बारिश का इश्क (भाग – 8 ) – आरती झा आद्या: Moral stories in hindi

“वर्तिका, आ जाओ नीचे, बारह बज गए हैं। टिकट नहीं मिलेगा।” संगीता थोड़ी देर में ही आवाज लगाने लगी। 

उसने धानी रंग की शर्ट और काले रंग की स्कर्ट डाले हुए थी और बहुत ही खूबसूरत लग रही थी। मैं पजामा कुर्ता डाले ही चल दी। चेहरे पर कोई रंग रोगन नहीं, यहाँ तक कि हमने चप्पल भी घर वाले डाले हुए थे। कहने का मतलब कि यूँ लग रहा था कि हम दोनों उठे और सीधा सिनेमा देखने निकल पड़े हो। यह सब बिना किसी प्लानिंग के हो रहा था।

“भाई रफूचक्कर ले चलो।” बाहर निकल कर संगीता ने रिक्शा बुलाया। सीधे लफ्जों में तो संगीता कुछ बोलती ही नहीं थी। 

रिक्शा वाला भी ये सुन उसका मुँह देखने लगा। 

दीदे फाड़ कर क्या देख रहे हो.. “चलो मैं बताती हूँ।” कहकर मेरा हाथ पकड़े रिक्शे पर चढ़ धम्म से बैठ गई।

 

एक बात बता, कहाँ जा रहे हैं हम लोग। कहाँ लगी है फिल्म और तूने मम्मी से झूठ क्यूँ बोला?” मैं रिक्शा पर बैठते ही धराधर सवाल दागने लगी थी।

रिक्शा वाले भाई, घुमा लो रिक्शा भाई। जहाँ से आए थे वही चलो। महारानी का आदेश है सच बताया जाए तो चल आंटी को सब सच सच बता देती हूँ कि उनकी सुपुत्री दिल लगा बैठी हैं और जिनसे लगाया है, उन्हें बोलने की हिम्मत नहीं कर सकी हैं। जमाना तो नेकी करने का रहा ही नहीं।” संगीता ने मुँह बनाते हुए कहा।

 

अच्छा ठीक है.. ठीक है.. नाराज क्यूँ होती है। जब देखो धमकी देती रहती है। लेकिन रफूचक्कर कहाँ आई है। इतनी पुरानी फिल्म है।” मैं हैरान परेशान सी उसे देखती हुई बोली। 

क्या प्रॉब्लम है तुम्हारी यार? बस बस यही दाएँ लेकर रोक दो रिक्शा।” पहले मुझसे फिर रिक्शेवाले से संगीता ने कहा। 

“ये बोलना था ना कशिश सिनेमा हॉल ले चलो।”

रिक्शेवाला हो हो करके हँस पड़ा। 

“पैसे चाहिए कि नहीं।” संगीता रिक्शेवाले को आँखें तरेर कर देखती हुई कहती है। 

“ठीक ही तो कह रहा था वो, तू सीधा भी तो कह सकती थी कि कशिश जाना है। बातों को घुमाने की क्या जरूरत पड़ी रहती है तुम्हें।” मैंने थोड़ी नाराजगी से संगीता से कहा। 

“तुमने ही तो कहा था कि मैं भावी कलक्टर हूँ तो अभी से ही घुमा फिरा कर बात करने की आदत डाल ले रही हूँ, समझी।” संगीता मेरी नाक पकड़ हिलाती हुई कहती है।

“चल जल्दी से टिकट ले।” मैंने संगीता से कहा। 

टिकट लेकर हम दोनों बाहर जाकर खाने की चीजें लेने लगी और इस चक्कर में हम अंदर लगभग दस मिनट देर से पहुँचे। 

“कहा था मैंने कि सिनेमा हॉल में अँधेरा हो जाएगा।” मैंने गुस्सा होते हुए कहा। 

टॉर्च की आधी अधूरी रौशनी में हम दोनों गिरते पड़ते खुद को सम्भालते किसी तरह जाकर बैठ गईं।

 

