मेघा दीदी का सोसायटी में बड़ा ही मान सम्मान था, वो अपने सामाजिक कार्यो और समाज सेवा के लिए
जानी जाती थी, आज उनके घर पर हल्दी कुमकुम कार्यक्रम था, हम सब सोसायटी वालों को उन्होंने बुलाया था।
हम सब सहेलियां सुबह से ही उत्सुक थे, क्योंकि समाज सेवा के साथ वो किसी त्योहार को नहीं छोड़ती थी, हर त्योहार को मनाना उन्हें अच्छे तरीके से आता था, साथ ही वो योगा टीचर भी थी।
मै नंदिता मेरा वजन दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था, मैंने उनकी क्लास ली और दो महीने में ही मेरा वजन भी कम हुआ और मेरा स्वास्थ्य भी सुधरने लगा, अब हम सबका एक समूह बन गया था, हम एक-दूसरे के घरों में सुख-दुख पर भी आने-जाने लगे थे।
शाम को हम सब मिलकर उनके घर पर गये, घर को फूलों से सजाया हुआ था, और वो भी मराठी साड़ी और गहनों में बहुत ही सुन्दर लग रही थी, वहां कमरे में उनकी सास भी बैठी हुई थी, जिनकी उम्र सत्तर के करीब लग रही थी, पर वो अधिकांश बीमार रहती थी।
उन्होंने हम सबको बैठाकर हल्दी कुमकुम किया , तभी दरवाजा खुला और एक अंकल अन्दर आये, मेघा दीदी ने उन्हें भी बैठने को कहा।
मुझे लगा वो मेघा जी के ससुर जी है, पर उनकी सास
के माथे पर ना तो बिंदी थी और ना ही हल्दी कुमकुम का तिलक था, मेरी उत्सुकता को मेरी सहेली वाणी
समझ गई।
“नंदिता, ये मेघा दीदी के पापा है, ससुर जी नहीं है, और यही मेघा दीदी के साथ उनके ही घर पर रहते हैं।”
मेघा दीदी के पापा यही उनके साथ रहते हैं, ये तो मेरे लिए नई बात थी, इस बात की मुझे जानकारी नहीं थी, मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि उनकी सास भी उनके साथ रहती थी, ऐसे में पापा भी…. ये बात मेरे गले नहीं उतर रही थी।
जब सब लोग चले गये, मै और वाणी वहां रह गये, मैंने झिझकते हुए पूछा, ” मेघा जी आपके पापा आपके साथ रहते हैं तो आपकी सास को आपत्ति नहीं होती है? क्योंकि एक ही छत के नीचे समधन और समधी का साथ रहना कैसे संभव है?
वो मुस्कराते हुए बोली, “नंदिता सब संभव है, बस दिल में सेवा की भावना होनी चाहिए, मम्मी के जाने के बाद पापा बिल्कुल अकेले रह गये थे, बड़े भैया विदेश में रहते हैं और पापा भारत छोड़कर विदेश नहीं जाना चाहते थे, पापा को कई बीमारियां है और उन्हें समय पर दवाईयां भी लेनी होती है, कुछ दिनों के लिए मेड को रखा पर वो उतनी देखभाल नहीं कर पाती थी, जितना मै करती थी।”
“मन में एक दुख था कि मै उनकी सेवा नहीं कर पा रही हूं, मेरे पति हरीश अपने काम में व्यस्त रहते थे, उनका ज्यादातर समय टूर पर निकलता था। घर में सासू मां और बच्चे थे, बच्चे इतने बड़े तो हो गये थे कि अपना ध्यान खुद रख सकते थे, तो मै अधिकतर पापा के पास चली जाती थी, पर शाम होने से पहले मुझे वापस आना ही होता था, क्योंकि मेरे पास बच्चों और सासू मां की भी जिम्मेदारी थी।”
“इधर घर उधर पापा इन सबके बीच में अपने आपको भुल गई थी, हरीश टूर पर गये थे तो एक दिन सासू मां ने बुलाकर समझाया, “मेघा कब तक ये भागादौड़ी करती रहोगी? इस तरह तो बहू जिंदगी नहीं चलेगी?
तुम्हें इस घर के बारे में भी सोचना है और अपनी सेहत का भी ध्यान रखना है।”
“मै बहुत ही बुरा महसूस कर रही थी, उस वक्त मुझे अपने लड़की होने पर बहुत ही दुख हो रहा था कि मै चाहकर भी अपने पापा के लिए कुछ नहीं कर पा रही हूं, मै अपनी सोच में थी, आगे कुछ बोलती कि उससे पहले मेरी सास ने मुझसे कहा कि, “तुम अपने पापा को यही बुला लो, हम सब साथ में रहेंगे, तुम्हारी भी भागादौड़ी का समय बच जायेगा, और समधी जी की अच्छे से देखभाल भी हो जायेगी।”
लेकिन मम्मी जी, ‘ये कैसे संभव है? मेरे पापा यहां आकर कैसे रह सकते हैं? समाज और रिश्तेदार क्या कहेंगे?
