“नीले गगन के तले.. धरती का प्यार पले”, गुनगुनाता पार्थ अपनी मस्ती में चला जा रहा था। धरा गुनगुनाते पार्थ की आवाज़ सुनकर अपनी पढ़ाई छोड़ झट से अपने कमरे की खिड़की पर आ खड़ी हुई। पार्थ और धरा पड़ोसी थे.. . धरा स्नातक की द्वितीय वर्ष की छात्रा थी और पार्थ इंजीनियरिंग पूर्ण कर घर आया था। दो महीने बाद एक बड़ी कंपनी में जॉइनिंग थी पार्थ की, इस समय पार्थ के लिए अपने परिवार के साथ समय बिताना पहली प्राथमिकता थी इसलिए इस दो महीने को उसने परिवार के लिए पूर्णतः समर्पित कर दिया था।
पार्थ धरा को बचपन से ही पसंद करता था और धरा को पार्थ के इस गुनगुनाहट से प्यार था। पता नहीं क्या था इस गुनगुनाहट में की धरा ताजगी से भर उठती थी। कितनी भी परेशानी में हो, इस गुनगुनाहट के कान में प्रवेश करते ही हृदय किलोल करने लगता और उत्साह तो मानो बेलगाम होकर दुगुना हो जाता था। पार्थ की गुनगुनाहट धरा के लिए एक अद्वितीय चिह्न बन गई थी, जो उसके दिल को हर बार आनंदित कर देती थी। धरा को यह गुनगुनाहट कुछ इस तरह पसंद आती थी, जैसे कि वह एक नई सुबह की प्रेरणा हो, यह गुनगुनाहट धरा के मन को आनंदित करती, उसे उत्साहित करती और उसे हर समस्या का आसानी से सामना करने की शक्ति प्रदान करती। धरा के लिए यह गुनगुनाहट एक रहस्य बन गई थी और इस रहस्य से वह स्वयं भी अनभिज्ञ थी कि उसे पार्थ की गुनगुनाहट से इस कदर लगाव क्यों था?
धरा पार्थ की गुनगुनाहट को महसूस करती अपने स्टडी टेबल के पास खड़ी हो गई, लेकिन इस समय उसके मन में सिर्फ पार्थ का ही चित्रण था। उसके मुख पर मुस्कुराहट फिरती रही, जो उसके चेहरे को चमका रही थी। धरा की खोई-खोई आँखों में एक अनोखा उत्साह था, जो उसके अंदर की खुशी को दर्शा रहा था। खिली खिली सी धरा शायद अभी कुछ देर और पार्थ को ही विचारती लेकिन मुख्य द्वार की घनघनाती घंटी उसकी तंद्रा को तोड़ती हुई उसके मन को सिहरा गई थी। सिहरन को समेटने के बाद धरा को अहसास हुआ कि कमरे के बाहर से उसकी मम्मी उसे आवाज दे रही है।
“आज की दावत पार्थ की सफ़लता के लिए रखी गई थी और आप सब को आना है”, नमस्ते करती धरा को अपने बगल में बिठाती पार्थ की माॅं की ऑंखों में धरा के लिए ढ़ेर सारा प्यार उमड़ आया था।
धरा को पार्थ की मम्मी का यह व्यवहार और दावत का निमंत्रण थोड़ा अटपटा लगा था। क्योंकि अगल बगल मकान होते हुए भी धरा और पार्थ के परिवार के मध्य केवल पड़ोसी धर्म ही निभाया जाता था। एक दूसरे को सामने देख दुआ सलाम तक ही सभी सीमित थे और ऐसी छोटी दावतों में एक दूसरे को उन्होंने कभी आमंत्रित भी नहीं किया था।
पार्थ की मम्मी की स्नेहपूर्ण भावनाओं ने धरा को चौंका दिया था और वह वही बैठी बैठी टेबल पर रखे प्लेट से बिस्किट उठाकर मुॅंह में डालती हुई अपनी आश्चर्यमयी भावनाओं को व्यक्त करने लगी। बिस्किट खाती हुई धरा के मन में इस अनूठे अनुभव की गहराई की खोज शुरू हो गई।
“कुछ समझ नहीं आया मम्मी, अचानक इतना प्रेमाभाव और जाते जाते मुझे भी विशेष तौर आने के लिए कह गई हैं।” धरा का धाराप्रवाह बोलना प्रारंभ हो गया।
