अच्छा पाने की उम्मीद हो तो अच्छा देना चाहिए – अर्चना सिंह : Moral stories in hindi

मालती जी के गृहप्रवेश की तैयारी चल रही थी । अपनी ननद अनुपमा को उन्होंने महीने भर पहले ही बोल रखा था । मालती जी ने अपनी इकलौती बेटी प्रीति को कॉल करके कहा..”बुआ और उनके परिवार के लिए कुछ उपहार और कपड़े वगैरह लेना है , आ जाती बेटा तुम तो शॉपिंग करा देती । वैसे तो खुद भी अपने पसन्द से खरीद ही लेती हूँ लेकिन आजकल के हिसाब से आधुनिक नहीं खरीद पाती हूँ । प्रीति उसी शहर में रहती थी । 

“ठीक है मम्मी ! विनय को बोल दूँगी वो बच्चों को देख लेंगे और मै सारे काम खत्म करके आ जाऊँगी । 

अगले दिन दोपहर में आ चुकी थी प्रीति । माँ ने पानी और मिठाई दिया । प्रीति का चेहरा तमतमाया हुआ था । “क्या हुआ बेटा ? मिठाई तो लो फिर खाना खाकर आराम से बाजार चलेंगे ।

प्रीति ने गुस्साते हुए कहा..क्यों माँ ? बक्शे में साड़ियाँ और कपड़े खत्म हो गए क्या, जो सब कुछ बाजार से खरीदकर देना जरूरी है । हर बार लोग आपके साथ ऐसा ही करते हैं, फिर भी पता नहीं आप क्यों नहीं सीखते हो । मेरे देवर विपिन घर पर थे इसलिए मैं कोई बात नहीं बढ़ाना चाहती थी वरना उसी समय कह देती क्या जरूरत थी ये सब खरीदने की । 

“क्या बोल रही हो तुम बेटा ? अब बुआ जो देती हैं उनकी मर्जी, क्या कर सकते हैं । हमे तो अच्छा देना पड़ेगा न । उनके ससुराल वाले भी तो होते हैं देखने के लिए भाई- भाभी ने क्या कैसा दिया है । वो बेटी हैं इस घर की ,तो मजबूर हो जाती हूँ मैं क्या करूँ ।

मम्मी की सारी बातें सुनकर प्रीति ऊँघते हुए बोली…”जब आप दुखी होती हैं मम्मी तो मुझे सुनाकर आप हल्की हो जाती हैं । उस वक़्त मुझे कैसा लगता है जब अच्छे उपहार, अच्छे कपड़े देने के वावजूद आपको लोग इसलिए खराब दे देते हैं कि ये तो जवाब देती नहीं जो मिल जाता है वो रख लेती है । अगर नहीं है सामने वाले के पास तो न दे फिर चलेगा पर होते हुए भी लोग ऐसा करते हैं तो बुरा लगता है ।

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आप नहीं महसूस करती होंगी आप किस कदर परेशान होती हैं ।आपकी आवाज बिल्कुल रुआँसी हो जाती है ।एक तो मानसिक शांति भंग होती है ऐसी चीजों को किसे फेकें और दूसरा पूरा दिन और घर का माहौल खराब होता है ।

मुझे बताती हैं आप तो मेरा पूरा दिन अस्त- व्यस्त रहता है ।

ठीक है , तुम्हारी यही समस्या है न  कि मैं तुम्हें बताती हूँ, तो ठीक है अब से कभी चर्चा नहीं करूँगी । पहले चल बर्तन की दुकान में उसके बाद कपड़े देखेंगे । पर्स निकालते हुए मालती जी ने कहा ।

अब दोनों माँ बेटी रिक्शा लेकर निकल पड़ीं बाजार । प्रीति का बिल्कुल मूड नहीं था लेकिन उसे माँ का दिल रखने के लिए खरीदना पड़ा । लौटने में रात हो गयी थी । मालती जी ने कहा..”दो – दो रोटी सबके लिए सेंक देती हूँ  । तुम खा लो और विनय जी, विपिन जी और बच्चों के लिए लेती जाओ । प्रीति ने विनय को फोन करके बुलवा लिया और चली गयी अपने घर । 

