“बड़ी मां,ओ बड़ी मां।कहां हो तुम?”
नीलेश जोर-जोर से शांति जी को पुकार रहा था।शांति जी उनकी ताई थीं।आज लगभग एक बरस के बाद अपने पैतृक गांव “साउटिया आया था नीलेश। पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले का एक गांव,जहां उसके दादा -परदादा की जमींदारी थी।
बड़ी मां आंखों पर मोटा चश्मा लगाए,लाठी टेककर धीरे-धीरे चलती हुई आई।आज भी वही रौबदार चेहरा,कलफ की हुई साड़ी,बालों का जूड़ा,और ममता से भरी चश्में के पीछे से वही निश्छल आंखें।
“नीलू,आ गया तू।इतने दिन में याद आई यहां की।मैं तो समझी थी कि चौदह सालों के बाद ही आएगा,मेरा राम।”नीलेश के कान इस आवाज को सुनने के लिए तरस गए थे।वनवास ही तो काटा था उसने।
बड़ी मां ताई थीं,धाई थी या माई थी,नीलेश कभी समझ ही ना पाया।ख़ुद का एक बेटा पांच बरस की उम्र में नदी में डूबकर गुज़र गया था।अपने बेटे और देवर के दो बच्चों में कभी भेद नहीं किया उन्होंने।घर पर नौकर चाकर तो थे,पर बच्चों को संभालने,पढ़ाने और सुलाने की जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ली थी।नीलेश ने मां को कभी -कभी ताने मारते भी सुना था”हो चुकी इनकी पढ़ाई।दीदी की ऐसे ही शय मिलती रही तो निकम्मा बनकर ही रह जाएगा अपना नीलू।”
बड़ी मां भी बड़ी बहू थी घर की,तपाक से मुंह बनाकर कहती”अपने दादा और पति को संभालो ध्यान से तुम।इनकी चिंता ना करना। निकम्मा निकला तो यह हवेली छोड़कर काशी में चल दूंगी रहने,फिर मुंह नहीं दिखाऊंगी।”
सुबोध दादा के जाने के बाद से बड़ी मां नीलेश को कभी आंखों से ओझल नहीं होने देती थीं।अपने समय की ग्रेजुएट बड़ी मां ने अपने देवर के बच्चों को शास्त्र, धर्म,नीति और इतिहास की गहरी जानकारी दी थी।साहित्य में तो मानो उनकी पी एच डी थी। रवींद्रनाथ टैगोर की कहानियां और कविताएं मुंह जबानी याद थी उन्हें।
नीलेश बारहवीं पास कर चुका था।दोनों दीदी वहीं पर बने नए कॉलेज में पढ़ रहीं थीं।बड़ी मां ने जबरदस्ती कलकत्ता भेजा था नीलेश को आगे की पढ़ाई कर वकालत सीखने।लॉ कॉलेज में एडमिशन हो गया था नीलेश का।मां-बाबा से ज्यादा खुशी जेठू और बड़ी मां को हुई थी।पूरे गांव में मिठाई बांटी थी बड़ी मां ने।कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ही दोनों दीदियों की शादी हो गई थी, संपन्न घरानों में।
इस बार छुट्टियां जल्दी लग गई थी,इलेक्शन की वजह से। सेकेंड इयर खत्म हो चुका था।नीलेश ने सोचा इस बार कुछ दिन घर में रहकर कहीं बाहर घूमने जाएगा।हमेशा की तरह स्टेशन में रघु दादा गाड़ी लेकर आए थे,बैंड बाजे के साथ।घर इस बार भी सजाया गया था।नीलेश का स्वागत बड़ी मां हमेशा ऐसे ही करती थी।दरवाजे पर ही पूजा की थाली लिए बड़ी मां लाल पाड़ की सफेद साड़ी में मां दुर्गा की तरह खड़ी थी।पीछे थी मां खुशी से छलछला आईं आंखें छिपाती।
अपने कमरे में आते ही नीलेश को कमरा नया सा लगा।राधा काकी जो शर्बत देने आई थी,को रोककर नीलेश ने पूछा”काकी,मेरे कमरे को किसने सजाया है?यह आपकी सजावट तो नहीं लग रही।”