अभी धरा कुछ और बोलती मुख्य द्वार खुला होने के कारण पार्थ की मम्मी अंदर आती हुई कहती हैं, “ज्यादा कुछ नहीं बेटा, जरूरी तो नहीं कि समय और रिश्ता हमेशा एक सा रहे। हम रिश्ते को आगे भी तो बढ़ा सकते हैं। घर की चाभी रह गई थी।” धरा उन्हें देखते ही
जीभ को बड़बोलेपन की सजा देती हुई उसे दंत पंक्ति से दबाती खड़ी हो गई।
पार्थ की मम्मी चाभी उठाकर धरा के सिर पर हाथ फेरकर उसकी मम्मी को फिर से दावत की याद दिलाती हुई चली गईं।
धरा के लिए यह सब कुछ विचित्र और अटपटा था। फिर “होगा कुछ”..सोचकर वह अपने काम में मस्त हो गई। लेकिन अपनी आत्मा में इस दावत के लिए वह एक अनजानी खुशी भी पा रही थी। उसकी ऑंखें चंचल हो गईं थी और वह बार बार पार्थ को अपने सामने पा रही थी और शरमा जा रही थी। कभी इस कैफियत पर मुस्कुरा उठती थी और कभी दर्पण के सामने खड़ी होकर खुद पर झुंझलाती खुद से दावत में नहीं जाने का वादा भी कर रही थी। साथ ही साथ “आज तो बस पार्थ मुझे देखता रह जाए”, कुछ ऐसे भाव के साथ दावत में पहने जाने वाले कपड़ों के चुनाव में भी लगी थी। लेकिन बीच बीच में पार्थ की मम्मी के द्वारा जताए गए ममत्व को लेकर उलझन की शिकार भी हो रही थी।
उसे क्या पता था कि पार्थ की माँ हमेशा से जानती हैं कि पार्थ धरा को पसंद करता है। जिसे उन्होंने एक सकारात्मक मोड़ देते हुए कहा था, “प्यार का मौसम तभी आता है बेटा, जब तुम अपने प्यार को सारी ख़ुशियाँ देने लायक बन सको। प्यार सिर्फ़ प्रपोज कर देना या मंडप में बैठ जाना नहीं है। प्यार का मौसम अपने साथ साथ खुशी और ग़म दोनों लाता है। जब तुम उसके माथे पर चुम्बन दो तो दोनों को ही यह अहसास हो कि तुमदोनों ही एक दूसरे के लिए बने थे, इसका कोई विकल्प नहीं है। जिस दिन मुझे ऐसा लगेगा, तुम प्यार के मौसम को समझने लायक बन गए हो, उस दिन मैं खुद तुम्हारी पसंद से बात करुँगी। लेकिन ये भी ध्यान रखना अगर उसने मना कर दिया तो मैं उसकी “ना” की इज्जत करुँगी और तुमसे भी मेरी यही अपेक्षा होगी।”
एक वेलेंटाइन जब पार्थ अपने हाथ में गुलाब छुपाए धरा
को प्रपोज करने का सोच कर घर से बाहर जा रहा था तो पार्थ की मम्मी उसके मनोभाव को समझ कर उसे धरा तक पहुॅंचने का मार्ग बताती हुई रोक चुकी थी और उस गुलाब को पार्थ ने बहुत ही सहेज कर रख लिया था। उस दिन के बाद पार्थ अपनी धरा को हृदय की मल्लिका बनाए जी जान से जुट गया, उसके बाद हर क्षेत्र में अव्वल आता रहा और जब से उसके मम्मी पापा ने कहा है, “आज की पार्टी के दौरान धरा और उसके मम्मी पापा से बात करेंगी, उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था। खुद को संवारने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। आसमान के रंग में खुद को रंगने के लिए आसमानी रंग का कुर्ता लेकर आया था, जो उसकी आसमान पर पहुॅंच गई उम्मीदों और ख्वाहिशों को दर्शा रही थी।
उसकी इच्छा हो रही थी खुद को ही नहीं पूरे घर को फूलों से सजा दे, ताकि जब उसकी मल्लिका आए, तो वह अपने प्यार को दिखा सके और अपनी भावनाओं को साझा कर सके। लेकिन मन के उतावलेपन को दबाता हुआ पार्थ अपने पैरेंट्स के निर्देशानुसार कार्य करता रहा।
