आँटी प्लीज़ मेरी कुछ हेल्प कर दीजिए।”
आज थोड़ा समय निकाल कर पास के मॉल “ गौर सिटी मॉल” आयी थी।
मैंने पलट कर देखा तो क़रीब सात-आठ साल की होगी वह लड़की।उसके हाथ में सामानों की लिस्ट थी।
मैंने कहा-“ तुम्हारी मम्मा कहा है?? तुम अकेले तो आयी नहीं होगी???”
“ वो मेरी दादी बैठी हैं और वह थक गयी हैं ना आँटी इसलिए।”उसने इशारे से एक तरफ़ दिखाते हुए बताया।
मैंने पूछा-“ और तुम्हारी माँ ???”
“वो हमारे साथ नहीं बहुत दूर भगवान जी के साथ रहती है।”
दिल कचोट गया। ईश्वर के इस कारनामे से।
“अच्छा! लाओ दिखाओ लिस्ट, क्या-क्या लेना है तुम्हें।”
उसने बड़ी ही मासूमियत से अपने नन्हे हाथों से लिस्ट हमें पकड़ा दी।
मैंने एक ट्रॉली में उसका सामान और दूसरे ट्रॉली में अपना सामान रखते हुवे साथ-साथ शॉपिंग की।
मैं उसके व्यवहार से आश्चर्य चकित थी, उसने लिस्ट के अलावा कोई भी अन्य सामान नहीं लिया। मैंने उसे कुछ खिलौने भी दिलाने चाहें तो उसने बड़े ही प्यार से मना कर दिया कि…. मेरे पास आलरेडी है।
मैंने उससे पूछा-“ तुमने मुझसे ही क्यों कहा…तो वह बोली आपके ही सोसाइटी में मैं भी अपने पापा और दादी के साथ रहती हूँ। मैं आपको जानती हूँ, आप बहुत अच्छी कविता सुनाती है सोसाइटी के किसी भी फ़ंक्शन में।”
“ मैंने तो आपको नहीं देखा कभी।”मैं सोचने लगी … कितनी प्यारी मासूम सी बच्ची… कितनी समझदार है।किसी अननोन से मदद नहीं माँगी उसने।
सच! समय सब सिखा देता है।
ख़ैर! अब मिलते है उसकी दादी से….
जो कब से पेमेंट काउंटर के पास आराम से बैठ कर शीना, (नाम तो पूछना ही भूल गयी थी उसकी प्यार भरी बातों में आकर।)का इंतज़ार कर रही थी।
“हो गयी सारी शॉपिंग शीना बिटिया?” दादी बोली।
“ हाँ! इनसे मिलो, इन्ही आँटी ने शॉपिंग करवाई है।”
“धन्यवाद बेटा!”
“और दादी ये हमारे ही सोसाइटी में रहती है।”
“ कौन से टॉवर में बेटा?”
“ टॉवर इ।”मैंने कहा।
“ अरे इ में तो हम भी रहते हैं। दसवी मंज़िल पर।”
“ मैं पाँचवी। चलिए साथ ही चलते है तो फिर…”
“ नहीं अभी बेटा गाड़ी लेकर ड्राइवर को भेजा है वह ट्राफ़िक जाम में फँस गया होगा, इसलिए देर हो रही।”
कुछ दिन बाद….
आज सनडे था तो इत्मिनान से सुबह की चाय चढ़ाईं ही थी डोर बेल बजी।इतनी सुबह( १० बजे) कौन होगा???
“ नमस्ते आँटी!” दरवाज़े पर शीना थी।
“ अंदर आओ।”
“ मेरे पापा से मिलो आँटी।”
“ गुड मॉर्न…इंग… तुम…. और … यहाँ…”
“ आकाश… तुम….” इतने बरसों बाद आकाश को देख कर चौंक गयी मैं।
“ अंदर आने को नहीं कहोगी??? धरा।”
“ आप दोनों जानते हो एक दूसरे को???” शीना बोली।
“ हाँ! हमदोनो बचपन के दोस्त। बारहवीं तक साथ-साथ पढ़े हैं हम दोनों।” एकसाथ ही बोल पड़े हम दोनों।
“ तुम यहाँ कैसे और कब से???”मैंने पूछा
“” पहले चाय-वाय तो पिलाओ।”
“ ओह! सॉरी।”
मैं तुरंत रसोई में जाकर शीना के लिए कुछ कुकीज़ और चिप्स और अपने दोनों की चाय लेकर आ गयी।
“ इतनी जल्दी चाय बन गयी ??” आकाश ने पूछा।
“ मृदुल के जाने के इतने बरस बाद भी सुबह की चाय मुझसे “दो कप” ही बनती है।” मैंने उदास होते हुवे कहा।
कितने बरस बीत गए मृदुल को मेरे जीवन से गए।किंतु मैं तो आज भी उसी मोड़ पर खड़ी हूं, जहां वो मुझे छोड़ कर चला गया था।गहरे अवसाद में चली गई थी मैं।पर किसी के जाने से जीवन रुक नहीं जाता जीना तो पड़ता ही है।द शो मस्ट गो ऑन…”
“ सच कहा धरा तुमने…. जीना तो पड़ता ही है।
मीरा को शीना को मेरी गोद में देकर हमेशा के लिए चले जाना…. पर शीना की ख़ातिर… माँ की ख़ातिर…. जीना तो पड़ता ही है।”
कितना विचित्र संयोग था।मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वो अपनी नहीं मेरी व्यथा सुना रहा हो।
हम दोनों की एक जैसी ही कहानी है।तुम्हारी मीरा भी तुम्हारे जीवन से ऐसे ही अचानक चली गई जैसे मृदुल।”कुछ क्षण रुक कर मैंने कहा।
“ हाँ बेटा! तुम दोनों का दर्द एक है और मॉल में तुम्हारा मिलना ईश्वर का एक इशारा…. मेरा आशीर्वाद तुम दोनों के साथ है।” हम दोनों को पता ही नहीं चला की कब शीना वापस जाकर अपनी दादी को लेकर आ गयी थी।
संध्या सिन्हा