“माॅं मैं कुछ दिनों के लिए मम्मी के पास जाना चाहती हूॅं।” रात में डिनर के समय विनया अंजना से कहती है। अब विनया लंच और डिनर जबरदस्ती ही सही अंजना के साथ ही करती है और धीरे धीरे संपदा भी दोनों का साथ देने लगी थी।
“मनीष से पूछ लेना।” अंजना संक्षिप्त उत्तर देकर चुप हो गई।
“पर माॅं”…
“मनीष की बुआ आ रही हैं और मनीष कभी नहीं चाहेगा कि ऐसे समय में तुम मायके जाओ, विनया।” आज शायद पहली बार अंजना ने विनया से एक पूरा वाक्य कहा था।
“और आप क्या चाहती हैं माॅं, मेरे लिए ये मायने रखता है। माॅं, आपने मुझे मेरे नाम से पुकारा।” विनया अंजना के मुॅंह से एक पूरा वाक्य सुनकर और साथ ही अपना नाम सुनकर खुश होकर कहती है। जिस तरह बारिश की बूंदों को देख मयूर पंख फैला प्रसन्नता व्यक्त करता है, उसी तरह अभी विनया का मन मयूर पंख फैला चुका था और उसकी खुशी उसके चेहरे पर दिख रही थी। उसका चेहरा रक्तिम आभा से दमकने लगा था।
“क्या सच में मैं इस लड़की के लिए इतनी खास हूॅं कि वो मेरे द्वारा अपना नाम सुनकर इस कदर खुश हो गई।” अंजना अवाक विनया के चेहरे पर छाए रक्तिम आभा को देख रही थी और अभी भी शंकित होकर सोच रही थी।
“जी माॅं, आप सच में हमारे लिए विशेष हैं। आप हैं तो ये घर है।” विनया अंजना को अवाक देख बोल पड़ी।
और अंजना हड़बड़ा गई, उसे हर बार विनया का एक नया रूप देखने मिल रहा था। अंजना के हड़बड़ाने का कारण था विनया का उसके मन के विचार को समझ लेना। अंजना के लिए विनया एक अजीब पहेली सी होती जा रही थी, जितना ही वो विनया को शक की दृष्टि से देखती थी, विनया उतनी ही निखर कर उसके सामने प्रस्तुत होती थी।
“हाॅं, भाभी आप जाइए, हो आइए।” अंजना की सोच में व्यवधान उत्पन्न करती हुई संपदा भाभी से कहती है।
“पर बेटा, मनीष”….अंजना अपनी सोच पर लगाम कसते हुए कहती है।
“माॅं, ये घर आपका है, इस घर की बड़ी आप हैं। अगर आप आदेश देंगी बिना वजह किसी को काटने का अधिकार नहीं है।” विनया अंजना में विश्वास दिखाती हुई कहती है।
“मुझे तो कोई ऐतराज नहीं है, लेकिन मनीष और उसके पापा”… अंजना अभी भी असमंजस में थी।
“मम्मी, कायदे से तो पापा से आपकी बात करनी चाहिए। लेकिन चलिए पापा से मैं ही पूछ लूॅंगी।” विनया के समझाने पर कि कुछ चीजें करने के लिए हमें झिझक छोड़ खुद को धक्का देना होता है, संपदा मुकुंद के सामने अपनी हर बात, हर विचार व्यक्त करने लगी थी, भले ही मुकुंद पहले हां हूं तक ही सीमित रहे, लेकिन संपदा के बार बार बोलते रहने पर अब हां हूं से ऊपर उठकर सिर उठाकर उसकी ओर देखते हुए उसकी बात पर “ठीक है” की प्रतिक्रिया देने लगे हैं लेकिन पत्नी को अभी भी बहनों के चश्मे से ही देख रहे हैं।
“आप निश्चित रहिए माॅं, मैं एक दिन में ही आ जाऊॅंगी, वैसे भी मुझे आर या पार करना है।” विनया अंजना से कहती हुई धीरे से बुदबुदाती है।
“आर या पार, मतलब”… विनया की धीमी आवाज के बावजूद अंजना तक उसकी आवाज पहुॅंच और अंजना झटके से पूछती है।
“मतलब..मतलब”… विनया उत्तर देने में अटकने लगी।
“कुछ नहीं मम्मी, जल्दी जल्दी डिनर खत्म कीजिए, बहू से महीनों बाद बातें कर रही हैं, इसका क्या अर्थ है रात्रि जागरण करें, ऐसे भी हूहू करती ठंड रात गहराने के संग संग बढ़ती जाएगी।” संपदा बात को सॅंभालती हुई हल्के मूड में कहती है।
“तुम दोनों कुछ ऐसा मत करना, जिससे घर में कलह हो। मैं थक गई हूॅं, इस बेवजह के रोज रोज के कलह से।” संपदा के कथन पर बिना ध्यान दिए बोलती हुई अंजना का चेहरा विवर्ण हो गया था।
कुछ ऐसा नहीं होगा माॅं, उन्हीं जख्मों के लिए मलहम खोजने जाना चाहती हूॅं मैं।” अपने बाएं हाथ को अंजना के बाएं हाथ पर रखती हुई विनया उसे आश्वस्त करती है।