राधा काकी ने सर का पल्ला ठीक करते हुए कहा”नहीं छोटे बाबू,ये तो मिनी ने सजाया है।”नीलेश चौंका,यह कौन नया सदस्य आया इस हवेली में।उसके प्रिय रजनीगंधा के फूल ताजे और खिले-खिले मानो मुस्कुरा रहे थे,फूलदान में। पर्दों पर भी कढ़ाई की हुई थी।इस मिनी के बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ने लगी थी मन में।दोपहर खाने की मेज पर बड़ी मां से पूछ ही लिया कायदा करके”बड़ी मां,मेरे कमरे में कोई आता है क्या आजकल?एकदम नए तरीके से सजा दिख रहा है कमरा।”
“क्यों रे !तुझे पसंद नहीं आया क्या?ये मेरी मिनी ने सजाया है।कुछ ही दिन हुए हैं आए,पर सब काम संभाल लिया है इसने।पढ़ी लिखी भी है।मिनी!ओ मिनी,आ तो जरा यहां।”बड़ी मां के बुलाते ही एक तेरह चौदह साल की लड़की सामने खड़ी हुई।बड़ी मां की सुनाई हुई कहानी की नायिका लग रही थी वह।अबोध,लावण्यमयी,सांवली मिनी के नैन नख्श़ रति रूपा थे।
नीलेश अपलक देखता रह गया उसे।खाने का निवाला हांथ से मुंह तक पहुंच ही नहीं पा रहा था।तभी मां ने टोका”पहले खाना ख़त्म करो नीलू।बाकी बात बाद में करना।”नीलेश ने मां की आवाज में गुस्से का आवरण देखा।बड़ी मां ने भी मिनी को वापस भेज दिया उसके कमरे में।रात को मां ने अपनी भड़ास निकाली”देख नीलू,इस लड़की से दूर ही रहना।पता नहीं किस खानदान की है,कौन हैं मां-बाप?नदी किनारे बेसुध मिली थी दीदी को,सो ले आईं साथ।किसी की कहां सुनती हैं वो?
कहने लगी कि अच्छे घर का खून है,चेहरे की चमक देख कर ही पता लगता है।किसी दुर्घटना के चलते आ पड़ी है ,हमारे गांव।याददाश्त ठीक होते ही बता देगी अपना पता ठिकाना।तब तक फेंक कर तो नहीं रह सकते ना हम,इस फूल को।तू ही बता,क्या समाज सुधारने का ठेका हम लोगों ने ही ले रखा है।मैं तो इसे जल्दी ही रवाना करूंगी यहां से।
“मां और भी बहुत कुछ बड़बड़ा रही थी,पर नीलेश के तो कान मानो सुन्न पड़ गए थे।अगले ही दिन मिनी से जान पहचान बड़ा ली।उसके साथ बाग की सैर पर जाते हुए उसके देह की सोंधी खुशबू से नीलेश को अपनी चेतना लुप्त होती हुई लगती।मिनी ने भी सहज ही नीलेश को अपना प्रिय मान लिया था।मां की नजर बचाकर नीलेश मिनी के साथ नजदीकियां बढ़ाने लगा था।
एक दिन बड़ी मां ने देखा दोनों को बतियाते तो बोलीं थीं “नीलू,अपने पैरों पर जल्दी खड़ा होना है तुझे।मेरे सर से एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी उतारनी है।”नीलेश बिना कुछ सोचे ही बोला”क्यों नहीं बड़ी मां।तुम तो मेरी जान भी मांग सकती हो।”
छुट्टियां कब खत्म हो गईं ,पता ही नहीं चला।जाते हुए मिनी की आंखों में एक उम्मीद की लहर देखी थी नीलेश ने।चिट्ठी लिखते रहने का वादा लेकर और देकर नीलेश होस्टल आ गया।किशोर से अब वयस्कता की ओर अग्रसर था नीलेश। अपने जीवन की नायिका के प्रेम में आकंठ डूब चुका था।