घर के काम खत्म करके जब वो सोने लगी तो उसे ख्याल आया..”बुआ के पास किस चीज में कमी है । बार बार बुआ दिखाती हैं कि मेरे ससुराल वाले साथ रहते हैं तो मुझे दिक्कत है । हर सामान वो हमसे पहले लेती हैं। अपने मे तो किसी तरह कटौती नहीं करतीं । बच्चे दो ही हैं  वरना हमसे कुछ कम नहीं   ।

और जब उन्हें लगता ही है कि कम है तो मम्मी से हमेशा महँगे सामान अपने पसन्द के खरीदवा लेती हैं और जब देने का होता है तो रोना रो के बेकार, पुराना पड़ा सामान थमा देती हैं। जब देने के लिए पैसे नहीं हैं तो लेने के लिए भी तो बजट देखना चाहिए वो तो कोई नहीं सोचता । पर हर बार मम्मी की ये परेशानी देखी नहीं जाती । हर जगह मम्मी के लिए मैं थोड़ी न उपलब्ध रहूँगी । बिना मुँह खोले कोई किसी की बात नहीं समझता । कल ही बोलती हूँ मम्मी को ।

सोच के धागे बुनते- बुनते कब प्रीति सो गई पता ही नहीं चला ।

अगली सुबह नींद जल्दी खुल गयी  और प्रीति सोच के घोड़े दौड़ाने लगी । उसने भगवान को प्रणाम किया और रोजमर्रा की दिनचर्या शुरू की । थोड़ी देर बाद वो नहा- धोकर तैयार थी । मालती जी ने प्रीति से फोन करके पूछा..”तुम क्या लायी देने के लिए बेटा ? झुंझलाकर प्रीति ने बोला..”साड़ी पहले से रखी है न मम्मी !

वही दे दूँगी, और कुछ नहीं लायी ।तुम तो जानती हो न बेटा, वो बोलती हैं बहुत साड़ी है, कुछ और काम की चीज दे दो ।उनके हिसाब से उपहार मैं थोड़ी न दूँगी मम्मी, वो कब मेरे लिए सोचती हैं। जब अच्छा पाने की उम्मीद हो न तो अच्छा देना भी चाहिए । हर बार मुझे घटिया सी साड़ी दे देती हैं बक्शे से वैसी पहनती हूँ मैं क्या ?

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पिछली बार मैंने उनको पैसे दिए थे सालगिरह पर तो भी उन्होंने मुझे कपड़े ही दे दिए ।

अब सोच लिया है, अपना बक्शा नहीं भरूँगी, बदलना है अब इस सोच को ।

बोल दे रही हूँ  पहले ही मम्मी ! पिछले दोनो बार की एकदम चमचमाती हुई जो बेकार साड़ी थी वो बुआ को आप लौटा दीजिएगा ।मैं ये नहीं कहती सिर्फ वही साड़ी दीजिए, उसके साथ जो देना है वो दीजिये लेकिन पुराना भी हटा दीजिए ताकि माथापच्ची न हो किसे देना है । 

“तू मत परेशान हो बेटा ! मुझे तो अब सोच के घबराहट हो रही है , पिछली साड़ियां रहने दे, किसी और के कार्यक्रम में दे देंगे । वो बेटी हैं इस घर की, कैसे खराब दें उन्हें ? फोन काट दिया प्रीति ने ।

अब नहा धोकर तैयार होकर प्रीति मम्मी के यहाँ पहुँच चुकी थी । अंदर घुसते ही उसने मम्मी की पीठ थपथपाते हुए कहा..” मम्मी…मम्मी..मम्मी ! मेरी बात सुनिए । थोड़ी देर के लिए घबराहट है उसको मजबूती बनाइए तो आगे घबराहट नहीं होगी ।  वो बेटी हैं तो खराब दे सकती हैं बहु को । और ये कहाँ लिखा है कि बहु अच्छा ही देगी ।इसीलिए बोल रही हूँ दूसरे की साड़ी दूसरे को क्यों देना । ऐसे तो जिसने अच्छा दिया उसे खराब मिल जाएगा । निरुत्तर हो गईं थी मालती जी प्रीति की बातें सुनकर ।

