बेबी चांदनी (भाग 6) – सीमा वर्मा

मम्मी को थपकियाँ देकर सुलाने के साथ ही चांदनी भी सो गई थी।

अगले दिन सुबह तड़के ही उसकी नींद खुली थी।

उसे थोड़ी देर के लिए बैंक के काम से निकलना था फिर अस्पताल जा कर बड़े डॉक्टर साहब से माँ के बावत बात भी करनी है।

बस कल ही बम्बई से माँ की मेडिकल रिपोर्ट आनी है ,

” हे भगवान् सब ठीक रखना ” उपर देखती हुई चांदनी ने दोनों हाथ जोड़ लिए।

उसे तैयार होती देख कर माँ कितनी चाहत भरी निगाहों से देखती हुई कह उठी हैं,

” मैं तुझे चाँद-सितारे दुनिया भर की हर खुशी देना चाहती हूँ पर आज यह कैसी मजबूरी आ गयी है बेटा ,

‘ बस करिए मम्मी,

आप अब ज्यादा कुछ मत सोचिए मैं हूँ ना आपको कुछ नहीं होने दूंगी ‘

आप जल्दी ही ठीक होगीं फिर अभी तो मुझे रूपा की पूरी कहानी सुननी है।

इतना बोल अपनी आँख की कोर में आए आंसुओं को छिपाती कमरे के बाहर निकल गयी।

बाहर निकल  रज्जो को मम्मी के लिए जरूरी निर्देश दे कर ड्राइवर से गाड़ी की चाबी ले ली है।

एवंं खुद ड्राइव करती हुई अस्पताल जा पहुँची है।

वहाँ डॉक्टर अंकल उसी का इंतजार कर रहे थे।

यों तो चांदनी गाने वाली की बेटी है  लेकिन उसमें संस्कार कूट कर भरे थे। उसने झुक कर अंकल के पाँव छुए फिर सिर से लगाती हुई चेयर खींच कर बैठ गई थी।

” अंकल , बोलते हुए उसकी आवाज भर्रा  गई ।

मम्मी का सब ठीक तो होगा ना ? “

” तुम तो खुद डॉक्टर हो!

 फिर तुम घबरा रही हो ? “

“जिंदगी लेना-देना तो उस परम पिता परमेश्वर के हाथ में है उसका शुक्रिया अदा करो चांदनी कि टाइम पर बॉयोप्सी हो पाई “

‘ जी वही तो, अब इन्तज़ार के पल कठिन से कठिन तम होते जा रहे हैं  … ‘ उसने अंकल की बात बीच में ही थाम कर जबाब दिया।

फिर उसे अन्य आवश्यक कार्य निपटाने हैं ,

ऐसा कहती हुई उठ गयी।

अभी तो मम्मी से कितनी बातें जाननी हैं उसे।

घर पहुँच कर वह पर्दे हटा कर माँ के सामने जा खड़ी हुई।

उसकी पुकार पर माँ ने आंखें खोली ,

‘ आ गई चांदनी , मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रही हूँ ‘ ,

‘ जरा खिड़की के पर्दे तो हटा दे बेटा ताजी हवा महसूस किए कितने दिन हो गये ‘

‘ और आ बैठ जा मेरे पास कल की अधूरी कहानी नहीं सुननी तुम्हें ? ‘

खिड़की के पर्दे सरका कर वह वहीं मां के पास पलंग पर बैठ गई … थी…

जानती हो बेटा…

‘ वह दुनिया में प्रेम का मेरा सबसे पहला अनुभव था।

प्रेम का धर्म होता है विश्वास और सिर्फ़ विश्वास ही क्यों ?

अपने प्रेमी के सारे गुण अवगुण स्वीकार कर सारा प्यार दे कर के भी तो तृप्ति नहीं मिलती ‘

बहुत सुंदर माहौल था। मैं तेरे जन्म से धन्य हो उठी थी।

तेरे रूप में बड़ा ही मीठा प्रलोभन मिला था मुझको!

