मुझे किसी से कोई फर्क नही पड़ता। तुम हो या और कोई, समझे।
जी, मैंने सर झुकाए हुए कहा और अपने शरीर को धकेलते हुए कमरे से बाहर ले आई।
पलकें नम हो रही थी और ऐसा लग रहा था चीख चीख कर रोऊँ। उनके ऐसे शब्द सुनकर मेरा खून खौल गया, लेकिन प्यार है ना उनसे। कुछ कह नहीं सकती, कुछ कर नहीं सकती।
क्यों ऐसा होता है कि आप किसी को खुद से ज्यादा प्यार करते हैं और वो उस प्यार की इंसान की इज्जत नही करता। मैंने कहीं पढ़ा भी था, किसी से उतना ही प्यार कीजिये जितने के वह लायक है। ज्यादा करेंगे तो वो आपको सहज उपलब्ध समझने लगेगा। ऐसा ही तो मेरे साथ भी हुआ है।
अरुण और मैं एक ही ऑफिस में काम करते हैं। पांच साल हो गए साथ काम करते। मुझे वो शुरू से पसन्द थे मगर उनकी पसन्द कोई और थी। वो बस दोस्त मानते मुझको और वैसा ही व्यवहार करते। उनकी कॉलेज के समय की सहपाठी थी जिनके साथ उन्होंने जीवन जीने की कसमें खाई थी। सब कुछ अच्छा चल रहा था,
मगर एक बात पर बात बिगड़ गयी।आजकल जात पात तो इतना महत्व नही रखता शादी के लिए, पर स्टेटस जरूर मायने रखता है। सो नेहा के पिताजी, हाँ नेहा नाम है उनकी चाहत का, ने बोल दिया अरुण की नॉकरी में कोई स्कोप नही है। सेलरी भी कम है और आगे बढ़ने की उम्मीद नही। इसलिए वो इस रिश्ते के लिए तैयार नही। हालांकि ऐसा था नही मगर नही कहने के लिए इससे ज्यादा अच्छा कारण उन्हें नही सुझा होगा। नेहा भी चुपचाप रह गयी। शायद पिता की नाराजगी और अच्छे भविष्य की चाह ने उसके पैर बांध दिए होंगे।
पिछले दो साल से सम्हाल रही हूं अरुण को। वो तो शायद खुदकुशी भी कर लेते नेहा की शादी की बात सुनकर। मगर मैंने परछाई की तरह साथ निभाया। डिप्रेशन से बाहर आने में मदद की। काम मे आने को हिम्मत दिलाई। सब किया पर फिर भी वो जगह नही बना पाई जो नेहा की थी। ऐसा होता भी नही न, कोई किसी की जगह नही ले पाता।
हाँ अपनी जगह बना ले ये अलग बात है।पर किसी की जगह लेना सम्भव नही होता। अरुण तो जैसे ठान बैठे थे कि नेहा के अलावा किसी और से प्यार हो भी नही सकता उन्हें। मैं चाहे जितनी भी कोशिश करूँ, उनके लिए कुछ भी करूँ, मैं वह नही बन सकती। आपने प्यार किया है किसी से, किसी के दुख में आपकी आंखें नम हुई हैं? किसी का दर्द अपना लगता है आपको? किसी की खुशी में खुश होकर नाचे हैं आप या किसी के आंसू से रात भर जागे हैं? अगर ऐसा होता है तो सम्हल जाइये। रोकिए खुद को, वरना आप खुद को खो बैठेंगे जैसे मैं खो बैठी हूँ अपने आप को।
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सात महीने हो गए वो मुझे नजरअंदाज कर रहे। ऑफिस में भी बाहर भी। न बात करते ठीक से न ही मिलने में कोई खुशी। मेरे मेसेज का भी ठीक से कोई जवाब नही देते। मैं हर समय फिक्रमंद रहती हूं। ईश्वर करे वो खुश रहें। रात में नींद खुल जाती है अचानक, फिर बची हुई रात उनको सोचते हुए बीत जाती है। ऑफिस में उनके आने तक ध्यान लगा रहता है जब तक आ न जाएं।
ये प्यार भी न, अक्सर ऐसे इंसान से होता है जिसे उसकी कदर नही होती। आप की सिसकियां आपकी बेचैनियां आपकी जलती रूह से उसे कोई वास्ता नही होता।
मैं उनके घर से बाहर आ गयी हूँ, लग रहा आवाज आएगी रुको, वापस आओ। मैं ठिठक सी गयी। चंद लम्हो पहले का मंजर आंखों में झूल रहा है। मैं उनके सामने घुटनो पर बैठी रोती हुई गिड़गिड़ा रही हूं। इसलिये नही की मुझसे प्यार करो बल्कि इसलिए कि भूलने की कोशिश तो करो अतीत को। साथ रखो मुझे भले दोस्त की तरह। मगर अकेले तो मत रहो। बाहर नही निकलोगे बीते कल से तो आगे कैसे बढोगे।
वो सामने खड़े थे मेरे, एक बार कोशिश नही की उठाने की मुझे। न ही कुछ बोले। पत्थर की तरह निश्छल मौन रहे।
मैं आंसू पोछते हुए उठी, अपना बैग उठाया तभी वो बोले, मुझे किसी के होने न होने से फर्क नही पड़ता। तुम्हारे भी। जैसा है ठीक है।और भी बहुत कुछ जिसे कहना सम्भव नही मेरे लिए
मैं गाड़ी स्टार्ट कर रही हूं इस वादे के साथ कि अब इस दरवाजे नही आना फिर कभी। नोकरी का क्या है, कहीं और मिल जाएगी।
चलो, वापस चलें। एक नई शुरुआत करनी है।
©संजय मृदुल
रायपुर