“लेकिन बेटा, ऐसे में तुम्हारा घर ना उजड़”…आज तो अंजना भी विनया को झटके पर झटका दिए जा रही थी। पहले बहु, फिर विनया और अब बेटा…अंजना की संवेदनशीलता और हृदय में दबी छुपी कोमल भावनाओं को लेकर विनया हमेशा द्वंद्व में रहती थी लेकिन आज वो सारी भावनाएं दृष्टिगोचर हो रही थी, जिसे विनया अपने हृदय में कैद कर लेना चाहती थी, इसलिए वो जल्दी से उठकर किचन की ओर भागी और किचन से एक रसीद और कलम लिए बाहर आई।
“क्या बात है भाभी, प्लान समझाने वाली हैं क्या”… ऑंखें मटकाती हुई संपदा फुसफुसा कर कहती है।
“नहीं दीदी, अभी कोई प्लान है ही नहीं, अभी तो बस इस क्षण को जीना है, जिसमें मैं बहू, विनया और बेटा सब बन गई। ये डेट, ये दिन, इस समय को इस पन्ने पर उकेरना है दीदी और हर साल सेलिब्रेट करना है।” बोलती हुई विनया कुर्सी पर बैठ झुक कर उस रसीद पर लिखने लगी।
“भाभी आपने तो मम्मी को बेबी बना दिया।” संपदा विनया के क्रियाकलाप को देखकर हॅंसने लगी थी।
“आजकल जहाॅं सास बहू का एक क्षण के लिए बनाव नहीं होता है, वहाॅं ये लड़की सास को माॅं की तरह इज्जत देती उसके ऑंचल तले रहना चाहती है। नहीं तो इतने महीनों में मैंने जिस तरह इस हर पल ये अहसास कराया कि “तुम कुछ नहीं हो”, जिस तरह मैंने अपनी ननदों की दी हुई अग्नि से इसे जलाने की कोशिश करती रही, इसे तो मेरे विरोध में मनीष को और दूर कर देना चाहिए था। लेकिन मेरी, मेरी ननदों की और सबसे बड़ी बात मनीष के इतने रूखे व्यवहार, इतनी समस्याओं के बाद मेरे लिए मेरे साथ खड़ी रही, ये केवल एक बेटी ही कर सकती है। मेरी जिद्द, हताशा, चिड़चिड़े स्वभाव को जिस तरह इसने अपने ऑंचल में समेट मुझमें हर पल खुद के लिए विश्वास जगाती रही है, ऐसा तो सिर्फ और सिर्फ एक माॅं ही कर सकती है। मेरे कुछ पुण्यों का प्रतिफल ही है विनया, जिसमें मुझे माॅं और बेटी दोनों का रूप नजर आने लगा है।” विनया के चलते हाथों के साथ चेहरे पर छाई मधुरम मुस्कान को देख अंजना रोमांच से भर उठी थी।
“चलो, अब हर साल की एक पार्टी तो पक्की।” लिखने के बाद एक संतुष्टि के भाव से सिर उठाती विनया कहती है और मुग्ध भाव से निहारती अंजना की देख
“क्या हुआ माॅं” बोलती एक सुखद अनुभूति से भर उठी थी।
“नहीं कुछ नहीं बेटा।” अंजना फिर से सकपका गई थी।
“आज तो आपकी चाॅंदी है भाभी।” विनया के साथ चुहल करती संपदा टेबल पर से जूठे बर्तन समेटने लगी।
दिल ने अब सपना सजाने प्रारंभ कर दिए थे। कई सारी आकांक्षाओं ने, इच्छाओं ने सिर निकालना शुरू कर दिया था। कई ख्यालों भी अंगराई लेने लगे थे, ऐसे में विनया की ऑंखों में नींद कहाॅं से आती, बहुरंगी भविष्य के ताने बाने बनने में वो लगी थी। उसकी इच्छा हो रही थी बगल में सोए मनीष को झकझोर कर जगा कर अंजना के कहे शब्दों को दुहराए लेकिन वो जानती थी कि अगर गलती से उसने ऐसा किया तो मनीष की कड़वी बातें फुफकारते हुए बाहर आने लगेगी। इसलिए वो चुपचाप खुद में खोई, खुद से ही बातें कर खुश हो रही थी। खुद से बातें बातें करते भोर के तारे के साथ निंद्रा देवी से बातें करने लगी।
आज विनया की सुबह देर से हुई थी, भोर के तारे ने दिनकर तक विनया के मन के भाव पहुॅंचा दिए थे, जिससे आज सूरज भगवान भी कोहरे की ओट में छुप कर कालिमा ही बिखरा रहे थे और रविवार होने के कारण मनीष भी आराम के मूड में था तो कमरे में कोई खटर पटर की आवाज भी नहीं हुई। गहरी नींद से जगती विनया मोबाइल पर समय देखती हड़बड़ा कर उठ बैठी। “ओह आठ बज गए आज, माॅं भी क्या सोचेंगी, कल दो शब्द प्यार के क्या कह दिए, इसका तो दिमाग ही घूम गया।” हड़बड़ा कर पैरों में चप्पल डालती विनया सोचती है।
