जब किसी औरत का पति नहीं रहता तो वह दूध मे चीनी की तरह अपनी संतान की गृहस्थी में मिल जाती है। पर …यदि किसी पुरुष की पत्नी नही रहे तो वह अपने ही घर में अपनी ही संतान की गृहस्थी में दूध में मलाई की तरह हो जाता है । दूध का अंग होकर भी उनसे अलग..औरत हर हाल में निर्वाह करना जानती है क्योंकि उसे जीवन के प्रत्येक काल में निर्वहन करना होता है उसे यह उम्मीद होती है कि….उन्हें ( बच्चों को) मेरी आवश्यकता है और सच तो यह भी है कि उसे भी उनकी जरुरत है ।हम माता पिता अपने बच्चों को बचपन में जितना सपोर्ट और प्रेम करते हैं उसी अनुपात में वो बुढ़ापे में लौटाते हैं ।
क्यों गई थी इतना खर्चा करके??? जब दादी को साथ लाना ही नहीं था… शाक्ड थी अनुपमा….वह तो सास की सेवा के लिए ही आयी थी…अपने बच्चों और घर को छोड़ कर।सास की अपने साथ ले जाना भी चाहती थी… पर ना सास की उम्र थी सफ़र करने की और ना अनुपमा की उमर और स्थिति थी उन्हें साथ रखने की।जब उसके पति की मृत्यु के बाद … उनकी पेंशन से … घर-परिवार का ही गुजारा बहुत मुश्किल से चलता था…
उस पर सास की बीमारी में एक शहर से दूसरे शहर आना जाना और उनकी तीमारदारी का खर्च और अब… बड़ी विवाहिता बेटी का कहना कि … दादी को लेती आओ।और भी लोग तो हैं… (जेठ, देवर और ननद)सासु माँ की सेवा और साथ में रखने के लिए….सब सक्षम भी हैं हमसे अधिक। सिर्फ़ पति के ना रहने से मैं ही ख़ाली हूँ… मेरे पास कोई काम नहीं या मेरी को अहमियत नहीं। कैसे विवाहिता बेटी को समझाए कि… पति के ना रहने पर हम निठल्ले हो गये है क्या??? जब जिसकी ज़रूरत हो … अनुपमा जाये… वो सब सही से सँभाल लेती है सब… अच्छा तरीक़ा हैं… ज़िम्मेदारियों से बचने के लिए अपना पल्ला झाड़ने का।अनुपमा तो है ही।
सच हैं… कभी कभी अच्छाई ही हमारी कमज़ोर कड़ी बन जाती है हमारी ज़िंदगी की…मेरी (अनुपमा) ही गलती थी कि… बच्चों को दादी-बाबा और नानी-नाना साथ में सभी अपने सभी बड़ों की इज्जत और अपनापन सिखाया कि… हर इंसान का अपना परिवार ही उसका पहला प्यार होता है। आज उसी परिवार में ख़ुद की अहमियत कुछ नहीं रही।
बस दादी की साथ में ना ला सकने पर अपने ही बच्चे उसके( अनुपमा) ख़िलाफ़ हो गए तो…. किसी और को क्या कहे! किसी ने यह नहीं पूछा कि… अनुपमा! अनुज नहीं है तो…कोई ज़रूरत तो नहीं… कैसे करोगी…इतना सब कुछ…कैसे कर पाओगी बच्चों की पढ़ाई का खर्चा ????इस एक छोटी सी पेंशन से ।
कहते हैं… हर व्यक्ति का अपना कमाया पल होता हैं…आज वही एक पल अपने लिए जीना चाहा तो … सभी ख़िलाफ़ हो गए…
“अरे! तुम्हें क्या ज़रूरी काम हैं???? कौन सा तुम्हें पति-बच्चों को टिफ़िन बनाना हैं???क्या तुम एक बूढ़ी माँ, सास, नानी, दादी की सेवा नहीं कर सकती???”
अरे!
साठ के ऊपर की उमर हो गई है हमारी…
हमारा भी अपना एक ग्रुप हैं… जिसमें भजन-कीर्तन, किटी पार्टी, एंजियो(जहां वह ग़रीब बच्चों को मुफ़्त में शिक्षित करती)। अनुज को सदैव जल्दी रही सो.. जल्दी चले भी गए… लेकिन मैं(अनुपमा)… क्या करे????वो तो… अभी ज़िंदा है… हर व्यक्ति का अपना कमाया पल होता हैं…अब तो… कुछ पल… हो जो.., सिर्फ़ मेरा( अनुपमा) का हों।
अपने लिए कुछ पल क्या माँग लिए… सब मेरे ख़िलाफ़ हो गये।
आख़िर कब… कुछ पल मेरा अपना …सिर्फ़ अपना होगा।
“और कितने इम्तिहान लेगा वक्त तू,
जिन्दगी मेरी हैं फिर मर्जी तेरी क्यों…”
आज वक्त से ख़िलाफ़त की बू आने लगी हैं।
संध्या सिन्हा