“देख ले.. तेरे खाने के चक्कर में मैं ऋषि कपूर की एंट्री नहीं देख सकी।” मैंने तुनकते हुए कहा। 

“बाजा ही बजा रहा होता है एंट्री वाले सीन में ना।” संगीता ने मुँह बिचकाते हुए कहा। 

“चुप कर और देख चुपचाप।” मैंने आसपास बैठे दर्शकों को ध्यान में रखते हुए फुसफुसा कर कहा।

 

“देख देख तेरे हीरो का उसका पिता गला दबा रहा है… जा ना बचा उसे।” हमारे आँखों के सामने पहला सीन आया और संगीता की बकबक भी। 

“देखने देगी तू.. कितना स्मार्ट और प्यारी सूरत है ना इसकी।” मैंने उसके कान में कहा। 

“हाँ भाई, तुम्हारी हर पसंद ऐसी ही होती है।” चिप्स का पैकेट चर्र की आवाज के साथ खोलती हुई और मेरे हाथ में पेप्सी की बोतल थामते हुए संगीता ने कहा। 

मैंने इस पर संगीता को कोई जवाब नहीं दिया और सिनेमा देखने में लीन हो गई और संगीता कचर कचर कर चिप्स खाने में लीन हो गई। 

“आई लव हिम सो मच।” सिनेमा के बढ़ते दृश्य के साथ मेरे उद्गार व्यक्त हुए। 

“हैं.. किसे.. किसकी याद आ गई।” मेरे हाथ में चिकोटी काटती हुई संगीता ने पूछा। 

“दे चिप्स इधर”.. बोल कर उसके हाथ से पैकेट ले लिया मैंने। 

उसने दूसरा पैकेट निकाला और उसका चर्र और कचर कचर शुरु हो गया। पता नहीं उसे क्या मजा आ रहा था ऐसे खाने में जबकि वो हमेशा से काफी सलीकेदार रही थी। 

“क्या है.. तू बंदरिया की तरह क्यूँ टुंग रही है? ये कोई तरीका है।” उसकी इन हरकतों के कारण मैं झल्ला उठी थी।

“इधर ला.. इसे इस तरह पीते हैं तो पीने का फील आता है।” बोल कर उसने पेप्सी का बोतल मेरे हाथ से लिया और सुर्र सुर्र की आवाज के साथ पीना शुरु किया। 

“क्या मज़ाक लगा रखा है तूने, नहीं देखनी है तो चल घर।” मैं संगीता से बेहद गुस्सा हो गई। 

“अच्छा अच्छा, सॉरी सॉरी। ये ले पी, ठंडी हो जा, तेरा हीरो लड़की बनने वाला है।” संगीता को सिनेमा देखते हुए मजाक ही सूझ रहा था। 

“तेरी छुक छुक कब आगे बढ़ेगी डार्लिंग।” रेलगाड़ी में गाने का दृश्य आते ही संगीता फिर शुरु हो गई। 

मैंने तेजी से घुमते हुए उसे देखा तो मेरा हाथ बगल में बैठे इंसान से टकरा और उससे हाथ टकराना एक जाना पहचाना अहसास जगा गया। याद दिला गया हमारे स्कूल का विदाई समारोह, जब मेरे बगल से गुजरते हुए “उसका” हाथ मेरे हाथ से टकरा गया था और वो अहसास अचानक अभी सजीव हो गया था। एक मीठी सिहरन से मेरा मन और हृदय भींग गया। लज्जा की ज्वाला से मेरा चेहरा जलने लगा। इच्छा हो रही थी सिनेमा हॉल की मद्धिम मद्धिम रूपहले प्रकाश में बगल में बैठे उस इंसान का चेहरा देखूॅं, लेकिन हिम्मत नहीं हो रही थी। दिल और दिमाग में भयंकर द्वन्द्व चल रहा था। मन में आया कि संगीता को बताऊँ, लेकिन उसका कोई भरोसा नहीं था.. उचक उचक कर देखने की कोशिश करती। नहीं होता तो वही से बैठे बैठे हैलो मिस्टर कर सवाल जवाब शुरू कर देती। इसलिए उसे बताना भी उचित नहीं लगा। मैं पर्दे पर नजरें गड़ाए रखने का उपक्रम करती कनखियों से “उसे” देखने की कोशिश कर रही थी। मुझे उस समय ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वो भी मुझे आँख फाड़ कर देखने की कोशिश कर रहा है। ऐसा महसूस होते ही मैं पसीने पसीने हो गई और इन्टरवल का इंतजार करने लगी। सिनेमा के सारे दृश्य मेरी भावनाओं के सामने धूमिल होने लगे थे। क्या चल रहा है क्या नहीं.. कुछ पता नहीं चल रहा था। उस समय मेरी बिल्कुल शून्य सी स्थिति हो गई थी। बोलते बोलते वर्तिका चुप हो गई मानो की उस शून्य सी स्थिति में फिर से पहुँच गई हो।

