छाया अपनी आलीशान गाड़ी में बैठकर मंदिर जा रही थी। गाड़ी से उतर कर वह मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ी। तभी वह मंदिर के पास लगी दुकानों से फूल खरीदने के लिए रुक जाती है। ‘बहन जी पूजा के लिए फूल देना’ उसने फूल बेचने वाली साधारण सी महिला से कहा। लेकिन जैसे ही उसकी नजर फूल वाली पर पड़ती है वह चौंक जाती है अरे यह तो निशा है। उसे देखकर उसका मन अतीत की स्मृतियों में खो जाता है____
निशा शहर के एक बहुत बड़े सेठ जी की इकलौती बेटी थी। रूप रंग में भी बहुत सुंदर थी और छाया के पिताजी निशा के पिता के यहां काम करने वाले मामूली मुलाजिम थे। छाया और निशा हमउम्र थी। साथ-साथ खेल कूद कर बड़ी हुई थी। निशा छाया को अपने पुराने कपड़े और खिलौने दे दिया करती थी। क्योंकि निशा को तो रोज़ ही नए कपड़े और खिलौने उपलब्ध थे। छाया पुराने सामान और कपड़ों को भी बड़े चाव से रखती थी। कभी-कभी छाया सोचती थी कि कुछ लोग तो ” चांदी की चम्मच मुंह में लेकर ही पैदा होते है ” जैसे कि निशा। निशा को सेठ जी और सेठानी जी बहुत अपरंपार प्रेम करते थे। उसको हर वक्त चांदी के झूला पर झुलाया जाता था। छाया का भी बालमन था। कभी कभी होड कर ही जाता था।
एक दिन सेठ जी ने निशा का का रिश्ता एक बहुत बड़े घर में तय कर दिया। निशा इस रिश्ते से खुश नहीं थी। निशा कहीं और प्रेम जाल में उलझी हुई थी। वह लड़का एक आवारा लड़का था। कुछ भी काम नहीं करता था। उसने निशा को उसके रूप रंग और पिता की दौलत देखकर फंसाया था। पर निशा इस कदर पागल थी, उसके पीछे। उसे अपना अच्छा बुरा कुछ भी नहीं सूझ रहा था।
जीवन की सच्चाईयों से अनभिज्ञ थी निशा। पैसे की कद्र भी नहीं करती क्योंकि बाप के यहां अंधाधुंध पैसा देखा था। उसने एक बार भी विचार नहीं किया कि मैं निखट्टू आदमी के संग अपने जीवन का गुजारा कैसे करुंगी। कल को परिवार भी बढ़ेगा, बच्चों का खर्चा भी होगा। ऐसे में बढ़ते खर्चों का वहन कैसे होगा?
बस प्रेम का भूत सर पर था। माता-पिता, घर परिवार सब को ठौर मार निशा अपने सरफिरे आशिक के साथ प्रेम विवाह करना चाहती थी।
उसने अपने पिताजी से प्रेम के सामने बहुत जिद्द भी की परंतु उसके पिताजी की दूरदर्शी सोच के आगे उसकी एक न चली।
विवाह का दिन भी आ पहुंचा। सेठ जी ने बहुत भव्य शान शौकत की। कोठी को बड़े नायाव तरीके से सजाया गया। छाया भी निशा के दिए पुराने लहंगे में बहुत जँच रही थी। बाहुबली रथों पर चढ़कर बरात आ रही थी। चारों तरफ बहुत रौनक थी। तभी हल्ला मच गया कि निशा किसी ऐरे गैरे के संग भाग गई। सेठ जी की तो सारी इज्जत मिट्टी में मिल गई। सेठ जी के तो सीने में दर्द उठ गया और उन्हें फौरन अस्पताल ले जाया गया। उन को हार्ट अटैक आया था।
दूल्हे वालों को यह बहुत बेइज्जती लगी थी। उनको बड़ी जिल्लत महसूस हो रही थी। बारात बैरंग जाती तो बहुत बदनामी होती । लड़के के पिताजी स्वयं को ठगा सा महसूस कर रहे थे तभी उनकी नजर छाया पर पड़ती है। छाया को देखकर वह उसके पिताजी से तुरंत विवाह के लिए कहते हैं। छाया के पिताजी अवाक् रह जाते हैं। “लोग क्या कहेंगे ” छाया के पिताजी बोले। लेकिन रिश्तेदारों के समझाने पर वह छाया का विवाह निशा के होने वाले दूल्हे से कर देते हैं। किस्मत के खेल कैसे बदलते हैं। छाया एक बड़े घराने की बहू बन जाती है और राज राजती है। उसका पति भी बहुत अच्छे स्वभाव का है।
और उसकी सहेली निशा जो महलों की रौनक बनती आज सड़क की धूल फांक रही हैं। जब किस्मत के रंग बदलते हैं तब जीवन भी बदल जाता है। निशा ने यह नियति स्वयं बनाई थी।
नियति ने तो निशा को बहुत अवसर दिए थे। पर निशा ने अपनी भ्रष्ट बुद्धि के चलते अपनी किस्मत को बदनसीबी में बदल लिया। आज पेट में और गोद में भूखे बच्चों को लिपटायें अपनी जीवन नैया को चला रही निशा फूल बेचकर अपना पेट पाल रही है।
ऐसा कोई दिन नहीं जाता जिस दिन निशा को अपनी गलती का पश्चाताप ना होता हो। घर से भागकर हकीकत चार दिन में ही सामने आ गई। शराबी कबाबी उसका प्रेमी उसको रात-दिन मारता कूटता। उसकी रात दिन कोशिश यहीं थी निशा को देह व्यापार में धकेलना।
निशा के घर से भागने के बाद उसके पिता ने अस्पताल में ही दम तोड़ दिया। पर मरने से पहले वह अपनी सारी जायदाद बुजुर्ग आश्रम चैरिटेबल ट्रस्ट में दान कर गये। निशा की माँ वृद्ध आश्रम में ही अपने जीवन संध्या गुजारती रही।
घर से भागी हुई लड़कियाँ अपनी नियति खुद लिखती हैं। जो खुद अपने घर परिवार और समाज की परवाह नहीं करती। नियति भी उनकी उपेक्षा करती है।
अब इसे किस्मत का खेल कहा जाए या स्वयं का लिखा या खुदगर्जी। इस पर आप सभी सुधीजन अपनी प्रतिक्रिया बताइए।
#प्राची_अग्रवाल
खुर्जा उत्तर प्रदेश
#किस्मत_के_खेल शब्द पर आधारित कहानी