शुभांगी की शादी के लगभग इकतीस वर्ष हो रहे थे।इतना समय बीत गया और जाते-जाते बहुत सारी यादें दे गया।अमित के साथ जब ब्याह कर आई थी,तो बाकी लड़कियों की तरह बहुत सारे सपने आंखों में लेकर नहीं आई थी।बचपन से ही थोड़े में खुश होने का हुनर था उसके पास।शादी के बाद हनीमून पर जाने के लिए पति में जब कोई उत्साह नहीं देखा,तो शुभांगी ने भी जिद नहीं की।शादी -ब्याह में अनेक अप्रत्याशित खर्च हो जातें हैं,बजट बिगड़ ही जाता है।
अगले साल ही मां बनने की खबर मिली तो पूरा परिवार खुशी से मानो नाच उठा। पलकों पर बिठाकर रखतीं थीं सास और अमित,शुभांगी को।भाग्य की विडंबना ही थी कि नौंवा महीना लगते ही जन्म से पहले बेटा गर्भ में ही मृत घोषित कर दिया गया।उस समय ज्यादा जानकारी तो होती नहीं थी,डॉक्टर ने बताया एम्नियाटिक फ्लूयड कम था,इसलिए सांस नहीं ले पाया।
अमित बहुत दुखी हुआ था,सास का रो-रोकर बुरा हाल हो रहा था।उसी समय छोटी ननद को देखने लड़के वाले आ रहे थे।शुभांगी अपना दुख भूलकर काम में लग गई,रोई नहीं ।हमेशा यही सोचती कि मुझसे ज्यादा दुख तो इस परिवार को हुआ है।मैं तो बस मां नहीं बन पाई।शुभांगी की छोटी ननद जो सहेली से कम नहीं थी,दुखी होकर कहती”,तुम कैसी मां हो भाभी,पूरा हृष्ट-पुष्ट बच्चा को दिया तुमने,और तुम मेरे ब्याह की तैयारी कर रही हो।आने दो लड़के वालों को ,हम ध्यान रख लेंगें उनका।तुम थोड़ा आराम करो।रो लो थोड़ा,अपना मन हल्का कर लो, प्लीज़।”
शुभांगी ने कहा था”उसे नहीं भेजना था भगवान को मेरे पास,तो ले लिया।किसने कहा मैं मां नहीं बनी।अरे मायके में चार छोटे-छोटे भाई-बहनों की खड़ूस मां ही थी मैं।यहां आकर तुम जैसी प्यारी ननद की भाभी बनी।भाभी भी तो मां ही होती है।देखना,जब भगवान जी को मेरे लायक अच्छा कोई बच्चा मिलेगा,जरूर देंगे।”
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ननद अपनी भाभी का दर्द समझती थी।अपने भाई से जिद करके भाई और भाभी को पुरी जाने के लिए मना लिया।शुभांगी को कहा था उसने”जाओ,भाभी एक बार जगन्नाथ भगवान से अच्छा बच्चा मांग लो ना।मुझे जल्दी बुआ बनना है।”
शुभांगी ने टालते हुए कहा”अभी तुम्हारी शादी पक्की हो गई है।कितना काम पड़ा है।मैं कैसे अभी इतना खर्च कर घूमने जा सकती हूं।”ननद ने समझाया”अरे बाबा,घूमने मत जाना।जगन्नाथ से अपने और हम सबके लिए एक बच्चा मांगना बस।कुछ और मत खरीदना।भगवान का सचमुच बुलावा आ गया।
शुभांगी अपने हमसफर अमित के साथ पुरी पहुंची।अमित ने कभी खर्च का ताना नहीं दिया,बहुत अच्छे से घुमाया पुरी धाम। जगन्नाथ जी के मंदिर के बाहर कल्पतरु वृक्ष के पास पहुंच कर शुभांगी बैठ गई।अचानक एक पंडा आ गए और उस वृक्ष में मन्नत की गांठ बांधने कहा।मन में अपार श्रद्धा रखकर शुभांगी ने पति के साथ गांठ बांध दी पेड़ पर।
अगले साल ही स्वस्थ बेटे को जन्म देकर मातृत्व सुख पा गई शुभांगी।पुरी जाकर जैसे ही गांठ खोलने की बात आई ,ससुर जी को लकवा मार गया।बिस्तर पर पड़े बुजुर्ग पिता को मां के भरोसे छोड़कर जाना उचित नहीं था।अमित ने कहा भी”चलो,तीन -चार दिन में आ जाएंगे।बहन को बुला लेता हूं।”ना बहनें आ पाईं और ना शुभांगी जा पाई।
ससुर के देहांत के बाद फिर पुरी जाने का विचार किया तो सासू मां ने भी चलने की इच्छा जताई।उनकी भी उम्र हो चुकी थी।अमित नहीं माने।अगले तीन-चार सालों में अमित को ही हाई शुगर हो गया।टलते-टलते पुरी जाना टलता ही रहा।बेटे का उपनयन पुरी में करवाने का बहुत मन था,शुभांगी का।सासू मां अपनी बेटियों को छोड़कर जाना नहीं चाहतीं थीं।बेटे को सलाह दिया उन्होंने “इकलौता बेटा है तुम्हारा।नाथ-रिश्तेदार क्या कहेंगे? खर्च के डर से पुरी में कार्यक्रम रखा है,सोचेंगे।घर से ही करना ठीक होगा।पुरी जाने का सपना फिर अधूरा रह गया।