तुम्हें पूर्ण रूप से अपने विगत जीवन की छाया तक से दूर रखना चाहती थी।

इसी प्रयास में डूबी हुई मैं अपने मूल कर्म को भूलती हुई शिथिल होती जा रही थी।

जब कि हरिचरण मजुमदार मुझे पहले की तरह ही अपनी काम-वासना में लिप्त रखना चाहते । 

एक शाम जब वो मेरे गायन से मन बहलाने के लिए दिन ढ़ले आए थे,

मैं तुम्हें ही पढ़ना सिखा रही थी’

निरी प्रस्तर की प्रतिमा सी बनी रूपा जिसमेँ प्राण फूंकने की तमाम कोशिशों के बाबजूद,

हरिचरण उसमें पहली वाली गर्म सांसे  फूँकने में सफल नहीं हो पा रहे थे।

तब एक दिन आजिज हो कर ,

‘ तुम इतनी ठंडी क्यों हो गई हो रूपा ‘

‘ तुम हर वक्त इतने रोमांटिक कैसे रह लेते हो हरि ‘

“तभी खोकन की आहट सुन कर हरिचरण की गिरफ्त से छूटने के लिए उसे परे ढ़केल दिया।

इस प्रयास में हरिचरण निढ़ाल पलंग पर गिर पड़े ,

‘ बहुत हुआ रूपा अब तुम रहने दो तुमसे कुछ भी नहीं होगा मैं तो आजिज आ गया हूँ।

अब आर या पार का फैसला करना चाहता हूँ  ‘

‘ तुम मेरे नाम के नये-नये अर्थ खोजो ‘हरिचरण’ मैं तो बस एक स्त्री हूँ जो तुम्हारे घर को बसाने आई हूँ  ‘

‘ तुम सिर्फ़ एक माँ बन कर रह गई हो और इसी में संतुष्ट हो…

यही तुम्हारी समस्या है।

कहते हुए उठ कर पाँव में चप्पल पहनने लगा था।

‘ तुम ऐसे नहीं जा सकते हो हरिचरण ‘

फिर धीरे-धीरे यह सब बहुत ऐग्रेसिव  होता गया कर उन पर गुजरता गया।

आखिर एक दिन वही हुआ जो नहीं होना चाहिए  था ,

‘ रूपा यानी कि मैं,

इस रोज-रोज की इस रूठा- मटक्की से ऊब चुकी थी ‘

चांदनी स्पष्टता देख पा रही है उस रात की याद मम्मी की आंखों में सम्भवतः फिर से तैरने लगी है।

‘ मैं जाने को बेताब थी।

हरिचरण ने मुझको नहीं रोका ना ही मैं रुकी ‘

मुझे उससे कोई आशा नहीं थी।

नन्हीं सी तुम और रज्जो … को लिए मैं दहलीज पार कर गई थी वापसी का रास्ता भी बंद था ‘

उस भयंकर काल रात्री में

हरिचरण के जीवन से निकाले जाने के बाद कितनी असुरक्षित महसूस कर रही थी।

‘ चांदनी बोल पड़ी थी …

‘ पर मम्मी उन्हें आपको रोकना तो चाहिए था ना ? ‘

‘ नहीं खोकन ऐसा नहीं होता है ,

मर्द सिर्फ सुबह का भूला होता है… जिसे शाम को घर वापस लौटना होता ह ‘

लेकिन उस दिन मैं एकाकी नहीं थी तुम और रज्जो दोनों साथ थे।

कितने ही शहरों के चक्कर लगाती हुई मैं यहाँ ‘कलकत्ते’ शहर की खुली हवा में आ गयी ।

जाने को तो अम्मा के पास जा सकती थी। लेकिन वहाँ जाना मतलब फिर से उस दलदल में गिरने जैसा था।

उनसे तो मदद का एक धेला भी मुझे मंजूर नहीं था।

तब रज्जो की सिक्कों की पोटली काम आई थी

उसी से किराए का मकान ले करशुरुआत की थी।

तू तब कितनी छोटी थी।

तुझे रज्जो के हवाले कर मैं दिन-दिन भर अपनी ‘गायकी कला’ की बदौलत काम ढूंढ़ने के लिए स्टूडियो के चक्करें लगाया करती।

‘ सब किस्मत का खेल है ‘

वहीं मिले थे ‘तरुण सरकार ‘ वे बंगाल उधोग एसोसिएशन के सबसे कम उम्र के युवा अध्यक्ष थे विदेश से पढ़ाई पूरी करके हाल ही में लौटे थे।

स्टूडियो के एक समारोह में हुई भेंट के बाद उनके घर पर ही आयोजित ‘ गजल-संध्या’ में शामिल हुई थी ।

एक दिन शाम को उन्होंने फोन किया …

‘ शाम को तुम क्या कर रही हो ?

