“परी, चल जल्दी से शादी का जोड़ा पहन ले, जयमाले की रस्म होने ही वाली है”..
सुगंधा आज जितनी उत्साहित है उतनी ही विवश भी. बस आज की रात कल बेटी विदा होकर चली जाएगी अपने घर,कैसा लगेगा तब यह घर जिस घर के कोने कोने में परी और सुगंधा की साथ-साथ साझा की गई बातें गूँजती हैं, खुशियाँ आँख मिचोली का खेल खेलती हैं, बाइस बरस परी इस घर के आँगन में खेली कूदी, छत गलियारों में उठी बैठी, सब एक पल में छोड़कर अपने घर चली जाएगी. लड़कियाँ विधाता के किस दुख से उपज होती हैं, जाने.
बस एक ही डर मन में लगा रहता है.. ससुराल जाकर वही ताने,वही उलाहने परी को भी न सुननी पड़े जो सुगंधा को सुननी पड़ी थी जब पच्चीस बरस पहले सुगंधा इस घर में आई थी शादी करके, बाद बात पर एक ही ताना सुनती आई थी…
क्या यही संस्कार दिए हैं तुम्हारे मां-बाप ने….
कैसी परवरिश है तुम्हारी…
किसी बात को जमीन पर नहीं गिरने देती, हर बात का जवाब तैयार है तुम्हारी जुबान पर.. वगैरा-वगैरा..
हाँ यह सच था की सुगंधा कभी भी किसी गलत बात को चुपचाप नहीं सहती थी मगर क्या किसी बात का जवाब देना भी गलत संस्कार की परिभाषा में शामिल है. आश्चर्य तो तब होता था जब उसके पतिदेव भी अपने घर वालों की हाँ में हाँ मिलाते थे.
विदाई का समय हो आया, लड़के के हाव-भाव और बोली भाषा से तो वह एक बड़ा ही समझदार इंसान मालूम पड़ता था मगर ऐसे ही भले इंसान तो रवि भी लगे थे, सुगंधा के पापा को..बाद में क्या हुआ रवि की सारी भलमनसाहत उस एक वाक्य में ही दिख गई थी..
तुम मायके से सड़ी गली चीजों के साथ खराब और बुरे संस्कार भी लेकर आई हो..
रवि ने कभी सुगंधा के माता-पिता को कोई सम्मान नहीं दिया कारण कि उन्हें लगता था कि वे लोग सुगंधा को गलत पाठ पढ़ाया करते थे. सुगंधा को कभी-कभी इस बात का बड़ा दुःख होता.. क्या अपनी बात कहना जबान लड़ाना होता है.
इस मामले में परी तो उससे भी चार कदम आगे है, उसकी दादी तो हमेशा ही उसे कहती रहती..
जिस घर जाएगी पहले ही दिन इसके पग फेरे हो जाएंगे,, कहाँ टिकेगी ऐसी संस्कारी बहू..
उनका व्यंग्य सुगंधा को बर्दाश्त नहीं हो पाता लेकिन समय के साथ उसने चुप रहना भी सीख लिया था, फिर मन
सशंकित भी रहता.. यह नए जमाने के बच्चे समझौता करना कहाँ ही जानते हैं परी तो किचन में जाने के नाम पर ही नाक मुँह सिकोड़ने लगती है.. मगर जब भी सुगंधा बीमार पड़ती, उसने अपनी मम्मी का सारा काम सँभाला है.. चाहे बेतरतीबी से ही सही पर किया तो है, चाहे आड़ी तिरछी ही सही.. रोटियाँ बनाई तो हैं, चाहे खूब शक्कर डालकर ही, चाय पिलाई तो है..
ऊँह….जो भी हो देखा जाएगा, सुगंधा बिना किसी तनाव के रहना चाहती थी इस मामले में,परी विदा हो गई घर सूना छोड़ गई.सुगंधा सीढियों पर बैठकर देर तक रोती रही, बार-बार परी का ख्याल उसे चौंका देता, ससुराल पहुँचकर कैसा स्वागत हुआ होगा उसका.
वह दिन तो बीता जैसे तैसे.
दूसरे दिन सुबह-सुबह ही परी की चहकती आवाज सुनकर मन मयूर नाच उठा..
हाँ परी बेटा..कैसी है तू..ससुराल में सब कैसा है..
परी उसी खुशी से बोली..
सब अच्छा है मम्मा..अभी मैं कमरे में तैयार हो रही थी तो जतिन ने कहा कि लो पहले अपनी मम्मी से बात करके उन्हें रिलैक्स कर लो बाद में शायद तुम्हें रिलैक्स होने को भी समय ना मिले लंबा कार्यक्रम है.
मन में सोचा कितना अच्छा है ना लड़का लोग तो ऐसे ही आजकल के बच्चों को दोष देते रहते हैं,देखो यह नए जमाने का ही तो है ना पर इसके मां-बाप ने इसे कितने अच्छे संस्कार दिए हैं, कुछ थोड़ी सी बातें जतिन ने भी कीं, उसे लगा कि जो साध ईश्वर ने अब तक न पूरी की..
आज पूरी कर दी, एक बेटा मिल गया. समय बीतते क्या देर लगती है भला परी की शादी को दो महीने बीत गए इस बीच परी की आवाज में कभी कोई रोष, गुस्सा या दुःख प्रकट न हुआ. जतिन ने भी कभी, कोई शिकायत नहीं की, परी के लिए और न हीं ससुराल पक्ष के किसी सदस्य ने.
एक ही शहर में होने से परी मिलने भी आ जाती थी,जतिन भी साथ आता इतना सभ्य और सुसंस्कृत लड़का कि सुगंधा का दिल बाग बाग हो जाता. सुगंधा का मन हो आया कि आज परी के ससुराल चले,ससुराल में खूब स्वागत हुआ उसका,परी की सास से पहली बार अकेले में रूबरू हुई सुगंधा…
हाथ जोड़ दिए…
बहन जी,अगर मेरी बेटी से…
उन्होंने बीच में ही टोक दिया..
सुगंधा जी, यह घिसी पीटी, पुरानी बात रहने दीजिए.हाथ हमें जोड़ना चाहिए क्योंकि हम लड़के वाले हैं और उद्दंडता में अक्सर लड़के ही आगे होते हैं,अगर हमारे जतिन से कोई भूल हो जाए तो उसे अपना बच्चा समझ के माँफ करिएगा,आपकी परी तो बिल्कुल वैसी है जैसी बहू हम चाहते थे, हर बात को चुपचाप गूँगी गाय बनकर सह जाने वाली लड़की हमें भी नहीं चाहिए थी, कम से कम उसे अपनी बात रखना आना चाहिए तरीके से और परी तो हर काम को करने में उत्साहित रहती है चाहे उसे आए ना आए.. लड़कियों को एक फ्रेमवर्क में कैद करके पालना कि उसका दायरा केवल घर रसोई,, चूल्हा चौका है,इसका समर्थन मैं नहीं करती ठीक वैसे ही जैसे मैं यह नहीं मानती कि लड़कों का कोई दायित्व नहीं है.. अपनी पत्नी के माता-पिता के प्रति.. यह दायरे पुराने जमाने के लोगों ने तय किए हैं और इन्हीं दायरों पर उन्हें बड़ा गुरूर होता है लेकिन गुरुर तो हमें इस बात पर होना चाहिए कि हम अपने बच्चों को एक अच्छा इंसान बना सकें बस बाकी के दायरे वे खुद तय कर लेते हैं.
# गुरुर
श्वेता सोनी