जन्मों का संबंध (भाग 3)- पुरुषोत्तम : hindi stories with moral

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इधर प्रकाश को भी जान पड़ रहा था कि सुरभि से बात नहीं करने का जो पाप उसने किया है यही उसके प्रायश्चित का अवसर है। जाने फिर कब मुलाकात हो। हो भी तो फिर किस पराये घर की बनकर। लेकिन सुरभि के सामने से तो उसकी अपराधी जुबान खुल न पायेगी। लिहाजा उसने भी कागज पर अपना अपराधबोध लिख कर रख दिया। अगली सुबह प्रेमियों की चाल में अलग चपलता थी, दोनों नहा-धो, तैयार हो देवी की मंदिर की ओर चल दिये। सुरभि ने साजी में पूजा के फूलों से एक कागज को ढक रखा था तो प्रकाश कुरते की जेब में। सुरभि जब देवी माँ को फूल अर्पित कर रही थी तो उसके चेहरे पर एक गजब आत्मविश्वास था, दृढ़ता थी। सभी मंदिरों की पूजा के बाद वह कुएँ के पास खड़ी थी और प्रकाश अब भी भगवान के दर पर अपनी पूजा में मगन था। सुरभि ने पड़ोस के बच्चे डुग्गू को मंदिर में देखा तो उसे बुलाकर एक कागज थमाते हुए कहा- “जाओ और मेरे साथ जो प्रकाश अंकल पूजा करने के लिए आए हैं उसे दे आ।”   बालक आज्ञाकारी था वह मंदिर के दरवाजे से निकला तो उसके हाथ में भी कागज था।

“क्या हुआ डुग्गू, अंकल को कागज देने को कहा था।?”

“हाँ बुआ वो तो दे दिया, ये तो अंकल ने दूसरा कागज दिया है तुम्हें देने को कहा है।“

“मुझे??”

“हाँ, बुआ। और चाॅकलेट खाने के लिए पैसे भी दिये, मैं नहीं ले रहा था लेकिन अंकल ने जिद करके दे ही दिए।”

“और अंकल क्या कर रहे थे।”

“बुआ बताउँगा तो तुम विश्वास नहीं करोगी वह शिवलिंग पकड़कर रो रहा था और शिवलिंग पर उसका आँसू टप-टप गिर रहा था, भला शिवलिंग पकड़कर कोई रोता है?”

“ठीक है डुग्गू तुम जाओ चाॅकलेट ले लो।”

“डुग्गू चहकता हुआ चाॅकलेट की दूकान की ओर भागा। सुरभि सोच रही थी भगवान भी न नहीं आते हैं तो किसी को अपना दूत बनाकर भेज देते हैं। और उसके लिए यह दूत बनकर आया था डुग्गू। सुरभि कुएँ के पीछे बड़े से बरगद के झूरमूट के पीछे जा कागज खोलकर पढ़ने लगी।

“सुरभि, मैं बहुत गंदा लड़का हूँ, बहुत घमंडी हूँ। मैं जानता हूँ मेरा यह अपराध क्षमा के काबिल नहीं है मैं कितना गुजरा हुआ हूँ, तुम इतने दिन मेरे लल्ला के लिए भाभी की सेवा की, माँ-बाबुजी की सेवा की और मैं मुँह में मेढ़क दबाये रहा। मैं इतना भी न समझ सका कि कोई अपनी बड़ी बहन के बिछोह में कुछ बोल दे तो उसे दिल से लगाकर नहीं रखना चाहिए। लेकिन ईश्वर जानता है कि मैं तुम्हें कभी भूल नहीं पाउँगा, हो सके तो मुझे क्षमा कर देना। मुझे तुमसे नजर मिलाने का भी हक नहीं। तुम्हारा प्रकाश।” सुरभि ने एक बार फिर पढ़ा- ‘तुम्हारा प्रकाश’। फिर होठों से बुदबुदायी “अनाड़ी कहींका।”

थोड़ी देर में उसने किशोरवय प्रकाश को मंदिर से निकलते हुए देखा, उसे देखकर ही लग रहा था कि यह आदमी कहीं से बहुत रोकर, थक हार कर, अपना सबकुछ लुट-पिटाकर आ रहा है। होंठ सुखे हुए बाल खड़े और कपसता हुआ चेहरा। उसकी रोनी सुरत देखकर सुरभि ने मन-ही-मन में सोंचा अब मुझे ही कुछ करना होगा।

