अस्सी की उम्र में भी शर्माईन नन्हकी ही कहलाती थी। पता नहीं उनका असली नाम नन्हकी ही था या कुछ और? सास तुल्य उसकी सौत ने जब मंदिर से अपने पति का दूसरा ब्याह कराकर आई तो मुह दिखाई की रस्म में नन्हकी नाम का ही सम्बोधन किया। तभी से सभी उसे नन्हकी चाची, नन्हकी भौजी कहने लगे। नन्हकी बिल्कुल एक बच्ची सी चुलबुली खुशमिजाज लड़की थी। अपने सौत को मालकिन समझती थी और सास का दर्जा देती थी।उसे दीदी कहकर पुकारती थी। पति को भी उसी का पति मानती थी।
शायद पत्नी धर्म निभाते हुए दीदी का आदेश ही मानती हो। शुरू-शुरू में तो सबके सामने घूंघट में ही आती थी। बिल्कुल अपनी दीदी की बहू की तरह। उसका क्या मजाल की पति को अकेले में खाना खिला दे। दोनों पति-पत्नी (मालिक और दीदी) को साथ ही खिलाती थी। पति भी सिर्फ खाना खाने के लिए ही अन्दर जनानी हाता में आता था, वर्ना दलान में ही रहता था। लोहा का व्यवसाय था। बड़ी पत्नी बाहर भीतर सभी जगह जाती थी। पड़ोस के बच्चे तो आजी-बाबा भी कहने लगे थे, लेकिन नन्हकी को सभी नन्हकी ही कहा करते थे।
नन्हकी घर का सारा काम करती और बड़ी एक काबिल सास की तरह अड़ोस-पड़ोस में घूमती रहती थी और अपनी सौत को एक बहू के रूप में सबसे तारीफ करती रहती थी। नन्हकी भी बहुत खुश रहती थी। कितनी अच्छी दीदी है। भर पेट अच्छा खाना मिलता है। अच्छे कपड़े पहनने को मिलता हैं और सम्मान जो मिलता है वो अलग। धीरे-धीरे घूंघट ऊपर उठता गया और घर आये लोगों से बातचीत करने लगी। तब तक एक बेटी भी हो चुकी थी। बेटी को पैदा तो नन्हकी की थी, लेकिन परवरिश बड़ी कर रही थी।
अचेत ममता जागृत हो उठी। पति शायद दिन के उजाले में नन्हकी को कभी देखे तो पहचान भी नहीं पायेगा कि ये कौन है? मिलन भी तो रात के अंधेरे में होती थी। नन्हकी तो खाने के समय दरवाजे की ओट से देख लिया करती थी। वो उसे मालिक कहा करती थी।
हमेशा हँसती, खिलखिलाती नन्हकी का वक्त गुजर रहा था।उसे किसी से कोई शिकायत नहीं थी। दो बेटे भी हुए। छोटा बेटा आठ साल का ही था कि पति मामूली बीमारी में ही सबको छोड़कर चले गये। बड़ी अपने पति की मौत से बहुत आहत थी। नन्हकी तो दीदी को दुखी देखकर दुखी थी। धीरे-धीरे नन्हकी बाहर का काम भी समझने लगी। पति की मौत के बाद व्यवसाय तो सम्भालना ही था। बड़ी तीनों बच्चों का भविष्य और कारोबार दोनों सम्भालने में लग गयी।——
कुछ दिन बाद बड़ी बीमार रहने लगी। वह लकवा की शिकार हो गयी।
बिस्तर पर पड़ी-पड़ी नन्हकी यही सोच रही थी—
दीदी भी इसी तरह, इसी जगह पड़ी रहती थीं, लेकिन मैंने उन्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा और बबुआ की बहुरिया तो एक बार सुबह और एक बार शाम को ही दिखाई देती है। दिनभर का दाना-पानी रख जाती है। खाट के नीचे एक कनस्तर भी रख गयी है। बबुआ दीदी को ही माँ समझता रहा और किसी ने कभी उसे कहा भी नहीं कि तुम्हारी माँ नन्हकी है। अब तो कहने पर भी उसे विश्वास नहीं होता।उसके लिए तो नन्हकी माँ (बड़ी) के गाँव की एक अनाथ लड़की थी, जिसे माँ प्यार करती थी।
बेटी भी हरेक महीने आकर दीदी को देख जाती थी। अभी तो उसे आए दस महीने हो गये। पता नहीं अब आयेगी भी या नहीं। एक साल से नन्हकी एक कमरे में बिस्तर पर पड़ी किसी की आहट का इंतजार करती रहती थी। शायद कोई मिलने आ जाए। सोचते-सोचते नन्हकी न जाने कब गहरी निद्रा में चली गयी।
पुष्पा पाण्डेय