती थी, उसे भी अहसास होता कि वो अपने एक मायके से दूसरे मायके में जा रही है, निधि भी उससे फोन पर मीठी-मीठी बातें करती थी, वैभव भी बड़े प्यार से बात करते थे, और देवर मयंक भी भाभी…भाभी करते रहते थे।
जब शादी के बाद उसकी विदाई हो रही थी तो मां के कलेजे के टुकड़े हो रहे थे, मां के आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे, और उसकी सास ने उसकी मां को बहुत दिलासा दी थी, “समधन जी आप परवाह मत कीजिए, मै इसे अपनी बेटी बनाकर ले जा रही हूं, मेरी
बेटी निधि की तरह ही मै मानसी को प्यार और ममता दूंगी, आप बिल्कुल निश्चिंत रहिये।
तब से मानसी की मां को थोड़ी राहत मिली, सास अपनी बहू के लिए ये शब्द कह दे, वो ही बड़ी बात है, फिर जिसके बेटी होती है वो मां तो हर बेटी का दर्द समझती है।
लेकिन मानसी ने जैसे ही ससुराल में कदम रखा, दो चार दिन के लाड़ चाव के बाद उसकी सास ने उसे दिन में ही तारें दिखा दिए, सारे घर की जिम्मेदारी उसे सौंप दी, वो सुबह से रात तक सास-ससुर, ननद, देवर, पति के आगे-पीछे घूमती रहती थी। उसके आते ही आरती जी ने कामवाली भी हटा दी। उसने वैभव से कहा भी था कि कामवाली आती है तो थोडा सहारा लग जाता है, पर वैभव भी इस मामले में अपनी मम्मी के आगे कुछ नहीं बोला।
सुबह से दोपहर हो गई, मानसी ने फिर एक बार सलाह लेनी चाही, पर आरती जी भड़क गई, तुझे रसोई का काम ढंग से आता है या नहीं, बीस लोगों का खाना भी नहीं बना सकती तो तूने मेरे बेटे से शादी ही क्यों की ?
मानसी की आंखें भर आई, मम्मी जी मुझे आपसे ये उम्मीद नहीं थी, आप तो मुझे बेटी बनाकर लाई थी पर आपने तो मुझे बहू का भी हक नहीं दिया, बस इस घर की नौकरानी बनाकर रख लिया है, सारा काम अकेले करते-करते मै थक जाती हूं, पर आपको मुझ पर जरा सा भी तरस नहीं आता है, फिर आपने मेरी मां को झूठी दिलासा क्यों दी थी?
मैंने कभी इतने लोगों का खाना नहीं बनाया तो मुझे कैसे आयेगा ? आपको तो अनुभव है, आप मुझसे बड़ी है, आपसे बस पूछा है, आज निधि ससुराल जायें और वो आपसे कुछ मदद मांगे या सलाह मांगे तो आप उसे भी इसी तरह से कहती।
बेटी बोल देने से कोई बहू बेटी नहीं हो जाती है, बेटी के लिए दिल में जितनी जगह होती है, काश !! बहू के लिए थोडी सी होती। आपको बहू की परेशानी, तकलीफो से कुछ मतलब ही नहीं है, उसे उसके हाल पर छोड़ दिया, मै अकेली परेशान हो रही हूं तो हो रही हूं, पर आपको फर्क नहीं पड़ता है।
ये कहकर निधि कमरे में चली गई, उसने अपने आंसू पौछे और अपना मोबाइल निकाला फटाफट सारा खाना होटल से ऑर्डर कर दिया।
आरती जी ने रसोई में आकर देखा तक नहीं, शाम को होटल से खाना आ गया, और पीछे-पीछे वैभव भी आ रहा था।
‘ये क्या इतना खाना किसने मंगाया है? बिल देखकर वैभव और आरती जी का सिर चकरा गया।
भैया, ये खाना डाइनिंग टेबल पर रख दीजिए, मानसी ने अंदर से आते हुए कहा।
“तुम ये खाना वापस ले जाओ, इतना रूपया मै खर्च नहीं करूंगा,” वैभव चिल्ला कर बोला।
फिर अपने दोस्त के परिवार वालों को क्या खिलाओगे? मैंने तो कुछ बनाया भी नहीं, फिर आगे जो भी करना है, आप देख लीजिए, वो सब आते ही होंगे, मानसी मजबूती से बोली।
वैभव सकपका गया और आरती जी कुछ बोल नहीं पाई, मानसी ने सारा खाना घर के बर्तनों में खाली किया, और मेहमानों के आने के बाद परोस दिया, सब खाने की तारीफ कर रहे थे, वैभव और आरती जी का चेहरा खाने का इतना बिल देखकर उतरा हुआ था।
सब लोग खाना खाकर चले गए, फिर वैभव ने अपना गुस्सा मानसी पर निकाला, लेकिन मानसी की बातों को सुनकर उसका गुस्सा शांत हो गया।
‘मम्मी, आप तो इतना अच्छा खाना बनाते हो, पचास लोगों का भी आपने बनाया है, आप मानसी को साग-सब्जियों का थोडा सा अंदाजा दे देते तो आज होटल के खाने का इतना बिल नहीं आता, मानसी अब इसी घर की है, उसने कम से कम कैसे भी खाना मंगवाकर मेरे दोस्तों के सामने मेरी इज्जत तो रख ली, पर आपने तो बहू के आते ही घर की इज्जत और बजट की परवाह करना छोड़ दिया है।’
अपने बेटे की बात सुनकर आरती जी को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने अपना अहम छोड़कर धीरे-धीरे मानसी को बेटी की तरह अपनाना शुरू कर दिया।
अर्चना खंडेलवाल
मौलिक अप्रकाशित रचना
#सासू मां आप मुझे बेटी बनाकर लाई थी, मगर बहू का भी हक नहीं दिया।