सुबह उठकर बालकनी में जाना, सामने लंबे चौड़े वृक्षों की पत्तियों को ओस की बूंदों के साथ अठखेलियां करते देखना। ठंडी हवा के बीच शॉल को अपने चारों ओर कस कर लपेट लेना। कोहरे के बीच हैडलाइट की मद्धिम रोशनी में गाड़ियों की आवाजाही देखना, रोज की इस दिनचर्या से विनया ऊबने लगती थी लेकिन आज सुनहरी किरणों का बालकनी में झाॅंकना, पत्तियों पर से इक्का दुक्का ओस की बूंदों को फिसलते देखना उसे भला भला सा लग रहा था। रात की खुमारी विनया के मन से उतरी नहीं थी। उसी खुमारी में वो किचन तक जा पहुंची, किचन में अंजना को देखते ही उसकी खुमारी उतर गई और उसे याद आया कि वो आठ बजे सोकर उठी है।
“माॅं, सॉरी वो आज नींद नहीं खुली, कल बहुत रास्त गए नींद आई थी, इसलिए”… अंजना को देखते ही विनया सफाई देने लगी।
“कोई बात नहीं, संपदा भी अभी सो रही है।” सब्जियाॅं काटती अंजना कहती है।
“दादा, तुम्हें खोज रहे थे, ये दे गए हैं।” वही बगल में रखा हुआ मैगजीन उठा कर अंजना विनया को देती हुई कहती है।
“वाह, मामा जी को याद था। उस दिन मैंने मैगजीन के लिए उनसे कहा था। मैं कमरे में रख कर आती हूॅं।” मैगजीन देखते ही विनया चहकती हुई कहती है।
“कितना कुछ सीखने मिलता है इस लड़की से। छोटी छोटी इच्छा पूरी होने पर कैसे चहक उठती है। एक हम लोग हैं, कहने को तो इस उम्र तक आते आते अनुभवी हो जाते हैं लेकिन तब भी बड़ी खुशियों की प्रतीक्षा में दिन रात बीता देते हैं, जाने किस तिमिर से घिरे रहते हैं हमलोग। दिवस का उज्ज्वल प्रकाश क्यों नहीं दिख पता है।” मैगजीन के पन्ने पलटती जाती हुई विनया को पीछे से देखती अंजना सोचती मुस्कुरा पड़ती है।
“ये बैग पैक क्यों कर रही हो, कहीं जा रही हो क्या।” लंच के बाद विनया को बैग में कपड़े रखते देख मनीष पूछता है।
“वो एक दो दिन के लिए मम्मी के पास जा रही हूॅं।” विनया मनीष की ओर देख कर कहती है।
कल बुआ आ रही हैं और तुम….
“भाभी, पापा कह रहे हैं कि आप हो आइए।” मनीष की बात पूरी होने से पहले संपदा आकर कहती है।
“आओगी कब तक”…मनीष नाराजगी भरे तेवर में पूछता है।
“दो तीन दिन में”… विनया संक्षिप्त उत्तर देती है।
“घर में अतिथि आ रहे हैं और घर के लोग घूमने जा रहे हैं। यही संस्कार मिला है तो क्या उम्मीद की जा सकती है।” ताना देते हुए मनीष क्रोधित हुआ कमरे से बाहर चला गया।
“आपके भैया पर “करेला, वो भी नीम चढ़ा” कहावत चरितार्थ होती है दीदी। मजाल है कभी भूले भटके भी बुआ से ऊपर उठकर कुछ सोच लें।” विनया कैब में बैठती हुई संपदा से कहती है।
“आप हैं ना जादू की छड़ी, वो दिन दूर नहीं जब भैया भी जादू की झप्पी के बिना नहीं रह सकेंगे।” संपदा एक ऑंख दबाती हुई कैब का दरवाजा बंद करती हुई कहती है।
संपदा की बात पर ऑंखों में आ गई चमक के साथ विनया बाई कर आगे बढ़ गई।
अगला भाग
अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 21) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi
अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 19)
अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 19) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi
बहुत सुंदर रचना
Bahot bahot Sundar rachana hai aapki. Agle bhag ka besabri se intezaar rehta hai. Good luck 🤞
Please ye story jaldi upload kiya kijiye
सुंदर रचना।बेसब्री से अगले अंक का इंतजार रहता है
Bhag 21 jaldi upload kijiye please
Bahut bahut bahut sunder rachna hai aapki. good luck maam 🤞
Agla bhag ka. Post karengi aap.. besabri se intezaar hai
Ultimate writing skills 👍💐
Amazing choice of words.
Next part plz
Nice story…
Bahut badhiya rachna .2 Ghar ke mahol ka antar .Har kirdar ki manodasha ka jivant ullekh .Aaj ki pide ko bahut sunder sandesh deti rachna .
Bahut badhiya rachna .2 Ghar ke mahol ka antar .Har kirdar ki manodasha ka jivant ullekh .Aaj ki pide ko bahut sunder sandesh deti rachna .
Bakwaas