पहचान – अनिला द्विवेदी तिवारी : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : रत्नप्रभा एक सामान्य सी शक्ल सूरत की लड़की थी। उसके पिता ने बहुत सारा दान-दहेज देकर एक अच्छा सा घर-परिवार और लड़का देखकर उसका विवाह करवा दिया। उसके बाद उसने अपना पूरा वक्त घर सम्हालने में लगा दिया। 

देखते ही देखते छः-सात वर्षों के भीतर उसको तीन बेटियाँ  पैदा हो गईं।

तीसरी बार के बाद ही उसने मना कर दिया कि अब वह बेटे का इंतजार नहीं करेगी। वह कोई बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं है। बेटा-बेटी दोनों ही बराबर हैं। वैसे  आजकल बेटे भी अपनी नौकरी और पढ़ाई के चलते माता-पिता से दूर ही रहते हैं। और आज के समय में एक दो बच्चों का लालन-पालन ही बड़ी मुश्किल से हो पाता है! चार-छः बच्चों के बारे में तो सोचना भी गुनाह है!

आखिर उसकी जिद के सामने सबने अपनी हार मान ली। जिन्होंने अब तक रट  लगाकर रखी थी कि एक बेटा भी हो जाता!

समय बीतता रहा, बेटियाँ भी अब काफी बड़ी हो गई थी। 

रत्नप्रभा के पति केंद्र सरकार के एक सरकारी निकाय में राजपत्रित अधिकारी थे लेकिन सोच उनकी भी दकियानूसी ही थी। उनके लिए भी पत्नी का अर्थ यही था कि  शादी के बाद औरत का वजूद सिर्फ पति-बच्चों और परिवार की देखरेख करना ही होता है। 

उसके आगे उसकी कोई निजी जिंदगी और करियर नहीं होता है! चाहे वह कितना ही पढ़ी लिखी क्यों ना हो!

अब किसी भी महिला के लिए जब उसका पति उसके सपने उसके करियर के बारे में नहीं सोचेगा तब अन्य किसी से अपेक्षा करना तो व्यर्थ ही है।

कुछ ही दिनों में पति के जो दो-तीन भाई थे वे विवाह करके एक ही छत के नीचे अलग रहने लगे। रत्नप्रभा के हिस्से में बूढ़े सास-ससुर भी आ गए। 

एक दिन पति ने अपना निजी घर लेने की बात कही और साथ में यह भी असमर्थता व्यक्त की, कि इतने पैसे भी बचत में नहीं हैं। तब रत्नप्रभा ने अपने मायके से मिले पच्चीस-तीस तोले सोने के जेवर अपने पति को सौंप दिए कि इन्हें बेंचकर मकान खरीद लो।

पति ने पहले तो मना किया परन्तु फिर कोई अन्य विकल्प ना होने के कारण उसने रत्नप्रभा के जेवर बेचकर और कुछ अपनी जमा पूंजी से मकान खरीद लिया।

लेकिन इतने त्याग के बाद भी रत्नप्रभा की इज्जत वही आम महिला वाली ही थी। सास, ससुर, देवर, पति जिनकी सेवा में दिन रात जुटी रहती थी, उसके अहसानों को भी सब भुलाए बैठे थे।

वहीं देवरानियां बड़े ऐशो आराम से रहती थीं लेकिन रत्नप्रभा आज भी दिन रात खटती रहती थी।

यह बात अब उसकी बड़ी होती बेटियों को अखर रही थी।

कुछ ही दिनों बाद रत्नप्रभा की सासू माँ भी चल बसीं। अब रह गए बीमार ससुर जिनकी देखभाल का जिम्मा इस तरह रत्नप्रभा के ऊपर आया कि अब वह अपने मायके भी एक दिन के लिए नहीं जा सकती थी। घंटे दो घंटे के लिए जाकर तुरंत वापस आना पड़ता था।

क्योंकि उसकी देवरानियाँ ससुर की जिम्मेदारी उठाने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थीं।

वे तो रत्नप्रभा को हमेशा कमतर ही आंकती थी क्योंकि रत्नप्रभा उनकी तरह खूबसूरत नहीं थी। शायद वे यह भी मानती थीं कि रत्नप्रभा पढ़ी-लिखी भी नहीं होगी क्योंकि उसने कभी अपनी पढ़ाई-लिखाई का भी कोई जिक्र नहीं किया था।

फिर एक दिन किसी पारिवारिक समारोह में रत्नप्रभा की कुछ सहेलियाँ जो ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर पदस्थ थीं, भी पहुँचीं और उन्होंने बातों ही बातों में कहा,,, “अरे यार रत्ना तूने तो, विश्वविद्यालय की टॉपर और गोल्ड मेडलिस्ट होकर अपनी सरकारी नौकरी छोड़ी, तूने एक गृहिणी का जीवन अपनाया है। आखिर अपनी पहचान खत्म करके तुम्हें क्या हासिल हुआ? हम तुम्हें सलाम करते हैं! 

भाई हमसे तो इतनी उदारता नहीं हो पाएगी। किसी के लिए भी हम अपने भविष्य से समझौता नहीं कर सकते!

लेकिन तू चाहे तो अभी भी अपनी पहचान पुनः स्थापित कर सकती है।

घर के सब लोगों ने जब  यह बातें सुनी तो सबके मुँह खुले के खुले ही रह गए।

परंतु रत्नप्रभा ने अपनी सहेलियों से कहा,,, “देखो सखियों इस धरती पर किसी को अपनी पहचान साबित करने का कोई फायदा नहीं है। यहाँ पर तो बाहरी आकर्षण और तामझाम ही लोगों की मुख्य पहचान है।

मैं अभी अपने बूढ़े और बीमार ससुर को बेसहारा छोड़कर अपनी पहचान स्थापित करने नहीं जा सकती।

मुझे यहाँ वैसे भी किसी को अपनी पहचान साबित नहीं करनी है। मैं उस ऊपर वाले को अपनी पहचान बताना चाहती हूँ।

फिर बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद रहा तो कभी पहचान भी बन जाएगी।

रत्नप्रभा की बात से वहाँ मौजूद सभी लोग काफी प्रभावित हुए। देवरानियाँ शर्म से पानी-पानी हुए जा रहीं थी।

समारोह समापन के बाद सभी ने आकर रत्नप्रभा से माफी मांगी और कहा दीदी अब से हम सब मिलकर हर जिम्मेदारी उठाएंगे। आप भी अपने अधूरे सपनों को पूरा कीजिए।

स्वरचित

©अनिला द्विवेदी तिवारी

जबलपुर मध्यप्रदेश

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