सुरभि के घर में मेहमान आ गये हैं, मेहमानों ने चाय नाश्ता कर लिया है अब लड़की देखने की बारी है। तभी मेहमानों में से किसी न मगही पान की फारमाईश कर दी। सारिका के पिताजी को मेहमानों में व्यस्त देखकर माँ ने पड़ोसी को आवाज देते हुए कहा- “अरे छोटकी, डुग्गू को जरा भेजना तो, मेहमानों के लिए पान मंगवाना है।” इतना कहकर वह सुरभि को तैयार कराने के लिए चल दी। और जैसे ही सुरभि के कमरे में दाखिल हुई तो सुरभि ने माँ के पैरों को कसकर पकड़ लिया और पैरों से लगके बिलख कर रोने लगी। उसके आँसू उसकी ही माँ के पैरों को भीगोंने लगे। माँ ने पूछा- “क्या हुआ बेटी अबतक तैयार नहीं हुई। और रो क्यों रही है कोई बात हो गई क्या?”

डुग्गू तभी दाखिल हुआ- “बड़ी मम्मी, जल्दी बताओ क्या लाना है, मुझे खेलने जाना है। और ये दीदी क्यों रो रही है, पहले तो प्रकाश अंकल मंदिर में रो रहे थे और अब ये दीदी रो रही है।”

ममता चैकन्नी हुई। प्रेम अंधा होता है लेकिन ममता चैकस। प्रेम में आदमी अपने को नुकसान पहुँचा ले सकता है लेकिन जिससे ममता हो जाये उसे किसी भी नुकसान पहुँचने की संभावना से भी दूर रखने की कुव्वत आ जाती है।

“क्या कहा, प्रकाश मंदिर में रो रहा था मगर क्यों?”

“मैं क्या जानूँ बड़ी मम्मी, दीदी से ही पूछ लो।” डुग्गू ने मासूमियत से जवाब दिया।

मँ ने तेवर सख्त करते हुए बेटी से पूछा- “सुरभि क्या डुग्गू सही कह रहा है, प्रकाश को तुमने फिर कुछ भला-बुरा कहा? और वह मंदिर में क्यों रो रहा था, उसकी तो रोने की उमर नहीं है। तुम बताती हो कि मैं प्रकाश से ही पूछ लूँ।”

सुरभि रोते-रोते ही जवाब देती है- “नहीं मम्मी प्रकाश तो मुझसे बात तक नहीं करता है और न मैं उससे बात करती हूँ। और मम्मी मुझे जो चाहे वह सजा दे दो लेकिन मुझे लड़की दिखाने मत भेजो मम्मी, मैं ये शादी नहीं कर सकती।”

“शादी नहीं कर सकती, अच्छा भला लड़का है खानदानी है। क्या किसी ने कुछ कर तो नहीं दिया तुम्हें, कहीं प्रकाश ने तो नहीं।”

“कैसी बात करती हो मम्मी वह तो अनबोला का अनबोला है बिलकुल, और उसमें तो कुछ बोलने तक कि तो हिम्मत बहुत है? अगर वह बोल पाता तो मुझे तेरे पैरों में गिरकर रोने की जरूरत क्यों पड़ती।”

“इसका मतलब तुम्हारे और प्रकाश के बीच में कुछ है जो तुम मुझे नहीं बताना चाहती हो!”

सुरभि कुछ कहती नहीं है सिर्फ माँ से लिपटकर रोते रहती है। माँ सुरभि के चेहरे को अपने हाथों से उठाकर देखती है, सहमी-सी हिरण की आँखें।” बेटी के आँसू देखकर माँ का दिल पिघल गया।

“भले तुम कुछ न बताओ पर माँ कि आँखों से कुछ छिपी नहीं रह सकती है। हमें प्रकाश से कोई आपत्ति नहीं बेटा वह तो गऊ है बिलकुल। लेकिन आज हमें न पता चलता तो अनर्थ हो जाता। तभी मैं जानूँ हमेशा सिंहनी की तरह दहाड़ने वाली शेरनी आज हिरण कैसे हो चली है। कोई नहीं बेटा हम तुम्हारे और तुम्हारे प्रेम के विरोधी नहीं हैं। और हाँ तुम्हें लड़की दिखाने जाने की भी जरूरत नहीं, मैं तुम्हारे पिताजी से कहे देती हूँ कि वह मेहमानों को लौटादे कि अभी लड़की शादी के लिये तैयार नहीं है।”

पिता ने जब जाना कि दोनों के बीच अबतक बात भी नहीं हुई और दोनों एक दूसरे के लिए रो रहे थे तो उन्होंने दोनों के अव्यक्त प्रेम पर इतना ही कहा कि इनके बीच जरूर किसी जनम का संबंध रहा होगा। सुरभि की प्रेम की अर्जी स्वीकार कर ली गई थी।

–पुरुषोत्तम

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