इसे किस्मत का खेल ही कहेंगे कि कभी एक जोड़ी कपड़े में मायके से विदा की गई संविदा आज दुल्हन की तरह सजी दर्पण के सामने बैठी थी। संविदा की ऑंखें अपने पहने हुए लहंगे पर हाथ फेरती तरल हो गई थी। आज उसकी पंद्रहवीं वैवाहिक वर्षगांठ था, जिसके लिए उसके सास ससुर और दोनों बच्चों में बहुत उत्साह था। उसे अपना बचपन से लेकर आज तक सफर याद हो आया था। पाॅंच भाई बहनों में तीसरे नंबर पर थी संविदा।
सभी भाई की शक्ल सूरत देखने लायक थी, लेकिन संविदा के होंठ टेढ़े होने के कारण वो अपने अन्य भाई बहनों से अलग लगती थी और थोड़ा बहुत अस्पष्ट भी बोलती थी। इस कारण उसके मम्मी पापा भी उसे अपने कर्मों का दोष बताते हुए उसके प्रति अपनी नापसंदगी जाहिर कर देते थे, भाई-बहन भी उसे हिकारत भरी दृष्टि से देखते थे और रिश्तेदार भी आते जाते अफसोस जता जाते थे। धीरे धीरे संविदा खुद में सिमटती चली गई। पढ़ाई के साथ साथ घर के सारे कार्य उसकी झोली में गिरते चले गए और वो चुपचाप घर के सभी काम कर पढ़ने जाती, आकर फिर से काम पर लग जाती।
वक्त के साथ साथ उसकी बड़ी बहन की शादी अच्छे खाते पीते घर में हो गई। दूसरे नंबर पर भाई था, इसलिए पहले संविदा की शादी कर देने की बात होने लगी। लेकिन जो भी रिश्ता आता, वो संविदा की छोटी बहन मालती को पसंद कर जाता और उनके जाने के बाद संविदा को घर वालों की उल्टी सीधी बातें सुननी पड़ती।
किसी तरह छुटकारा पाया जाए की तर्ज पर येन केन प्रकारेण संविदा की शादी मंदिर में ले जाकर बहुत ही साधारण से घर के मोहन से कर दी गई, जो शहर में किसी फैक्ट्री में काम करता था। ना बारात आई, ना रस्म हुए, ना हाथों में मेंहदी लगी, बस एक जोड़ी कपड़े में संविदा को विदा कर दिया गया।
संविदा मन मसोस कर रह गई, अपने अरमानों को मन में दबाए ससुराल आ गई। खपरैल की छत डला मकान, वो भी जगह जगह से ढहने के लिए तैयार बैठा था। घूॅंघट की आड़ से घर का मुआयना करती संविदा गहरी साॅंस लेकर ऑंखों ही ऑंखों में भविष्य को सोचती रात गुजार रही थी।
“मेरे पास ज्यादा छुट्टी नहीं है, दो दिन की छुट्टी लेकर आया था। मैं तो शादी भी नहीं करना चाहता था, लेकिन मेरे जाने के बाद माॅं –बाबूको देखने वाला कोई चाहिए ना, इसलिए शादी कर ली।” शादी के दूसरे दिन ही शहर जाता मोहन उसे एक और दर्द दे गया था।
मोहन के जाते ही दरवाजा बंद कर उसने पहले खाट पर लेटी खाॅंसती सास की ओर देखा और फिर वही नीचे लाठी पकड़े बैठे ससुर की ओर नजर घुमाई। दोनों को देखकर उसे ममता हो आई थी। “उसका क्या है, वहाॅं भी तो यही करती आई थी”, सोच कर संविदा घर में जो थोड़े बहुत समान थे, उसे व्यवस्थित कर खाॅंसती सास को गर्म पानी में नमक मिला कर पिला आई और रात के बचे दूध से चाय बनाकर दोनों को पिला कर मोहन द्वारा दिए गए कुछ पैसों से राशन लेने निकलने लगी। फिर कुछ सोच कर रुक गई। उसने पैसे ससुर जी को बढ़ाते हुए राशन ले आने कहा,” इसी बहाने घर से निकलेंगे।”
उस समय मोहन को घर आते आते एक साल से भी अधिक समय हो गया और जब आया तो अपने घर को ही पहचान नहीं सका था। घर के बाहर एक छोटा सा कमरा बन गया था और संविदा उसमें गाॅंव के छोटे छोटे बच्चों को पढ़ा रही थी और घर के बगल वाली जमीन पर सब्जियाॅं लहलहा रहे थे। मोहन को देखते ही संविदा कमरे से बाहर निकल आई थी।
ना बिटवा ना, बच्चों के पढ़ाने के कोई पैसे नहीं लेती बहू, तू औरों के हाथों जो पैसे भेजता था ना और इन सब्जियों को गाॅंव में ही बेच कर सारे खर्चे पूरी करती है। बहू तो साक्षात लक्ष्मी है, अन्नपूर्णा है बिटवा। देख हम दोनों के पाॅंव भी कब्र से खींच लाई है। किसी जन्म के पुण्य कर्मों का फल है हमारी बहू, जिसे ईश्वर ने हमारा घर पवित्र करने भेजा है। सबके लिए चाय लेकर आती संविदा के पाॅंव यह सुनकर ठिठक गए थे। “किसी जन्म के कर्मों के दोष से ही ये हमारे घर पैदा हो गया।” माता पिता द्वारा कहे शब्द उसके कानों में गूंजने लगे थे।
वो दिन है और आज का दिन है, उस समय उसने जो थोड़ी बहुत जमीन थी, उसी पर मौसमी सब्जियाॅं उगा कर बाजार में बेचने के प्रेरित करती मोहन को शहर जाने से उसने रोक लिया था। कहते हैं ना समय हमेशा एक सा नहीं रहता है, धीरे धीरे कारोबार बढ़ा और संविदा इधर उधर पैसे खर्च ना करके मोहन को थोड़ी थोड़ी जमीन लेने कहती रही और अब कारोबार इतना बढ़ गया था कि उन जमीनों की देखभाल के लिए मजदूर रखने पड़ गए थे।
वही संविदा अपनी शादी को लेकर अपने अरमान कभी-कभी सास के सामने व्यक्त कर बैठती थी और आज सभी मिलकर उसके अरमान पूरे करने में इस तरह जुटे थे कि हर तरफ उसके संघर्ष की ही चर्चा हो रही थी और उसके मायके वाले उसकी शान शौकत देखकर रश्क कर रहे थे।
आरती झा आद्या
दिल्ली