नियति कुछ और ही चाहती थी।घर से टेलीग्राम आया था,तुरंत आने को कहा गया था।घर पहुंचकर देखा,बड़े पापा अंतिम सांसें गिन रहे थे।पंद्रह दिनों तक रुकना होगा।बड़े भाई के जाने का दुख था या कोई गंभीर बीमारी,जिसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं था,बाबा ने भी बिस्तर पकड़ लिया।मां ने सारी दोष मिनी पर मढ़ दिया।नीलेश के मन में भी उसके खिलाफ जहर घोलने में कमी नहीं की।बाबा भी परलोक सिधार गए।अब तो नीलेश की मां ने सर पर हांथ रखवाकर नीलेश से वचन ले लिया कि बड़ी मां को जोर देकर घर से निकलवाए।
बड़ी मां ने अपने तर्कों से बहुत समझाया नीलेश को पर कहां माना था नीलेश।थक कर बड़ी मां ने राधा काकी के घर पर उसके रहने की व्यवस्था कर दी।शहर जाते हुए बड़ी मां ने अपनी उदारता का परिचय देते हुए कहा नीलेश से”मैंने मिनी को गोद लेने का फैसला किया है नीलेश।आशा करती हूं तुझे कोई दिक्कत नहीं होगी।उससे बड़ा मोह हो गया है रे।समय आने पर उचित पात्र के हाथों सौंप दूंगी उसे।”
नीलेश दादी के इस निर्णय पर हतप्रभ रह गया।
कॉलेज के आखिरी साल का पेपर हो चुका था।नीलेश मिनी को चाहकर भी भुला नहीं पाया था।घर आकर राधा काकी के घर गया भी उससे मिलने।उसकी कातर आंखों में अब भी वही उम्मीद की झलक थी।शहर जाना पड़ेगा,लॉ कंपनी ज्वाइन करने।बड़ी मां सुबह से ही तैयारी कर रही थी विदाई की।मौका पाकर दबे पांव नीलेश के कमरे में कब आईं पता ही नहीं चला।
बिस्तर पर लेटा हुआ था नीलेश।आंखें बंद कर मिनी के बारे में ही सोच रहा था कि तभी माथे पर जाना पहचाना कोमल स्पर्श पाकर देखा,बड़ी मां बैठीं हैं सिरहाने।बालों पर हांथ फिराते हुए बोलीं”नीलू,तुझ पर मेरा अधिकार है ना?”नीलेश ने कहा”हां,है बड़ी मां।””बस,तूने मेरा हौसला बढ़ा दिया बेटा।तुझ से अच्छा सुयोग्य पात्र कहां मिलेगा,मिनी को।मेरी अनुभवी आंखें देख सकती हैं।किसी अच्छे घर की लड़की है।मेरी आंखों के सामने बेसुध पड़ी थी,तभी भा गई थी मुझे।
देख ,मैं तुझे मजबूर नहीं कर रही।तू अपनी वकालत जमा लें।वो कच्ची उम्र की पगली प्रेम करने लगी है तुझसे।मुंह से कुछ बोलती नहीं,पर आंखों में देखा है मैंने उसके।तू भी शायद चाहने लगा था उसे।तेरी मां का भय निर्मूल है।समय बड़ा बलवान है बेटा।समय का चक्र कब किस दिशा बदले ,कोई नहीं जानता।आज हमारे पास सब कुछ है,कल रहेगी कि नहीं क्या पता?मुसीबत में पड़ी लड़की को अपनाकर मैंने कोई ग़लती नहीं की बेटा।
मैं मिनी की शादी तेरे साथ होते देखना चाहती हूं।तू सोच समझकर बताना बाद में।कोई और तेरे मन में आ जाए तो भी बता देना।”बड़ी मां की बातें बेतुकी लगी थी नीलेश को।शहर में एक बड़े वकील के साथ काम करते हुए उनकी बेटी से प्रेम हो गया।मां को जब पता चला , बहुत खुश हुईं थीं।बड़ी मां को सुनाकर बोलीं थीं वे”शादी खून और खानदान देखकर ही करना चाहिए दीदी।दया करके किसी को जीवन भर के लिए अपने जीवन में जोड़ना बेवकूफी है।”
बड़ी मां ने कुछ नहीं कहा था।अपना बेटा ही तो माना था जीवन भर उसे।धूमधाम से शादी हुई दीप्ति के साथ नीलेश की।ससुर जी की इकलौती बेटी के दामाद को शहर के नामी गिरामी वकीलों के साथ उठने बैठने का अवसर मिलने लगा।वकालत अच्छी चल रही थी वहां।दीप्ति के साथ अंतरंग क्षणों में, अतीत की रजनीगंधा की मीठी सुगंध छू ना गई हो ऐसा नहीं था।
