अपने नीरस एक ढर्रे पर चलती जिंदगी से बेजार… शीलू बिना पति बेटे की जानकारी के घर से निकल पडी। एक बैग में कुछ कपड़े, पैसे लेकर… “कहाँ जायेगी क्या करेगी …सबकुछ अनिश्चित “!
यह भी ख्याल नहीं रखा कि दस वर्षीय बेटा बिना मां के कैसे रहेगा… स्कूल जायेगा, अपना काम करेगा और सीधा सादा कमाऊ पति जब थक-हारकर घर आयेगा …तब वृद्ध माता-पिता को कैसे मैनेज करेगा।
“मेरी बला से ” गैरजिम्मेदार शीलू ने कंधे उचकाये। एक छोटे से कागज के पुरजे पर पति को लिख भेजा, “उब चुकी हूं …घर-गृहस्थी, बच्चा और तुम्हारे मां-बाप के खिदमत से… अब तुम संभालो. ..तब आटे-दाल का भाव पता चलेगा। मुझे ढूंढने की कोशिश मत करना… न मैं अपने माता-पिता के पास जाऊंगी और न किसी रिश्तेदार के पास… अपनी मर्जी से जा रही हूं… अपनी इच्छा से लौट आऊंगी… बेटे को उल्टी पट्टी मत सिखाना…यह मेरा निजी फैसला है ।। “
सीधा-सादा पति निखिल ने पुरजा पढ़कर सिर पीट लिया। अब नन्हे बेटे और वृद्ध लाचार माता-पिता को कैसे संभाले। दोषी वह भी है अपनी पढी-लिखी ,तेज-तर्रार खूबसूरत पत्नी को घरेलू कामों में जोत दिया… न कभी उसकी इच्छा पूछी और न कहीं घुमाने ले गया। जबकि चंचला पत्नी के रग-रग से वह वाकिफ था।
खैर, अब स्थिति कैसे संभाली जाये…जिससे माता-पिता और बेटे का दिल न टूटे। निखिल ने एक सप्ताह की छुट्टी ले ली। माता-पिता और बेटे से झूठ बोल दिया कि, “शीलू एक सप्ताह के लिए किसी आवश्यक काम से बाहर गई है तबतक मैं सब संभालूंगा। “
बेटा बार-बार पूछता, “मम्मा कहाँ है,मैं मम्मा के हाथों खाऊंगा… मुझे मम्मा के पास सोना है “निरुत्तर निखिल उसे बहलाता, “बताया न, मम्मा को एक जरुरी काम आ गया था “
सर्वप्रथम निखिल ने दफ्तर से एक सप्ताह की छुट्टी ले ली। कामवाली के सहायता से निखिल अपने माता-पिता को समय पर खाना-पीना तथा अन्य जरूरतें पूरी करने लगा। बेटे को स्कूल छोड़ना… लाना… उसे बहलाकर खिलाना, होमवर्क करवाना… सच में आसान नहीं था। धन्य होती है गृहस्वामिनी जो सबकुछ स्वेच्छा से संभाल लेती है जबकि हम पुरुष तनख्वाह उनकी हथेली में डाल निश्चिंत हो जाते हैं। पूरा घर भायं-भायं कर रहा था। “बिन घरनी घर भूत का डेरा “लाख प्रयास के पश्चात भी वह सुघडता नहीं आ पाती जो शीलू के हाथों में थी।
इधर शीलू घर छोड़कर निकली तो थी बड़ी जोश में… दिनभर इधर-उधर घूमी… शाम होते ही “कहाँ जाऊं…बेटा ढूंढ रहा होगा, निखिल परेशान होगे… सास-ससुर पूछ-पूछकर उनका माथा चाट जायेंगे… मैंने घर छोड़कर अच्छा नहीं किया, भला ऐसे कोई अपनी बसी-बसाई गृहस्थी का त्याग करता है… सिर्फ अपनी मौज-मस्ती के लिए “शीलू कमजोर पडने लगी। “घर लौट चलूं”!
“नहीं… कभी नहीं “जिद आडे आ गया। सार्वजनिक टेलीफोन से अपनी उन सहेलियों को फोन करने लगी जो उसकी आदर्श थी… बिंदास, खर्चीली, नखरीली… बात-बात पर पति, ससुराल का मजाक उडाने वाली… महिला मुक्ति मोर्चा की समर्थक! ऐसा दिखावा करती थी मानों सारा जहां उनके पांवों तले हो।
यह क्या किसी को भी उससे मिलने या अपने यहाँ बुलाने की दरकार नहीं थी। जिसके दम पर वह घर छोड़ आई थी वे ऐसी मतलबी निकलेंगी… उसका मन खट्टा हो गया।
अचानक उसे अपनी सहेली राजी याद आ गई। उसने प्रेम-विवाह किया था और आजकल अपने पति के साथ ससुराल के गाँव में रहती है।
दर असल राजी शीलू की आदर्श थी… वह मुंहफट और अपनी शर्तों पर जीने वाली लड़की थी। सामने बस खडी़ थी। सुबह गंतव्य तक पहुंचा देगी। “राजी से मिलकर कुछ स्वच्छन्द जीवनशैली की रुपरेखा तैयार करती हूं। “
अचानक शीलू में स्फूर्ति आ गई… टिकट कटा झट से बस में जा बैठी।
सुबह मुंह अंधेरे ही बस राजी के गाँव जा पहुंची। उसका मकान भीतर गलियों में था। गाँव के लोग सुबह जल्दी जग जाते हैं। एक आधुनिक वेशभूषा में खूबसूरत स्त्री को हाथ में बैग लेकर आते देख… सभी आश्चर्यचकित कानाफूसी करने लगे।
शीलू पता पूछती राजी के ड्योढ़ी पर जा पहुंची। वहाँ उसका सामना राजी के रोबदार ससुर से हुई। अचानक किसी स्त्री का राजी को ढूंढते गाँव आना… उनके समझ से परे था। उन्होंने एक के बाद एक सवाल दागना शुरु किया! शीलू इस परिस्थिति के लिए तैयार नहीं थी… वह बुरी तरह हड़बड़ा उठी, “ओ माई गाॅड मैं कहाँ आ फंसी। “
इसी बीच दरवाजे के पीछे से किसी ने इशारा किया और बुजुर्ग बोले, “जा भीतर जा। “
अनजान लोग वह हिचकिचाई, “खड़ी-खड़ी मुँह क्या देख रही है… जा भीतर”कड़कदार आवाज… तभी एक घूंघट वाली ने हाथ बढा़कर उसे अंदर खींच लिया। वह घूंघट वाली और कोई नहीं बल्कि राजी ही थी।
उसे गले लगा बोली, “आज पहली बार मेरे यहाँ से कोई आया है… मुझे कैसे याद किया शीलू। “
“राजी, तुम हो… मेरी जान निकल रही थी, ऐसी वेशभूषा में “
“बुराई क्या है… इस घाघरे चुन्नी में “!
