बाबूजी,आज 100 रुपये एडवांस में मिल जायेंगे तो बड़ी मेहरबानी होगी।वो है ना माँ की साड़ी लानी है।बस दो धोती है,घिस गयी हैं।देख कर मुझे अपने पर शर्म आती है।
अरे पहले बताना था ना।अच्छा रुक जरा।—–ले ये साड़ियां मेरी पत्नी की है,अब किस काम की,तेरी मां पहन लेगी,उसे संतोष मिलेगा।और ये ले 100 रुपये भी।
सत्तर के दशक में हस्तिनापुर में सरकार ने कुछ बंगाली परिवारों को शरणार्थी रूप में बसाया था।एक कमरे और रसोई जैसा घर और एक दुधारू पशु उन्हें दिया गया था।वहां एक बंगाली कॉलोनी बस गयी थी,जो आज भी है।बंगालियों ने शिल्पकारी यानि मिट्टी से मूर्तियों के निर्माण और घरों में लिपाई पुताई तथा रंग रोगन का कार्य चुना।इन कामो में उन्हें महारत हासिल थी।बढ़िया काम और कम मजदूरी में काम करने के कारण उन्हें काम मिलने में कोई दिक्कत नही होती थी।इन्ही परिवारों में अशोक भी अपनी माँ के साथ
वहां विस्थापित हो रहने लगा था।अशोक मेहनती तो था ही,वह घर मे पुताई आदि में निपुण था।
हस्तिनापुर से 10 किलोमीटर पहले मवाना कस्बा पड़ता है,जहां की एक कॉलोनी में गुप्ता जी की कोठी थी, उसी की रंगाई पुताई अशोक कर रहा था।काम बढ़िया करता था इसलिये गुप्ता जी अशोक से खुश थे।वैसे भी गुप्ता जी की पत्नी रही नही थी,बेटी की शादी कर दी थी,वह आस्ट्रेलिया अपने पति के साथ चली गयी थी।अकेले गुप्ता जी अपनी कोठी में रह गये थे।अशोक उनकी जरूरत के सब काम भी कर देता था,इससे गुप्ता जी को बड़ी राहत थी।दिन भर अशोक के कारण कोठी में उन्हें अकेलापन भी महसूस नही होता था,कभी गुप्ता जी की तबियत खराब भी होती तो अशोक उनके पास रात्रि को भी रुक जाता,इससे उनका मन करता कि घर की रंगाई पुताई का काम खत्म ही ना हो,जिससे अशोक ऐसे ही आता रहे।
उस दिन अशोक ने माँ की साड़ी के लिये 100 की मांग की तो गुप्ता जी अपनी पत्नी की 5-6 साड़ियां और 100 रुपये भी अशोक को दे दिये।अशोक तो गुप्ता जी की दुआएं देता नही थक रहा था।कह रहा था,माँ आज बहुत खुश हो जायेगी।गुप्ता जी अशोक के चेहरे की चमक देख मुस्कुरा भर दिये।
एक दिन अशोक सुबह नौ बजे रोज की तरह गुप्ता जी की कोठी पर पुताई के काम की तरह आया तो घण्टी बजाने पर भी दरवाजा नही खुला तो अशोक घबरा गया।दौड़कर पड़ौसी को बुलाकर लाया,और उनके सहयोग से तुरंत ऊपर चढ़ कर अंदर पंहुचा तो देखा गुप्ता जी नीचे गिरे पड़े है और जोर जोर से हांफ रहे है।अशोक पड़ौसियों की मदद से गुप्ता जी को डॉक्टर के यहां ले गया।पता चला कि दिल का दौरा पड़ा है,थोड़ी देर पहले ही पड़ा होने और तुरंत डॉक्टर के पास पहुंच जाने के कारण उनकी जान बच गयी।
गुप्ता जी एक भाई मेरठ में रहते थे,बेटी आस्ट्रेलिया में थी,फिरभी उन्हें सूचित कर दिया गया।बेटी तो तुरंत आ नही सकती थी,पर गुप्ता जी का भाई और अन्य रिश्तेदार बारी बारी से गुप्ता जी के हाल चाल लेने आते रहे।अशोक रात दिन उनकी सेवा कर ही रहा था,गुप्ता जी के भाई या अन्य किसी रिश्तेदार ने उनकी तीमारदारी के लिये उनके पास रुकने की इच्छा नही दिखायी।हाँ, यह सलाह देने में कोई पीछे नही हटा कि अब चला चली की बेला है,अपनी सम्पत्ति का इंतजाम जीते जी कर लो,नजदीकी रिश्तेदार के बच्चे को गोद ले लो।