“बहू समाज और रिश्तेदार सिर्फ बातें बनाने के लिए होता है, जब जरूरत होती है तो इनमें से कोई भी काम नहीं आता है, अपने खून के रिश्ते ही काम में आते हैं, तुम्हारे पापा के बारे में तुम्हें ही सोचना है और तुम्हें ही करना है, ये समाज और रिश्तेदार तो कुछ नहीं करेंगे, तुम्हारे कितने रिश्तेदार इसी शहर में रहते हैं पर सेवा के लिए जरूरत के समय तुम ही अपने पापा के पास जाती हो, मेरी मानों पापा को यही बुला लो।”
“मम्मी जी, आपकी बात तो सही है, पर पापा के लिए अलग से एक कमरा चाहिए होगा, हमें उसका इंतजाम भी देखना होगा, तीन कमरे है, उनमें से एक तो आपका, एक हमारा और एक बच्चों का है, सब कुछ मैनेज करना होगा।”
“हां, मेघा तुम्हारी बात भी सही है, हम थोड़ा बड़ा फ्लैट ले लेते हैं, चार कमरों वाला, फिर तो कोई परेशानी नहीं होगी।”
फिर भी मेरे मन में एक सवाल था, ‘मम्मी जी मै हरीश को कैसे मनाऊंगी?”
“मेघा, मैंने पहले ही हरीश से बात कर ली है, और उसने हामी भर दी है।”
हरीश की ज़िंदगी में जो अहमियत मेरी है, वैसे ही तुम्हारी ज़िंदगी में तुम्हारे पापा की अहमियत है, मै भी किसी की बेटी हूं, मै ये दर्द अच्छी तरह से समझती हूं कि जब मायके में माता-पिता में से किसी एक को भी तकलीफ होती है तो सबसे ज्यादा दर्द बेटी को होता है, सबसे ज्यादा परेशान एक बेटी ही रहती है, उसका दर्द दुगुना होता है, एक तो स्वाभाविक रूप से महसूस होता है, और दूसरा दर्द अपने माता-पिता के लिए वो दूर रहते हुए कुछ नहीं कर पाती है, ये भी दर्द उसे सालता रहता है, जब मेरी बहू और समधी जी की बेटी इस तरह से परेशान रहेगी तो घरवाले खुश कैसे रहेंगे?
मेरे लिए तुम्हारी खुशी की भी बहुत अहमियत है।
मम्मी जी की बातें सुनकर मुझे तो जरा भी विश्वास नहीं हुआ, मेरे पुण्य थे जो मुझे ऐसा ससुराल मिला और ऐसी सुलझी हुई सास मिली।
“मेघा, लोग समाज सेवा करते है, पर पहले अपने माता-पिता की सेवा जरूरी है, तुम्हारे पापा को हम सबकी हम सबके साथ की बहुत जरूरत है, अकेलेपन की वजह से भी वो ज्यादा बीमार रहते हैं।”
मेघा दीदी अतीत से बाहर आई, ‘बस फिर क्या था, हमने बड़ा फ्लैट ले लिया, पापा यहां रहने आ गये, बच्चों और हम सबके साथ उनका मन लग जाता है, तबीयत में भी सुधार हुआ है।”
मेरे मन में मेघा दीदी की सास के लिए और भी सम्मान बढ गया, “आंटी जी मुझे भी आशीर्वाद दीजिए, और मै अपने घर चली आई।”
रात को अपने पति को मेघा दीदी की कहानी सुनाई, फिर मैंने कहा कि, ‘मां अकेली रहती है, क्यों ना हम उन्हें यहां ले आयें, मेरे तो कोई भाई भी नहीं है, हम बहनों को ही मां की सेवा करनी है।”
“लेकिन आपकी मम्मी को आपत्ति हुई तो? मैंने शंका जताई।
“मेघा दीदी की सास ने कितनी अच्छी बात कही है, जो अहमियत मेरी मम्मी की मेरी जिंदगी में है, वो ही अहमियत तुम्हारी जिन्दगी में तुम्हारी मम्मी की है, तुम बस पत्नी हो तो ये अहमियत बदल तो नहीं जायेगी?
तुम सुबह ही अपनी मम्मी को फोन करना, हम सब उन्हें लेने के लिए चलेंगे, मेरे पति मुस्कराकर बोले।”
आज मुझे समझ में आ गया था कि हर रिश्ते की अहमियत होती है, चाहें वो पति का हो या पत्नी की तरफ का हो।
धन्यवाद
लेखिका
अर्चना खंडेलवाल
मौलिक अप्रकाशित रचना
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