सारे मेहमान आना शुरू हो गए थे । अनुपमा भी अपने परिवार के साथ मौजूद थी ।घर की साज- सजावट देखते बन रही थी ।बैंड- बाजे की मधुर ध्वनि के साथ पूजा का शुभ मुहूर्त शुरू हुआ । पूजा चल रही थी । इधर प्रीति प्रसाद और मिठाई बाँटने में सबके साथ ब्यस्त थी । पूजा के बाद केक कटा और फिर स्नैक्स खाना- पीना , फिर सभी रिश्तेदारों से मिलना- जुलना, गपशप जारी था । तभी अनुपमा ने अपनी भाभी को धीरे से उपहार पकड़ा दिया ।

प्रीति की कही बात मालती जी ने दिमाग मे डाल रखी थी । उन्होंने किनारे जाकर धीरे से गिफ्ट पेपर थोड़ा ही हटाया था कि चमचमाती साड़ी पर नज़र पड़ गयी । अब मालती जी को हिम्मत हो गयी थी । उन्होंने पिछली दो साड़ियाँ अनुपमा की दी हुई, इस बार की दी हुई साड़ी और पूजा के लिए लायी गयी साड़ी सब मिलाकर एक पैकेट में डाला और अनुपमा को दे आयी ।

अनुपमा यूँ तो रखने ही जा रही थी ट्रॉली में साड़ियों को तब तक पैकेट से साड़ियाँ फिसल गईं ।अनुपमा की भौहें तन गईं..”ये तो विश्वास योग्य ही नहीं है । भाभी ने मेरी साड़ियाँ मुझे वापस लौटा दीं । असमंजस में हो रही थी वो तो गुस्सा भी आ रहा था । फिर उसने बाहर जाकर पानी पीया और मुस्कुराते हुए मालती जी के पास गई ।

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मालती जी के पीछे- पीछे प्रीति भी गयी । और चुपचाप नज़ारा देखकर समझने की कोशिश कर रही थी ।  पूजा वाली साड़ी को अलग निकाल कर रखते हुए अनुपमा ने मालती जी को पैकेट पकड़ाते हुए बोला..”भाभी ! ये साड़ी तो मेरा दिया हुआ है, आप मुझे ही लौटा रही हैं, लगता है किसी और को देने के लिए आपने रखा था और गलती से मुझे दे दिया ।

थोड़ी देर के लिए मालती जी ने चुप्पी साध ली । फिर प्रीति पर उनकी नज़र गयी तो उन्होंने हिम्मत जुटाकर बोल डाला..”किसी और के लिए नहीं, आपका है इसीलिए आपके लिए निकाली हूँ । ये साड़ी मेरे पास क्या होगी, कोई नहीं ऐसा पहनने वाला है जो किसी और को दे दूँ ।

अनुपमा का चेहरा उतर गया था । उसने भाभी से ऐसी उम्मीद नहीं की थी । फिर भी शर्मिंदगी के कारण मुस्कुराते हुए बोली..”अच्छी साड़ी है भाभी ! इसलिए आपको दी । मालती जी ने भी कहा..वहीं मैं भी कह रही हूँ । अच्छी है आपकी साड़ी इसलिए सोचती हूँ किसी और को क्यों दूँ, आप ही पहन लीजिए ।

अपने बुने जाल में अनुपमा खुद फंसा हुआ महसूस कर रही थी ।

प्रीति माजरा समझ रही थी। फिर दोनो माँ- बेटी एक दूसरे से नज़रें मिलाकर ऐसे मुस्कुराईं जैसे कितनी बड़ी जीत हासिल हुई हो । अनुपमा बुदबुदाते हुए नज़रें नीचे करके सारी साड़ियाँ पैक करने में लगी थी । 

मौलिक , स्वरचित

अर्चना सिंह

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