अरे मनीषा इन कमजलीयों के लिए क्या
जरुरत थी नये कपडे लाने की पुराने ही धोकर पहना देती। मेरे राजा बेटे के लिए एक ही जोडी लाई उसके एक-दो जोडी और ले आती।
यह सुनकर मनीषा जी का मन आहत हो गया। दीवाली जैसे त्यौहार पर भी कोई अपने बच्चों को कोसता है क्या । पर अम्मा तो जैसे मेरी बेटियों के पीछे ही पडी रहतीं ,न दिन देखतीं है न त्यौहार, मेरे लिये तो मेरे सब बच्चे बराबर है त्यौहार पर बेटियों को कैसे नई ड्रेस लाकर न दूं।
दादी जब-तब पोतीयों को कोसती रहतीं। सभी बच्चे फटाके चला रहे थे। चलाते – चलाते एक ही अनार बच गया छोटी बेटी पीहू उसे चलाने की जिद करने लगी इधर मनु भी चलाना चाहता था सो दोंनों बहन भाई उलझ गये।
दादी ने बेटे मनु का पक्ष लेते हुए पीहू को बुरी तरह झिडक दिया- लड़की जात हो कर बेटे से बराबरी करती है, परे हट मेरा राजा बेटा चलयेगा। मनीषा जी एवं मयंक जी को अम्मा का इस तरह छोटी बच्ची से बोलना पसंद नहीं आया। सो मयंक जी ने गोद में लेकर पहले तो पीहू को प्यार किया फिर अम्मा से बोले- अम्मा अभी यह पाँच साल की भी नहीं हुई है आप इससे ऐसे न बोला करें। आपकी बातें अभी इसकी समझ में नहीं आती हैं क्यों बोलकर अपनी जबान कडवी करती हो। बाल मन पर इसका प्रभाव गहरा पड़ता है।
आम्मा पडे तो पडता रहे मोये नही पर्वा बस मेरे बेटे से कोई कुछ नहीं कहेगा मंयक जी आगे बोलने ही जा रहे थे कि मनीषाजी ने उन्हें इशारे से रोका और धीरे से बोली अम्मा को बुरा लग गया तो पूरा त्योहार खराब हो जाएगा सो वे चुप लगा गये।
उनकी दोनों बड़ी बेटियां रिया एवं सीया तो कुछ कुछ अम्मा की बातें समझने लगी थीं।
मनीषा जी की दो बड़ी बेटियाँ थीं। दोनों पति-पत्नी अपनी बेटियों के साथ खुश थे। किन्तु अम्मा ने पीछे पड़कर रोज-रोज बेटा न होने का ताना दे देकर आखिर बेटे-बहू को मजबूर कर दिया तीसरे बच्चे को जन्म देने के लिए और किस्मत से घर का वारिस, कुलदीपक पैदा हो गया। अब तो अम्मा की खुशी का ठिकाना न था । बेटियों को दुतकारती बेटे को कलेजे से लगाये रखतीं। बेटे के तीन साल का होने के बाद अम्मा फिर शुरू हो गई। एक आँख का क्या भरोसा कम दो बेटे तो होने ही चाहिये। मंयक जी ने उन्हें बहुत समझया अम्मा आज के जमाने में जहाँ लोग एक बच्चे पर ही सन्तोष कर रहे हैं अपने घर में तो तीन तीन बच्चे हैं। इन्हें पढ़ाना-लिखना भी है, कैसे होगा। नहीं अब आप अनावश्यक जिद न करें। फिर मनीषा के स्वास्थ्य का भी तो ध्यान रखना है।
क्या हुआ है बहुरिया को हमारे जमाने में तो आठ दस बच्चे साधारण बात थी. बहुरिया तीन बच्चों में ही थक गई। पढ़ाई का क्या है बेटियों को सरकारी स्कूल में डाल दे वहां मुफ्त का खाना भी मिलेगा और फीस भी कम लगेगी। अपने राजा बेटा को अंग्रेजी स्कूल में पढाऊँगी।
अम्मा की बेटियों के प्रति सोच देख दोनों पति-पत्नी दुखी होते पर क्या करें मां थी और मंयक जी इकलौते बेटे थे सो रखना जरूरी था उन्हें अकेला कहाँ छोडते। घर में बड़ा ही तनावपूर्ण माहौल रहता हर समय बहू को उल्टा- सीधा बोलती रहतीं, ताने मारती ।जब देखा बेटे बहू नहीं मान रहे तो हो कम बोलने लगीं भगवान से हमेशा बेटा माँगती रहती। पूरी सावधानी बरतने के बाद भी शायद मां की प्रार्थना में ज्यादा वजन था सो सुन ली गई और मनीषा जी गर्भवती हो गई। अब अम्मा बहुत खुश थीं।
एक दिन मंयक जी बोले अम्मा अगर बेटी हो गई तो क्या करेंगे। कहाँ से इतना खर्च
मैनेज करेंगे। अम्मा के शैतानी दिमाग में विचार कौंधा लल्ला ऐसेन कर जांच करवा ले लड़का- लड़की की। लडकी हुई तो गिरा देंगें ।