गुप्ता जी ठीक हो गये, पर अब रिश्तेदारों का आना और उनकी सहानुभूति बढ़ गयी थी।भाई तो जब भी आते तो अपने बेटे को भी साथ लाते।गुप्ता जी के भाई आते तो वे अपने बेटे से गुप्ता जी के पावँ छुआते, अपने बेटे की तारीफ करते रहते। उनका इशारा यह भी रहता कि वे उनके बेटे को गोद ले लें।
कुछ दिनों बाद गुप्ता जी अपने भतीजे से जो मिलने आया था,बोले बेटा वैभव मैं यहां अकेला रहता हूँ तुम यही मेरे पास रहने लगो,मेरा अकेलापन दूर हो जायेगा बेटा, तुम्हे किसी प्रकार की कोई कमी नही रहेगी।वैभव हिचकिचाया, पर मना भी नही कर सका,उसके पिता ने उसे समझाया था कि बेटा तेरे ताऊ जी ऊपर जाने ही वाले है,उनकी बेटी आस्ट्रेलिया में है, सो जरा उनकी निगाहों में चढ़ो, तो समझ लो उनकी कोठी समेत सब नकदी और जमीन उसकी हो जायेगी।वैभव को बात जंच गयी,सो यदा कदा उसने गुप्ता जी के पास आना जाना बढ़ा दिया था।
अब वैभव गुप्ता जी के पास रहने आ तो गया पर यहां उसे कस्बे का लाइफ स्टाइल पसंद नही आया।सुस्त लाइफ ऊपर से ताऊ जी को दिखावे की एक्टिंग अलग से।उसका मन उचटता जा रहा था।गुप्ता जी अब बीमार रहने लगे थे,पर वैभव को देखभाल करने की आदत ही नही थी।वह गुप्ता जी के प्रति लापरवाह होता जा रहा था।एक रात गुप्ता जी को तेज बुखार हो गया और वे वैभव को आवाज देते रह गये पर पास में होने के बावजूद वह उनके पास आया ही नही।एक दो बार और ऐसे ही हुआ।अब वे जब अपनी तबियत ठीक नही पाते तो अशोक को रोक लेते।अशोक पूरी तन्मयता के साथ उनकी सेवा करता।वैभव अब और लापरवाह हो गया था।अपने ताऊ जी को उसने पूरी तरह उपेक्षित कर दिया था।एक दिन वैभव अपने पिता और मां से मिलने मेरठ गया तो कई दिनों तक वापस नही आया,तब अशोक ही उनके पास रहा।
गुप्ता जी अब अक्सर बीमार रहने लगे थे,सो उन्होंने अपने धन सम्पत्ति की वसीयत कर दी।और अशोक को बुलाकर कहा बेटा जब मैं मर जाऊं तब सब रिश्तेदार आदि तो आयेंगे ही।तुम वकील साहब को भी मेरे मरने की सूचना दे देना।अशोक बोला ऐसी बात क्यो बोलते हैं बाबूजी?अरे जीवन का कुछ पता थोड़े ही है अशोक,कहकर उन्होंने अशोक का हाथ पकड़कर दबा दिया।
अगले दिन ही गुप्ता जी तो वास्तव में ही दुनिया से चले गये।अशोक ने उनके रिश्तदारों और वकील साहब को सूचना दे दी।अंतिम संस्कार के बाद तेरहवीं के समय गुप्ता जी की बेटी सहित सब रिश्ते दार आये हुए थे।कार्यक्रम की समाप्ति पर वकील साहब ने गुप्ता जी की वसीयत उनकी इच्छानुसार सबके सामने पढ़ी।गुप्ता जी अपनी कोठी और सब धन संपत्ति रंगरोगन करने वाले अशोक के नाम कर गये थे,अशोक हतप्रभ सबकी ओर देख रहा था। समयचक्र अपना करिश्मा दिखा चुका था।
यह घटना क्रम अस्सी के दशक में घटा था।घटना सच्ची है,अशोक आज भी गुप्ता जी वाली कोठी में रहता है, पात्रों के नाम बदले हैं।
बालेश्वर गुप्ता, नोयडा
सच्ची एवम अप्रकाशित।