वह गाय के दूध का गरम अदरक वाली चाय बनाकर लाई।भूख और प्यास एक साथ जागृत हो गया। जनानखाने में कुएं के शीतल जल से स्नान… शीलू का संपूर्ण क्लेश बहा ले गया। फिर राजी ने लकड़ी उपले के चूल्हे पर अपने हाथों से मोटी-मोटी मकई की रोटी सेंकी, सरसों के साग मक्खन के साथ मनुहार से खिलाया… अपने कमरे में ले जाकर बोली, “तू थकी हुई है… सो जाओ, मैं अपने पति, जेठ और ससुरजी का कलेवा लेकर खेत पर जाती हूं… शाम में तुम्हारी बातें सुनूंगी। “
शीलू आश्चर्य से राजी की भावभंगिमा, ग्रामीण परिधान,गंवई परिवेश में कान्वेंट एजुकेटेड, बडी़-बडी़ बातें करनेवाली, घरेलू कार्यों को हाथ लगाना… अपना हेठी समझने वाली को आत्मसात होते देख रही थी।
“यह भी अपने घर-गृहस्थी में मगन है… और एक मैं सुदर्शन प्यार करनेवाला पति, मासूम बेटा और आशीषते सास-ससुर से बेजार अपने ही कदमों पर कुल्हाड़ी मार आई” आंखों से अश्रुधारा बह निकली… रोते-रोते सो गई।
जब शीलू की आंखें खुली तब दिया बात्ती हो चुका था। चाय खाने की खुशबू फैली हुई थी … परिवार वालों की हंसी बोली से घर गुलजार हो रहा था।
आज शीलू को शिद्दत से अपना घर याद आया। पति का “शीलू शीलू” पुकारना… बेटे का गले लिपटना, सास-ससुर का उसका मुंह देखते रहना… और स्वयं शीलू का सबसे कटे-कटे रहना… वह अपनी करनी पर शर्मिंदा हो रही थी।
“अरे, उठ गई… लो चाय नाश्ता करो… गरमागरम मूंगफली पोहे,भुट्टे का नाश्ता …स्वादिष्ट गुड़ अदरक की चाय। “
“तुम यहाँ कैसे एडजस्ट करती हो”चाय चुस्की लेती शीलू अपने को रोक नहीं पाई, “तुम और तुम्हारे पति मैनेजमेंट के टाॅपर हो… अच्छी खासी बंगलोर में नौकरी थी.. वह सब छोड़कर… इस देहाती दुनिया में! “
राजी खिलखिलाते बोल पडी़, “पढ़ाई आपको सुसंस्कृत करता है… हम अपनी योग्यता का उपयोग अपने पैतृक गांव के रख-रखाव ,बच्चों को सुशिक्षित करने… अपने पैतृक जमीन में नये-नये फसल उगाकर करते हैं… रही बात वेशभूषा की… जैसा देश वैसा भेष… यहाँ विविधता है… हम बडों का आदर और छोटों को मार्गदर्शन करते हैं। मेरा बेटा शहर हास्टल में रहकर पढाई कर रहा है। मैंने प्रेम विवाह किया था… जानेमन… याद रहे पति का दिल जीतना है तो पहले उसके परिवार और सभ्यता संस्कृति को अपनाना पड़ेगा… वरना जिंदगी बोझ बन जायेगी… चलो तुम्हें अपने पति और परिवार से महिलाएं। “
राजी शीलू का हाथ खींचते आँगन में ले आई। पुराने तरीके की हवेली, रख-रखाव …हंसमुख साधारण कद काठी का पति, तेज मिजाज सास, जेठानी, खिलंदडी़ ननदें… और सबसे तालमेल बिठाती… उच्च शिक्षित व्यवहार कुशल राजी… उसका सुखी संसार देख शीलू का विचार बदल गया।
दूसरे दिन शाम में जब शीलू अपने घर पहुंची तब निखिल बेटे को होमवर्क करवा रहा था… सास-ससुर सिर झुकाये बैठे हुये थे। सेविका रात का खाना बनाकर चली गई थी।
“मम्मा, मम्मा “करता बेटा गले से झूल गया।
“सब ठीक -ठाक”मितभाषी पति की प्यार भरी नजरें।
सास-ससुर का पैर छूती शीलू के हृदय से आवाज आई”, मैने घर लौटने का सही फैसला किया।
सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला सिन्हा ©®