मंयक जी अम्मा का मुँह देखते रह गए अम्मा तुम माँ होकर ऐसा कैसे सोच सकती हो। में अपने ही बच्चे की हत्या करूंगा। मुझे शर्म आती है आपकी सोच पर । एक औरत, माँ होकर आप बेटियों से इतनी नफरत कैसे कर सकतीं हैं। बेटीयाँ भी हमारा अंश हैं, हम उनका बुरा कैसे चाहेगें। अब मैं मनीषा की जिन्दगी और बच्चे की जिन्दगी के साथ खिलवाड़ नहीं करूंगा आप अच्छी तरह से समझ लें अब आपकी कोई जिद पूरी नहीं की जायेगी। अगर मेरी बात नहीं मानी तो में घर छोड दूंगी ।
आप जब चाहें घर छोड सकतीं हैं , दो टूक कह कर मंयक जी चले गए। जब बेटे पर वश नहीं चला तो बहू को परेशान करना शुरू दिया ।
एक तो तबियत ठीक नहीं दूसरे रात दिन ताने सुन सुनकर मनीषा जी परेशान हो गईं। बच्चों को छोड़ कर कहीं जा भी नहीं सकती थीं। अब समझ नहीं आ रहा था अम्मा का क्या करें।
तब मयंक जी ने सोचा क्यों न अम्मा को कुछ दिनों के लिए मौसी के यहाँ भेज दें ।सो उन्होंने कहा अम्मा आपको मौसी की याद नहीं आती।
आवे क्यों न है पर कैसे जाऊं।
मयंक जी तो मौके की तलाश में ही बैठे थे चलो अम्मा मैं ले चलता हूं मिलवाने। अम्मा झट तैयार हो गई। वे लेकर गये दो दिन रुके और बोले अम्मा चलो घर पर मनीषा अकेली परेशान हो रही होगी।
अभे तो लल्ला मन नहीं भरो है एसेन कर तू चलो जा मैं रुक कर आऊंगी। मंयक जी ने मौसी को अपनी परेशानी बता दी थी सो जब भी वे जाने की कहतीं वे कुछ न कुछ बाहना कर रोक लेतीं।
समय पर मनीषा जी ने बेटी को जन्म दिया उनके लाड प्यार में कोई कमी नहीं थी। किन्तु दादी नेआते ही उसे कोसना शुरू कर दिया।
खैर समय चक्र घूमा बच्चियां बड़ी हो गई अच्छा पढ लिख गईं। दादी के प्यार ने बेटे को निकम्मा बना दिया। न उसका मन पढ़ाई में लगता नऔर किसी काम में। बस आवारा की तरह घूमता रहता। मम्मी-पापा जब डांटते तो दादी बीच में आ उसे बचा लेती। उसकी गलतियों पर वह पर्दा डालती। वह पूर्ण रूप से अनुशासन हीन हो गया।
बड़ी बेटी कालेज में व्याख्याता हो गई, दूसरी डाक्टर बन गई और तीसरी पत्रकार बेटा ग्रेज्यूशन भी मुश्किल से कर सका।अम्मा जिन बेटियों को तुम हमेशा कोसती रहती थीं वे ही कुल का नाम रोशन कर रहीं हैं और तुम्हारा कुल दीपक हाथ पर हाथ धरे वैठा है। तुम्हारे लाड-प्यार ने उसे कहीं का नहीं रखा।
एक दिन जब अम्मा को सीने में दर्द हुआ तो आनन-फानन में अस्पताल ले गए । दिल की धमनियों में ब्लाकेज था स्टेनट डालने थे। बेटी कार्डीयोलजिस्ट थी सो उसने अपने पास बुलाया और आप्रेशन टीम के साथ रहकर स्टेन्ट लगाये। अस्पताल में जब तक रही पूरी देखभाल करी फिर घर ले आई। दादी की खूब सेवा करी। दादी पछतावे की आग में जल रहीं थीं बेटी को गले लगा रो पड़ीं बेटा मैंने तुम्हे बहुत बुरा- भला कहा फिर भी तूने मेरी इतनी सेवा की। अम्मा अगर तुम्हारी बात मान लेता तो मेरी बेटियों की भी हालत आज वान्या जैसी होती। तुम्हारे विचारों के कारण वह शादी की उम्र में तो विधवा हो गई। पढ़ी लिखी न होने से कही ढंग की नौकरी भी नहीं कर पाई। आज अम्मा को अपनी बेटी की दुर्दशा भी याद आई।
घर आकर मनीषा जी एवं पोतीयों से जो उन्हें मिलने आईं थीं हाथ जोड़ कर अपने किये की माफी मांगी। बोली आज मेरी आंखें खुल गईं। बेटे-बेटीयों में कोई फ़र्क न होवे है, उन्हें भी पढ़ने लिखने अपने पैरों पर खड़े होने का अधिकार है। पोतीयों से बोलीं खूब फूलो-फलो ईश्वर तुम्हारी सब मनोकामनाएं पूर्ण करें। मैं बीतो समय तो न लौटा सकूं पर भविष्य में सुखी रहवा
कि आशीष देऊं।
शिव कुमारी शुक्ला
स्व रचित मौलिक एवं अप्रकाशित
12-3-24
छठा जन्मोत्सव के अन्तर्गत कहानी प्रतियोगिता
चतुर्थ -कहानी