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धरा नीले रंग के स्कर्ट और टॉप में अत्यंत सुंदर लग रही थी। गहरे नीले रंग का स्कर्ट उसके व्यक्तित्व को निखार रहा था, जबकि ऊपर हल्के नीले रंग का टॉप उसे आसमानी परी बना रहा था। उसके चेहरे से नयन तक फैली हल्की सी हँसी उसे सभी की नजरों में एक अलग पहचान दे रही थी। जैसे जैसे वह पार्थ के करीब आ रही थी, पार्थ के हृदय को ठंडक मिल रही थी। पार्थ को ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो सपनों की रानी अपने प्रिय के पास चाॅंदनी की किरणों पर सवार होकर आ रही हो। जो भी उसे देख रहा था, उसकी सुंदरता की तारीफ किए बिना नहीं रह पा रहा था।
“कितनी खूबसूरत लग रही है मेरी बच्ची”, कहकर पार्थ की मम्मी ने तो बाकायदा बलैयां ले ली और धरा की सहेलियों की आवाज पर ही उसका हाथ छोड़ा।
जाते जाते, धरा ने चुपके से पार्थ की ओर नजर डाली और उसकी निगाहों में कैद होकर रह गई। पार्थ की प्यार भरी नजरों में धरा को मिठास सी महसूस हो रही थी जैसे कि वह इस मिठास की तलाश में ही भटक रही थी। पार्थ की निगाहों का प्यार उसे अपनी पीठ पर महसूस हो रहा था और उसकी इच्छा हो रही थी, वो पार्थ का हाथ पकड़ कर इजहार कर दे। “इजहार” अचानक अपनी सोच पर धरा चौंक उठी, पार्थ कब उसके दिल को चुरा ले गया, वो खुद से ही सवाल करने लगी।
“कहाॅं खो गई”, धरा की सहेलियों ने उसे अचंभित देख पूछा।
धरा इधर उधर अपनी हमउम्र लड़कियों के साथ व्यस्त हो गई। पार्थ अपने दोस्तों के साथ व्यस्त जरूर था, लेकिन उसके दिल की धड़कनें उसके पैरेंट्स के आगे के कदमों की बारीकियों में अटकी हुई थी कि कब वो धरा के पैरेंट्स से बात करेंगे कि कब वो उसके जीवन की संगिनी बनेगी।
धरा के पैरेंट्स के साथ औपचारिक बातों के साथ-साथ पार्थ की शादी की भी चर्चा होने लगी। बातों ही बातों में पार्थ की मम्मी ने धरा का हाथ पार्थ के लिए माँग लिया… अचानक आए इस प्रस्ताव से धरा के माता-पिता आश्चर्य में पड़ गए और धरा की मर्जी जानने के बाद ही निर्णय लेने की बात कही।
उनकी बात पर पार्थ की मम्मी सकुचाते हुए कहती हैं,
“जी, जरूर, यदि आप आज्ञा दें तो क्या मैं अभी धरा से इस बारे में बात करूॅं? पार्थ के दिल का हाल मैं जानती हूॅं, धरा के भी दिल का हाल जानना चाहती हूॅं। होगा वही, जो धरा और आप सभी चाहेंगे।”
पार्थ की मम्मी धरा के पैरेंट्स की उपस्थिति में पार्थ के प्रस्ताव के बारे में बता कर उसकी मर्जी पूछ रही थी तब इत्तफाक से पार्थ अपने दोस्तों से घिरा “तू मेरी जिन्दगी है” गुनगुना रहा था और उस गुनगुनाहट के साथ धरा के मुँह से बेसाख्ता स्वीकारोक्ति निकल गई।
धरा के माता पिता की इच्छानुसार द्वितीय वर्ष की परीक्षा के बाद शादी का मुहूर्त रखा गया। खूब धूमधाम से शादी हुई। ससुराल में पूरे उत्साह और उल्लास के साथ धरा का स्वागत किया गया। पार्थ ने मुंबई में अपनी नई नौकरी शुरू की थी और उसने धरा को भी साथ ले जाने की योजना बनाई थी। लेकिन पार्थ की माँ ने इसे रोक दिया, कहते हुए कि “धरा को स्नातक की पढ़ाई पूरी करने की आवश्यकता है।” एक साल का समय बचा था और दोनों में साथ रहने की व्यग्रता थी। लेकिन पार्थ की मम्मी ने साफ़ कर दिया.. “हर हाल में स्नातक के बाद ही जाना है।” दोनों मन मसोस कर रह गए और पार्थ धरा से विदा लेकर मुंबई की ओर रवाना हो गया।
