हाँ, हो गयी हूँ मैं स्वार्थी – पूजा मणि : hindi stories with moral

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“घर के कागज़ात पर अपने हस्ताक्षर कर दो। हम दोनों भाईयों को बहुत सारे काम हैं।” एक कागज़ के टुकड़े को शिवा ने अपनी बहन धर्मिणी की दिखाया।

धर्मिनी अपने बड़े भाई का मुँह चुपचाप निहारती रही और अपने काम लग गयी।

“क्या हुआ? तुम्हारा मन बदल गया? यार धर्मिणी तुम्हारे विवाह करने योग्य राशि तो दादी ने पहले ही छोड़ रखी है और तुमने ही तो कहा था कि तुम वो घर मेरे और भैया के नाम पर कर दोगी।”

“कहा था लेकिन वो तब की बात थी और अब हालात बदल गये हैं।”

“अरे, यह क्यों नहीं कहती कि तुम्हारी नियत बदल गयी। तुम्हें लालच आ गया है। उस घर की क़ीमत जानकर तुम स्वार्थी हो गयी हो।”

“हाँ, हो गयी हूँ मैं स्वार्थी। आप नहीं है स्वार्थी, बस अकेली मैं ही हूँ।

अरे मैंने तो कागज़ात पर हस्ताक्षर करने से मना किया है और आपने तो अपनी मरती हुई दादी की दवाइयाँ लाने से इंकार कर दिया था।

आप यह कैसे भूल गये कि जब हमारे माँ-पापा गुजर गये तब उसी दादी ने हमें छत दिया था। वह आपके लिए सिर्फ घर होगा लेकिन मेरे लिए मंदिर है।”

“यह मीठी-मीठी बातें कर मुझे बहला मत। यह क्यों नहीं कहती कि तेरी नियत में ही खोट है।”

“वाह भैया…! आपने हमेशा चोरी और बेईमानी का चश्मा ही पहना है तो आपको दूसरे लोग भी वैसे ही नजर आयेंगे ना।

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गाँव के इस घर में दादी की यादें बसती हैं। यहाँ की सुनसान गलियों में आज भी दादी की आवाज गूँज रही है। घर की दीवारों में हमारी बचपन की हर सिसकी और हँसी छिपी हुई है। इसके हर कोने से दादी की बातें को सुना जा सकता है। 

यहाँ की सुबहें हमेशा एक नये आरंभ की भावना लेकर आती हैं, जैसे कि गुलाब की खुशबू हवा में एक नयी कहानी लिख रही हो।

उस घर में दादी माँ द्वारा सुनायी गयी कहानियाँ हमें एक अद्वितीय यात्रा पर ले जाती थीं, जहाँ प्रेम, समर्पण, और साहस का रंग सजीव हो जाता था।

इस घर की दीवारों से हमेशा यह सीखने को मिलता है कि पहाड़ जैसी मुसीबत भी सिर के ऊपर छत होने से अपना मुँह मोड़ लेती है।

प्यार और समर्पण से ही असली खुशियाँ मिलती हैं। यह घर सिर्फ एक इमारत नहीं है, बल्कि यह एक अनूठी कहानी का नायक भी है जो मेरे दिल में हमेशा बसा रहेगा।

इस घर में मैंने अपने गुड्डे और गुड़िया का विवाह रचाया था और दादी ने इस घर से मुझे विदा करने का सपना देखा था।

तो भैया सौ बातों की एक बात यह है कि ये घर किसी भी हाल में नहीं बिकेगा क्योंकि यह घर मेरे लिए मेरा मायका बनेगा।”

शिवा उसकी बातें सुनकर ठहाका लगाकर हँसने लगा।

“क्या बात कही है तुमने। बिल्कुल भावनात्मक भाषण था जो सीधे मेरे दिल पर लगा है।

हे देवी..! मायका माँ-बाप-भाई से होता है, खाली ईंटो से बने घर से नहीं।”

“सही कहा…! मेरा मायका सच्चे और सरल लोगों से घिरा रहेगा। जब कभी भी मैं यहाँ आऊँगी तब मेरे माथे पर आशीर्वाद के स्नेहिल हाथ होंगे।

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मेरा खोईचा भरने के लिए बड़े-बुजुर्ग होंगे। मैंने उस घर में वृद्धाश्रम बनाने का निर्णय कर लिया है। जहाँ दादी जैसी अभागी औरतों को सहारा मिलेगा और मेरी सहेली शोभना इसकी देखभाल करेगी।

मेरी शादी के लिए रखे हुए पैसे से इसका खर्च चलेगा।

इसलिए आप सब मेरी चिंता में परेशान मत होइये। जब दादी अपने जवान बेटे-बहू को खोने के बाद भी नहीं लड़खड़ायी तो मैं ज़िन्दगी के पथरीले रास्तों पर अकेले क्यों नहीं चल पाऊँगी।”

इस बार शिवा की आँखों में बेचैनी और गुस्सा दोनों साफ झलकने लगे।

“तुम हमारे साथ ऐसा नहीं कर सकती हो।”

“अरे भैया क्यों नहीं कर सकती हूँ। आज आप जवान हैं, अच्छा कमा रहे है। अपने बेटे को उच्च शिक्षा दे रहे हैं।

किताबी ज्ञान तो आप उसे दे ही रहे हैं, साथ ही साथ ज़िन्दगी का ज्ञान भी आप ने उसे दे दिया है।

आपका भविष्य दादी से ज्यादा ख़तरनाक होने वाला है।

जिस घर में आप पले-बढ़े, आज उसी को बेचने के लिए आप हर तिकड़म लगा रहे हैं। इसी तरह कल अगर आपका भी बेटा….? तो इसलिए मैं आपके कल को सुंदर बनाने की व्यवस्था कर रही हूँ।”

“चुप करो धर्मिणी।”

इस बार शिवा गुस्से से बिफ़र गया।

“क्यों चुप करूँ? मैंने आपकी अवहेलना से दादी को घुट-घुटकर मरते हुए देखा है। मैंने उसी दिन ठान लिया था कि मैं भविष्य में आप जैसे स्वार्थी भाई के साथ कोई संबंध नहीं रखूँगी और कल से मैं इसी शहर के एसडीएम के पद पर कार्य करूँगी।”

शिवा को समझ में आ गया था कि धर्मिणी सही है लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था, क्योंकि दादी को जो प्यार और सम्मान देना था उसने नहीं दिया लेकिन शायद एक ऐसा घर होना बहुत जरुरी है जहाँ उसका बुढ़ापा…!

©पूजा मणि

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