“मम्मी, आ जाओ ना वापस। हम लोग मिल जुल कर फिर से रफूचक्कर देख लेंगे।” मेरे द्वारा बनी कोल्ड कॉफी भी हाजिर होगी, पर अभी प्लीज प्लीज सिर्फ कहानी सुनाओ ना।” वर्तिका को चुप होते देख सौम्या बिना एक पल गंवाए बोलने लगी।

मेरा मन विचलित हो उठा था। इच्छा हो रही थी कि अगर वो सामने हो तो अभी ही दिल की सारी बातें जुबान पर ले आऊँ। शायद सिनेमा का नशा सिर पर सवार हो गया था। लग रहा था जैसे घड़ी की सुइओं को किसी ने बाँध दिया हो। जितना ही मैं इंटरवल की प्रतीक्षा में थी, घड़ी उतनी ही कछुए की चाल से चल रही थी, धीरे धीरे सरकती हुई मुझे चिढ़ा रही थी। 

“आज भी ये फिल्म मजेदार लगती है।” किसी दृश्य को देखती हुई संगीता ने मेरे कान में कहा। 

आं.. हाँ.. मैं खुद के जज्बातों के बवंडर में खोई इतना ही बोल सकी। 

“क्या हुआ, तुम्हारी तबियत तो ठीक है ना। तुझे प्यास तो नहीं लगी है।” पानी का बोतल मेरी ओर बढ़ाती संगीता परेशान हो उठी। 

हाँ.. ठीक हूँ.. थोड़ी गर्मी हो रही है.. मैंने कहा। 

“क्यूँ एयर कंडीशनर नहीं लगा था क्या?” सौम्या वर्तिका के साड़ी के पल्लू से खेलती उसके गोद में हाथ रखे हुए पूछती है। 

सौम्या का सवाल सुनकर वर्तिका उन दिनों की याद में खोई कह रही थी, “उस समय तुम लोग वाले चोंचले नहीं थे।” हमलोग प्रकृति के सानिध्य में रहने वाले इंसान थे। हमारे लिए इतना ही काफी था कि सिनेमा जाने की आज्ञा मिल जाए। उत्सव सा माहौल हो जाता था, सिनेमा देखने जाने से पहले और आने के कई दिन बाद तक मन गुदगुदाता रहता था।” 

“अच्छा, फिर आगे की बताओ ना” सौम्या कहती है। 

मैं खुद को शांत करती हुई पानी पी रही थी कि इंटरवल हो गया और सारी लाइट्स पूरे जोर शोर से अपना प्रकाश बिखेरने लगी। मैंने अपना चेहरा संगीता की तरफ घुमा लिया। मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि बगल में बैठे इंसान को देखूॅं। अगर “वो” हुआ तो… कई बल्बों की रौशनी में नहाते ही मेरे अंदर इस विचार ने आकार लेना शुरू कर दिया। लेकिन “उसने” मुझे चेहरा घुमाते देख लिया था और मेरे मन में चल रहे विचारों के मंथन को समझ गया था। इसलिए हमें देखने के बाद भी वो उसी तरह बैठा रहा। 

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