देखते देखते एक साल गुजर गया। सास के निर्देश पर धरा स्नातक के साथ कंप्युटर में भी एक साल का डिप्लोमा करने लगी। दूसरा साल भी अपनी रफ्तार से गुजर रहा था। लेकिन धरा की मुंबई जाने की बात धरातल पर नहीं आई थी, ना ही पार्थ और ना ही पार्थ की मम्मी इस बारे में बात करते थे। इस बीच सासु माँ को अक्सर फोन पर पार्थ के साथ धीमी आवाज में बातें करते देख धरा विचलित हो जाती थी। पार्थ से पूछती तो पार्थ टाल जाता था और धरा को किसी षड्यंत्र की बू आने लगती। वह अपने भविष्य को लेकर सशंकित हो गई थी। उसे लगने लगा था कि पार्थ से दूर रखने के लिए पार्थ की मम्मी ने पढ़ाई को केवल बहाना बनाया था, पढ़ाई तो वो मुंबई में भी कर सकती थी। हर पल का उसका वहम उस पर इतना हावी हो चुका था कि उसका मन उदासी के समंदर में डूबने लगा था। पार्थ की मम्मी उसे इस तरह देख मुस्कुराती और एक दिन उसके हाथ में मुंबई का टिकट थमा देती हैं।
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अब वो समय भी आ गया। जब फरवरी की मीठी मीठी ठंड में पार्थ के साथ धरा मुंबई के लिए विदा होने लगी। सासु माँ की आँखों में दोनों के लिए आशीर्वाद के साथ-साथ जुदाई के आँसू थे और धरा की आँखों में भविष्य के स्वप्निल सपनों के साथ सासु माँ से दूर होने के गम में आँसू जाने अनजाने झिलमिला उठे थे।
पार्थ की माँ “पगली” कहकर उसे गले लगा लेती है और पार्थ के पापा भी “हम सब आते रहेंगे” कहकर दोनों को विदा करते हैं।
“इस प्यार के मौसम में प्यार का मौसम में मेरी अर्धांगिनी का स्वागत है।” पार्थ घर का दरवाजा खोल धरा के माथे पर चुम्बन अंकित करता हुआ कहता है।
और धरा घर के दरवाजे पर नेम प्लेट पर दोनों के नाम के साथ “प्यार का मौसम” गुदा देख पार्थ का चेहरा देखने लगती है।
“अंदर तो चलो… तभी कुछ बताऊँगा ना”, पार्थ उसके चेहरे के भाव को देखकर कहता है।
घर की सजावट देखकर धरा की खुशी की कोई हद नहीं थी। हर कोने से आ रही उसके मनपसंद रंग और सजावट की महक उसे प्रसन्न कर रही थी। उसके लिए बेडरूम की खिड़की से दिखने वाली छोटी-छोटी पहाड़ियों का नजारा प्राकृतिक सौंदर्य का एक अद्वितीय संगम था। धरा की नजरें खिड़की से बाहर उनके दीदार में लगी थी और पार्थ बगल में आकर उसके ऑंचल को अपनी उंगलियों में लपेटने लगा। पार्थ की ऑंखों में प्यार की छवि और धरा के चेहरे पर खुशी का आभास बारिश के बाद खिली हुई फूलों की महक सी लग रही थी। उनके बीच की ताजगी और उत्साह वातावरण को और भी रमणीय बना रहा था।
पार्थ उसके ऑंचल से खेलता बाहर की ओर देखता हुआ कहता है, “हम लोग पहुँच गए हैं , दोनों माँ-पापा को बता दिया है मैंने।”
धारा को अपनी ओर मोड़ता हुआ पार्थ उसके चिबुक को उठाता हुआ प्रेम भरी नजरों से देखता हुआ कहता है, “कैसा लगा हमारा ये “प्यार का मौसम” महल”…
“हमारा, पर तुम तो किराए”….