गांव भी अब बदल चुका था।बड़ी मां और बूढ़ी हो चली थीं और मां बूढ़ी।बड़ी दीदी और जीजाजी साथ ही रहने लगे थे गांव की हवेली में।नीलेश अब काफी निश्चिंत था,घर को लेकर।बड़ी मां से मिनी की खबर लेता रहता था।प्राइवेट पढ़ाई कर रही थी मिनी।शादी के बाद फिर कभी देख ही नहीं पाया था उसे।बड़ी मां अब ज्यादा समय तीर्थ यात्रा पर ही रहती थीं।
शादी का निमंत्रण भेजा था बड़ी मां ने।दीप्ति नहीं जाना चाहती थी,सो नीलेश अकेला ही आया था।”चल बैठ जाकर कमरे में।राधा के हाथों शर्बत भिजवाती हूं।तेरी मां मंदिर गई है।आज मिनी की हल्दी का आयोजन है वहां पर।तू भी नहा धो ले।आराम कर ले फिर चलना।”बड़ी मां की आवाज सुनकर नीलेश मानो नींद से जागा।हां !मिनी तो आज दुल्हन बनेगी।कब से नहीं देखा उसे।कमरे में जाते ही वही रजनीगंधा की सुगंध से अंतर्मन महक उठा उसका।राधा शर्बत का गिलास लेकर बोली”मिनी बिटिया ने सुबह आकर ही सजा दिया था आपका कमरा।कह रही थी कि काकी आखिरी बार सजा दूं।”
नीलेश का गला भर रहा था।आंखों से पता नहीं कैसे बूंदें टपकने लगी।उसने तो कोई वचन नहीं दिया था,ना लिया था।दिल तोड़ने का तो सवाल ही नहीं उठता।किशोर अवस्था जाते-जाते एक प्रेम का भ्रम दे गई थी उस समय।फिर दुख क्यों हो रहा?ग्लानि का बोध कैसा है यह?अब नीलेश अधीर हो उठा मिनी से मिलने। बड़ी मां के साथ मंदिर पहुंचा ।वहां कजरारी दो आंखें मंदिर के द्वार पर ही प्रतीक्षारत मिलीं।पीली साड़ी में मिनी सूर्य मुखी सी दमक रही थी।
लड़का कलेक्टर था,पास के जिले का।मिनी तहसीलदार बन चुकी थी।बड़ी मां ही दे रहीं थीं शादी।मां को मिनी के पास देखकर नीलेश चौंका ही गया।मां ने धीरे से कान में कहा”तेरी बड़ी मां ने सही हीरा परखा था रे।मैं ही अभागन पहचान नहीं पाई।अपनी ग़लती सुधारने के लिए नहीं, प्रायश्चित करने के लिए हूं यहां इसके साथ।अच्छा किया तू आ गया।मिनी ने दीदी की जायदाद से मिलने वाला सभी धन दान कर दिया।जा मिल लें उससे।”
अभागा मैं भी तो कम नहीं था।अपनी बड़ी मां की सच्चाई पर शक किया था मैंने। अपने प्रथम प्रेम के बीज को कोंपलों समेत उखाड़ फेंका अपने ही हाथों से।नीलेश ख़ुद ही बड़बड़ा रहा था,तभी अपने पैरों में पावन सा स्पर्श पाकर देखा,मिनी प्रणाम कर रही थी।”अरे!क्या कर रही हो मिनी?पैर क्यों छू रही हो मेरे?मैं इस योग्य नहीं।”
“नहीं छोटे बाबू,मुझे आशीर्वाद दीजिए।आपने मेरा प्रेम ठुकराकर मुझे नवजीवन दिया है।अन्यथा मैं दया पात्र की तरह ही आपके जीवन में रहती।बड़ी मां के उपकार को उनके ही घर की बहू बनकर लज्जित कर देती।आपके तिरस्कार से ही मुझे स्वयं की पहचान मिली।बड़ी मां का दिया हुआ नाम “सौदामिनी”, सार्थक हुआ।”
नीलेश समय-चक्र की चाल समझ नहीं पा रहा था।बड़ी मां ने कहा था कि समय एक सा नहीं रहता।आज अनाथ, किशोर, अबोध मिनी की जगह एक परिपक्व सौदामिनी गर्व से सर उठाकर खड़ी हुई थी,नीलेश के सम्मुख।रजनीगंधा की मीठी सुगंध,नीलेश के मन को हमेशा महकाती रहेगी। निश्चित ही सुयोग्य होगा वह पात्र ,जिसके हांथ में बड़ी मां अपनी मिनी का हांथ सौंप रहीं थीं।
शुभ्रा बैनर्जी