” मित्रों….ना जाने कैसा जमाना आ गया है…लोग अपने घर के बुजुर्गों का आदर-सम्मान करना ही भूल गये हैं।जिन्होंने हमें ज़िंदगी दी है…हमें चलना- बोलना सिखाया है..आज वे हमसे सिर्फ़ थोड़ा प्यार चाहते हैं…अगर ये भी हम उन्हें भी न दे सके तो हमें इंसान कहलाने का कोई हक नहीं है।परिवार में इन बुजुर्गों की छत्रछाया रहने से ही तो नयी पीढ़ियों को अच्छे संस्कार मिलेंगे।
अतः आप सबसे मैं विनम्र निवेदन करती हूँ कि अपने घर के वृद्धजनों को दुखी न करे…उनका आशीर्वाद ले…धन्यवाद!” इतना कहकर मिसेज़ चंद्रा ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिये और ‘ गायत्री लेडिज़ क्लब’ का हाॅल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।
मैं उस क्लब की नयी सदस्या थी…किसी को पहचानती नहीं थी, इसलिये वहाँ जाने में थोड़ी हिचकिचाती थी।फिर मेरी नयी-नयी सहेली बनी अर्पिता ने मुझे क्लब की अध्यक्षा मिसेज़ चन्द्रा के बारे में बताया कि वो एक प्रतिभाशाली महिला हैं…सभी को लेकर चलती हैं..वगैरह-वगैरह।मैं एक-दो बार उनसे मिली..अच्छी लगी और अब उनकी दमदार स्पीच सुनकर तो मैं उनकी कायल हो गई थी।फिर तो मैं क्लब जाने का एक भी मौका नहीं छोड़ती।मैं मिसेज़ चंद्रा के पहनावे, उनकी चाल और उनके बोलने के तरीके से बहुत प्रभावित थी।
क्लब की कमिटी का गठन होने लगा तो मिसेज़ चंद्रा ने मुझे बच्चों के स्कूल की ज़िम्मेदारी सौंप दी जो क्लब द्वारा ही संचालित थी।स्कूल के दौरे पर मैं उनके साथ ही रहती थी और तब मैंने देखा कि वो बच्चों के साथ बिल्कुल बच्ची बन जाती थी।कुछ लोगों ने तो मुझे ये भी बताया कि वे पास के वृद्धाश्रम में जाकर वृद्धजनों के साथ समय बिताती है।बुजुर्गों के प्रति उनकी संवेदना देखकर मैं स्वयं को धन्य मान रही थी जो इतनी सहृदय व्यक्तित्व का सानिध्य मुझे प्राप्त हो रहा था।
एक दिन की बात है, मुझे कुछ फ़ाइलों पर मिसेज़ चंद्रा के हस्ताक्षर लेने थे।उनका केबिन खाली देखा, पूछने पर पता चला कि आज वो नहीं आयेंगी।मैंने उन्हें फ़ोन किया और फ़ाइल पर हस्ताक्षर की बात कही तो उन्होंने कहा,” ठीक है, तीन बजे मेरे घर आ जाओ।” मैं बहुत खुश थी कि आज मुझे उनका घर भी देखने को मिलेगा।
मैं फ़ाइल लेकर तीन बजने में पाँच मिनट था, तभी उनके घर पहुँच गई।दो मिनट रुक कर काॅलबेल बजाने ही वाली थी कि अंदर से एक महिला की तीव्र आवाज़ सुनाई दी,” आपको किसने कहा था इस कमरे में आने के लिये।” मैं ठिठक गई। मुझे आवाज़ जानी-पहचानी-सी लगी।मैंने ध्यान-से सुना, आवाज़ मिसेज़ चंद्रा की थी।वो किसी से तीखे स्वर में कह रहीं थीं,” आपको अपने पर नियंत्रण नहीं है तो अपने कमरे में ही बैठी क्यों नहीं रहती।इस समय मेरे गेस्ट आने वाले हैं और आपने गंदगी फैला दी…नैना!” वह ज़ोर-से चीखी।
” जी मैडम…।” नैना ने धीरे-से कहा
” इनको निकालने पर कंट्रोल नहीं है तो हम इनके खाने पर ही कंट्रोल कर देते हैं।अब से तुम इन्हें एक ही टाइम खाना दोगी और….।” इसके आगे मैं सुन नहीं सकी।मेरी आँखों के सामने मिसेज़ चंद्रा का विद्रूप चेहरा आ गया।साथ ही, एक वृद्धा का लाचार चेहरा भी..।मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि जिसे मैं देवी समझकर पूज रही थी…वो तो इंसान कहलाने के लायक भी नहीं थी।मन तो किया कि बिना हस्ताक्षर कराये ही मैं वापस लौट जाऊँ लेकिन फिर सोचा, जो ज़िम्मेदारी उठाई है, उसे तो पूरा करना ही है।
किसी तरह से मैंने खुद को संयत किया, चेहरे पर नकली मुस्कुराहट का मुखौटा ओढ़ा और काॅलबेल बजा दिया।नैना ने दरवाज़ा खोला।मिसेज़ चंद्रा ने दोनों फ़ाइलों पर हस्ताक्षर किया और मेरी तरह नकली मुस्कान बिखेरतीं हुई बोली,” मिसेज़ गुप्ता…चाय पीकर जाइये…।” जी तो किया कि अंदर का सारा गुस्सा निकाल दूँ लेकिन नहीं कर सकी।
‘ फिर कभी…।” कहकर मैं फ़ाइल लेकर बाहर आ गई और रास्ते भर यही सोचती रही कि ना जाने कैसा जमाना आ गया है।लोग अंदर से कुछ होते हैं और बाहर से दिखाते कुछ और हैं।उनके कथनी-करनी में इतना अंतर!..रिश्तों में इतनी मिलावट..घोर कलयुग आ गया है।एक जानवर इंसान के साथ रहकर इंसानियत सीख जाता है लेकिन मिसेज़ चंद्रा जैसे लोग मनुष्य जन्म लेकर भी अपनी मनुष्यता भूल जाते हैं….।उस दिन सबके सामने तो बुज़ुर्गों के सम्मान पर खूब बड़ी-बड़ी बातें कर रहीं थीं लेकिन घर में अपनी बूढ़ी-असहाय सास के साथ ये दुर्व्यवहार….यही सब सोचते-सोचते मेरा घर कब आ गया, मुझे पता ही नहीं चला।
दो दिनों के बाद जब मैं क्लब गई तो मिसेज़ चंद्रा को अपना इस्तीफ़ा-पत्र थमा दिया…।
विभा गुप्ता
# ना जाने कैसा जमाना आ गया है स्वरचित