“जी मैडम.. मेरी इच्छा थी.. मेरा प्यार किराए के घर पर नहीं.. अपने घर पर अपने पाॅंव रखे।” पार्थ उसे दोनों कन्धों से पकड़ता हुआ कहता है।
“लेकिन ये रंग.. सजावट”… धरा प्रश्नवाचक नेत्र से पार्थ को देखती है।
“सब तुम्हारी पसंद का कैसे..यही ना.. सौजन्य मम्मी.. तुमसे बातों-बातों में पूछकर मुझे धीरे-धीरे बताती रहती थीं।” पार्थ उसके दोनों हथेलियों में अपनी हथेली फॅंसाता हुआ कहता है।
“लेकिन प्यार का मौसम…ये नाम”…धरा के प्रश्न और पार्थ का धैर्य अक्षुण्ण बना हुआ था।
“हाहाहाहा…इसी नाम के साथ मम्मी ने मुझे जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया था और यह पल हमें हमेशा याद रहे इसलिए घर का नाम भी यही रखा मैंने।” पार्थ अब जोर से हॅंस पड़ा था।
“तभी माँ-बेटे की बातें फुसफुसाहट में होती थी और मैं क्या समझती थी”..
“क्या समझती थी तुम”… पार्थ शरारत से मुस्कुरा कर पूछता है।
“कुछ नहीं कहकर”, भाव विह्वल होकर पार्थ के गले लग जाती है और फिर अलग होती अपनी सासू माँ को फोन करने कहती है।
धरा की आवाज सुनते ही “कैसा लगा घर बेटा” और फिर शरारत भरे स्वर में पूछती हैं और “नाम कैसा है घर का”…
“बहुत बहुत सुन्दर माँ, पर आप दोनों के बिना प्यार का मौसम अधूरा है माँ… जहाँ परिवार.. वही प्यार का हर मौसम”… धरा स्नेहसिक्त आर्द्र वाणी में कहती है,
“बस जल्दी से आ जाइए और प्यार के मौसम को अपने स्नेह बंधन से परिपूर्ण कर दीजिए।” धरा सासु माॅं से कहती कॉल काटती है।
कॉल कटते ही, धरा की नजरें पार्थ की ओर टिकीं और वह देखती है कि पार्थ हाथ में एक सूखा गुलाब लिए उसके सामने अपनी बाॅंहें फैलाए खड़ा था।
“यह वही गुलाब है ना”, पूछती हुई धरा पार्थ के हाथ से प्यार का सूखा गुलाब लेकर आगोश में समा गई और पार्थ के होंठों पर मुस्कान थी, “हाँ, यह वही गुलाब है”,पार्थ ने प्यार से कहा और उनके बीच की दूरी को कम करते हुए, धरा को अपनी बाॅंहों में ले लेता है और उसके कानों में सरगोशी कर उठता है,
“तेरा मेरा साथ रहे
महकते कई गेंदा गुलाब रहे”
पार्थ की बातों में छुपे अर्थ को समझ कर पार्थ के सीने से लगी धरा पार्थ के आगोश से निकलने के लिए झूठी कसमसाहट के साथ कसमसा उठी और उसकी झूठी कसमसाहट को खुद में और कसते हुए पार्थ खिलखिला उठा, उनके प्यार में रंगीन हुआ यह “प्यार का मौसम” भी खुशियों से भर गया था और जीवन के पन्नों पर एक नई कहानी की शुरुआत कर रहा था।
आरती झा आद्या
दिल्ली
कितनी प्यारी कहानी
सुबह सुबह फील खुश हो गया
काश सबके जीवन में यह प्यार का मौसम आए😊
yeah kahani 90;s k samay ko hogi aaj k samay me yeah sab kaha sambhav hai