अमित को शुगर के चलते किडनी की समस्या भी हो गई।अब वह कहते”शुभि,तुम हो आओ बच्चों को लेकर।मन्नत भी खोलना जरूरी है।मैं नहीं जा पाऊंगा।”शुभांगी असमंजस में ही फंसी रही।मां ने कहा था “तीर्थ अपने हमसफर के साथ ही करना चाहिए,अन्यथा पुण्य नहीं मिलता।मन्नत तुम दोनों ने साथ में किया था,तो खोलोगे भी तुम्हीं दोनों साथ।”
शुभांगी जगन्नाथ भगवान से प्रार्थना करती रही कि,कुछ तो संयोग बना दे।एक बार पुरी जाकर दर्शन करवा दें बेटे को,और मन्नत भी खुल जाए।
लंबी बीमारी से टूक चुके अमित ने शुभांगी का साथ छोड़ दिया। डायलिसिस के दौरान ही भगवान को प्यारे हो गए।शुभांगी का बेटा अब तेईस वर्ष का और बेटी इक्कीस की हो चुके थे।बेटे को देखकर शुभांगी आत्मग्लानि से भर जाती।जिनकी दया से बेटा मिला,उनके दर्शन तक करने नहीं जा पाई अपने साथी के साथ।
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इस महीने बेटी नौकरी से छुट्टी लेकर आई ।अचानक इतनी लंबी छुट्टी पर बेटी को देख शुभांगी का माथा ठनका।पूछ ही लिया उसने,”क्या हो गया तानी?सब ठीक तो है ना?”बेटी ने मां की आत्मा तृप्त करते हुए कहा”मम्मी,इस बार मैं घर पर रहूंगी दादी की देखभाल के लिए।तुम दादा के साथ जाकर पुरी हो आओ।पापा की आत्मा को भी शांति मिलेगी।
तुम भगवान से प्रार्थना करना कि,इस बार कोई विध्न ना आए।”रिजर्वेशन हो चुका था।वही जगह,वही स्टेशन,वही समुद्र का किनारा।बस होटल दूसरा लिया था बेटे ने।होटल पहुंच कर नहा धोकर जैसे ही मंदिर के प्रांगण में प्रवेश किया शुभांगी ने,लगा अमित साथ में चल रहें हैं।इतने वर्षों के बाद मंदिर का कायाकल्प हो चुका था।
नहीं बदली थी,तो बलराम,सुभद्रा और जगन्नाथ की मूर्तियां। दर्शन करते हुए रोने लगी थी शुभांगी।मन ही मन कहने लगी”यह कैसी लीला है तुम्हारी माधव?तुम तो यहीं थे,फिर मुझे अपने साथी के साथ क्यों नहीं बुलाया अब तक?जिस बेटे के लिए मन्नत मांगी थी,वही आज लेकर आया तुम्हारे द्वारे।”बेटा शायद मां के अंतर्मन की व्यथा और खुशी दोनों समझ पा रहा था।
काफी देर बैठ कर रोती रही शुभांगी।एक पंडा आकर दुबारा दर्शन करवाने ले गया।इस बार और देर तक निहार सकी भाई-बहनों की जोड़ी।बाहर निकल कर पंडा बेटे को बताने लगा”बेटा,यह है कल्पतरु।मनोकामना पूर्ण करने वाला पेड़।”बेटा तुरंत शुभांगी का हांथ पकड़ कर खींच कर ले गया वृक्ष के पास और बोला”मम्मी,खोल लो अपनी मन्नत।पापा भी हैं साथ में हमारे।आज मैं आपका हमसफर बने गया,पर रास्ता पापा ने ही बनाया होगा।”
शुभांगी ने रोते हुए अमित को याद किया,पुजारी जी के हांथ में दक्षिणा देकर आंख मूंदकर शाखा से एक धागा तोड़ लिया।लगा यही पत्थर का टुकड़ा तो अमित ने चुना था बांधने के लिए। समुद्र के किनारे हाथों में वही धागे से बंधा हुआ पत्थर और फूल लहरों में विसर्जित कर के ऐसा लगा मानो,ऊपर से ठीक चांद के पास से अमित देखकर खुश हो रहें हैं।आज एक पति ने अपनी पत्नी को साथी के रूप में बेटे के साथ देखा।हमसफ़र बदला पर सफर पूरा हुआ।
एकटक समुद्र को निहारते देख बेटे ने शुभांगी से कहा”हम फिर आएंगे मम्मी।जल्दी आएंगे।तुम दुखी मत हो।चलो अब रात ज्यादा हो गई।तुम्हें झालमुड़ी और फुचका भी तो खाना है।हां,सी फूड खाना है क्या?”
“नहीं रे,सी फूड तेरे पापा को ही पसंद था।पेट का भी तो ध्यान रखना होगा।”,शुभांगी समुद्र की लहरों को प्रणाम कर होटल आ गई अपने हमसफर के साथ।
शुभ्रा बैनर्जी