“कुछ नहीं यों ही ‘

‘ तो मेरे घर आ जाओ ‘

मैं मन ही मन समझ रही थी तरुण को मैं पसंद आ रही हूँ। पिछली मुलाकातों में वो अपनी निजी बातें घर-परिवार की कर रहा था।

यों तो मन में ऐसी कोई चाहत नहीं थी।

पर तरुण का व्यवहार शिष्ट और मृदु था।

सहारा मुझे भी चाहिए था।

इसलिए गायन के उसके अगले आमंत्रण का मान रखते हुए मैं साथ में तुम्हें और रज्जो को भी ले कर गयी थी।

मेरे साथ तुम्हें देख कर भी जब तरुण के चेहरे के भाव नहीं बदले।

तब मेरे मन में भी उनके प्रति सम्मान उपजा था।

बहुत भटकी थी अब और नहीं भटकना चाहती थी ,

फिर तरुण अपने काम में भी उतना ही डूबे रहते जितना कि मुझमें।

उन्हीं की मदद से तुम्हारा ऐडमिशन उस मंहगे और नामी-गिरामी बोर्डिंग स्कूल में करवा पाई थी।

मैं तुझे इस माहौल से बिल्कुल अलग-थलग वातावरण में रखना चाहती थी,

बेटा एक ऐसी जगह जहाँ इस सबकी की छाया भी तुझपर दूर-दूर तक नहीं पड़े।

तुम थी भी इतनी ज़हीन और हसीन बिल्कुल रुई के फाहे जैसी…

मम्मी बातें करती हुईं मुस्कुरा रही हैं।

‘ तरुण सरकार ‘ चांदनी के ‘ तरुण काकू’ ने मदद करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी

रास्ता थोड़ा टेढ़ा था और तरुण काकू इसमें बिल्कुल खड़े उतरे थे तभी तो मम्मी उनका आधार थाम कर अपने सपनों को पूरा कर पाईं थीं।

वह याद करती है… बहुत छोटी थी जब तब रेडियो पर गाना आ रहा था…

 ” ठंडी हवाएं लहरा के आए…

   रुत है जवां

   तुमको यहाँ, कैसे बुलाएं… “

दोनों हाथ कान पर रख कर चांदनी गुनगुनाने लगी …

मम्मी ने एकदम से झिड़क दिया था।

उस घटना के अगले ही हफ्ते आनन-फानन में मम्मी उसे ले कर सिलीगुड़ी जाने वाली ट्रेन में बैठ गयी थीं।

तब वह सिर्फ़ आठ बर्ष की थी।

उसका ऐडमीशन करवा कर ही मम्मी को चैन मिला था।

घर वापस लौटने समय मम्मी उसे सख्त हिदायत देती हुई ,

‘ देख खोखन ,

मैंने तुझसे बहुत उम्मीद पाल रखी हैं।

अब यहाँ से तुम्हारी आने वाली जिन्दगी तुम्हारे आचार-व्यवहार, मेहनत और लगन से प्रभावित होगी।

अब जो भी करना है तुम्हें ही करना है बेटा ,

मैं नहीं जानती आगे तुम्हारा साथ कहाँ तक दे पाउंगी ? ‘

रोती हुई मम्मी को छोड़ कर

सिस्टर लिसेरिया उसके नन्हें हांथों को थाम कर अंदर ले आई थीं।

उस दिन से आज तक …

इधर सुबह होते ही जब सूरज देवता अपने घोड़े पर निकलते हैं। उसकी ताल से ताल मिला कर चांदनी पूरे दिन उनसे टक्कर लेने की कोशिश करती रहती।

जैसे एक कम्पीटीशन सी चल रही हो दोनों में ना कभी देवता थके और ना ही चांदनी ने हार मानी है।

पूरे स्टूडेंट लाइफ में ‘ चित्रा’ और ‘आरती’ यही उसकी बेस्ट फ्रेंड रही हैं।

चांदनी का अधिकतर समय अपने दोस्तों के बीच और पढ़ाई में बीतता है।

वो उन्हीं के साथ ज्यादा खुश और कम्फर्टेबल रहती है

अगला भाग

बेबी चांदनी (भाग 6) – सीमा वर्मा

बेबी चांदनी (भाग 5) – सीमा वर्मा

   सीमा वर्मा / नोएडा

2 thoughts on “बेबी चांदनी (भाग 6) – सीमा वर्मा”

  1. यहां जो चौथा भाग है वही 5 भाग भी है प्लीज पांचवां भाग दीजिए वरना छठे भाग में अधूरी लग रही है।

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