तमाशबीन – श्रीप्रकाश श्रीवास्तव : Moral stories in hindi

पत्नी का फोन आया,’’कोई बच्चा आये थे। शादी का कार्ड दे गये है।’’ बच्चा से ख्याल आया वह मेरी दूर के रिश्ते के बूआ का लडका था। एक लंबा अरसा गुजर गया। न मेरे माॅ बाप रहे न उसके। वह रिश्ता जो कालकलवित हो चुका था, को बच्चा ने पुर्नजीवित किया तो सहसा मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मैने पत्नी को उलाहना दिया,‘‘बिठाया क्यों नही?’’ पत्नी रिसियाकर बोली,’’जब मैंने देखा ही नही ंतो कैसे बिठाती?’’ बच्चा अपने बेटे का शादी में आने का न्यौता दिया था। देखते देखते समवयसी बच्चा ससुर बनने जा रहा था यह मेरे लिए रोमंाच से कम नहीं था। पच्चीसो साल बाद मेरी उससे मुलाकात होगी। सोचकर मेैं मन ही मन आह्लादित था। पुराने रिश्तो से जुडाव का अलग ही मजा होता है। बच्चा ने फेान नंबर दिया था। शाम आफिस से आते ही मैंने फोन लगाया।

‘सपरिवार आना है।’

‘‘जरूर आउॅगा।’’ मैं कहता रहा,’’आज के भागदोैड की जिंदगी में जहां लोग रिश्तो की अहमियत भूलते जा रहे है वही तुमने दूसरी पीढी का रिश्ता निभाया इसके लिए  मै तुम्हे घन्यवाद् दूॅगा।’’ बच्चा हंस पडा।

पत्नी को हमेशा शिकायत रही कि आपने मेरे रिश्तें के दसो शादियां अटैन की वही आपके किसी रिश्ते को मैं नहीं जानती। कैसे चाचा कैसे मामा?’  अब मैं उसे कैसे समझाउॅ कि न माॅ बाप रहे न चाचा मामा। उनके लडके दूर दराज रहते है। न कोई भेट मुलाकात न मिलने जुलने का सिलसिला। क्येां कोई किसी का याद करे। बहरहाल बच्चा ने याद किया तो मुझे पत्नी को अपने रिश्ते से मिलवाने का अच्छा मौका मिला। रास्ते भर इस रिश्ते को लेकर मैं भावुक था। सोचता रहा कि जैसे ही बाबू मुझे देखेगा दौडकर गले लग जाएगा। कितना अच्छा लगेगा। बचपन की कितनी शैतानियां हमदोनेा से जुडी रही। एकबार हमदेानेा घर से भागकर सीता और गीता पिक्चर देखी था। तब हमदोनो की उम्र यही कोई 15के आसपास थी। घर आये तो खूब डांट पडी। 

बडे से लान में शादीं का कार्यक्रम रखा गया था। लान की सजावट देखने लायक थी। बच्चा सरकारी मुलाजिम था। जाहिर है रूपये पैसो की कोई कमी नहीं रही। मैंने चारो तरफ नजरे फेंकी। बच्चा मुझे कहीं नहीं दिखा। हो सकता हो कहीं व्यस्त हो? सेाचकर मैं सपत्नी कुर्सी पर बैठ गया। तभी मेरी नजर गोपाल चाचा पर गयी। उठकर उनके पास आया। बात चीत का सिलसिला शुरू हुया तो खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। इस बीच मेरी नजर बच्चा को खेाजती रही।

मेरा प्रयास रंग लाया। बच्चा दीख गया।  वह मेरी ही तरफ आ रहा था। मेैने पत्नी से सागर्व कहा,’’ देख्ेाा , इसे कहते है रिश्तेा की कशिश। देखते ही दौडा चला आ रहा है।’ मेरा गर्व उस समय रेत के मानिंद ढह गया जब वह मेरे आगे बैठे लोगो से दुआ सलाम किया वही मुझे नजरदंांज करके चला गया। मुझे घोर मायूसी और शर्मिंदगी महसूस होने लगी। पत्नी क्या सेाचेगी? जी किया अभी सब छोडकर चला जाउॅ। जब सम्मान नही ंतो कैसा रिश्ता? पत्नी ने समझाया,‘‘ आये है तो खाने पीने में क्या हर्ज है?

आपने अपेक्षा पाली इसलिए दुखी है। जमाना बदल रहा है। बच्चा ने भीड जुटाने के लिए हमें बुलाया है। ताकि लडकी वालेां को बता सके कि हमारे संबंधेा की फौज है। उसे उसी से लगाव होगा जिससे स्वार्थ होगा। आपसे न स्वार्थ है न ही लगाव। हम तमाशबीन है। हम ही क्यों यहां नब्बे प्रतिशत लेाग तमाशबीन है। न्यौता दीजिए घर चलिए। ’’ पत्नी ने जिस यर्थाथ से अवगत कराया वह मेरे लिए अप्रत्याशित था। तिसपर मन मानने के लिए तैयार नहीं था। फोन पर बच्चा के अपनेपन के स्वर अब भी मुझपर पर हावी थे। इसी भावना के साथ मैं बच्चा के पास न्यौता देने आया।  जैसे ही उसके करीब आया वह किसी अख्तर को बुला रहा था। ‘‘अखतर मियां, अकेले आये है?

बेगम कहंा है?’’ बच्चा की खुशी देखने लायक थी। 5 फीट की दूरी पर खडी अपनी पत्नी को आवाज लगाते हुए बोला,‘‘सुनो, अख्तर मियंा अकेले आये है।’’ उसकी पत्नी जिस तेजी से चलकर आयी मानो अख्तर मियंा उसके मैके के हो? मैंने बच्चा को न्यौता थमाया। उसने औपचारिता भी नहीं निभायी। जैसे खाना खाये की नही। अकेले आये हो या पत्नी के साथ?मेरा मन तिक्त हो गया। पत्नी की रही सही हसरत भी धूमिल हो गयी। कहंा तो वह यह सोचकर आयी थी कि बाबू की पत्नी से पहली मुलाकात होगी तेा पुराने रिश्ते फिर से जीवित हो जाएगे। कितना अच्छा लगेगा। 

मेरी स्थिति एक हारे हुए जुआडी की तरह थी।  न हंसते बन पड रहा था न ही रोते। क्षोभ और अपमान के बीच ऐसा लग रहा था जैसे भरे बाजार निर्वस्त्र कर दिया गया हॅॅू। रास्ते भर सेाचता रहा आज लेाग रिश्तों के मामले में कितना प्रेक्टिकल हो गये है। बुलाकर पूछना भी गवारा नहंी होता। जैसे आगंतुक अपनी गरज से आया है हमने नहीं बुलाया। बच्चा के सबक ने मेरी आंखे खोल दी। 

श्रीप्रकाश श्रीवास्तव

वाराणसी

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