अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 10) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

“अच्छा दीदी, वो अखबार वाले अंकल का क्या सीन है। माॅं उन्हें दादाकहती हैं और अंकल उन्हें बहन।” कुछ देर चुप रहने के बाद विनया पूछती है।

“क्या है ना भाभी कि दो तीन साल पहले मम्मी सुबह सुबह सब्जी लेने नीचे गई थी और उन्हें चक्कर आ गया था। मम्मी ने हम सभी को आवाज दिया लेकिन किसी तक आवाज आई ही नहीं और मम्मी नीम बेहोशी की हालत में गिर पड़ी थी। संयोगवश उस दिन अखबार वाले अंकल भी उसी समय आए और उन्होंने ही मम्मी को सहारा दिया और ऊपर लेकर आए। बातों बातों में पता चला कि उनके बच्चे दूसरी जगह रहते हैं और वाइफ की तबियत खराब रहने के कारण अखबार बांट कर जब घर जाते हैं तब खाना वगैरह बनाते हैं। तब से मम्मी का नित्य का हो गया, उन्हें सुबह की चाय के साथ नाश्ता कराना। बुआ को तो ये सब एकदम पसंद नहीं है और पापा को भी। अरे ठीक है ना इंसानियत के नाते मदद कर दे कोई तो क्या माथे पर बिठा लेंगे उसे। बहन क्या बोल दिया कि ये तो रिश्ता ही गांठ कर बैठ गईं।” संपदा अपनी रौ में बोलती जा रही थी और विनया किसी तरह अपनी हॅंसी को पीने की चेष्टा कर रही थी क्योंकि संपदा का धाराप्रवाह हाथ चमका कर बोलना उसे अपनी दोनों बुआ सास की याद दिला रहा था।

आखिरकार विनया की हॅंसी रोकते रोकते भी नहीं रुक सकी, बैरक तोड़ कर गाड़ी में इधर से उधर दौड़ने लगी और संपदा चुप होकर विस्मय से अपनी भाभी को जोर जोर से हॅंसते हुए देखने लगी।

“भाभी, कैसे हॅंसती हैं आप, मैं तो डर ही गई। बुआ देख लेती ना तो बताती कि बहू बेटियों को किस तरह हॅंसना–बोलना चाहिए। फिर कभी ऐसे मत कीजिएगा, अच्छे घरों की लड़कियाॅं बुक्का फाड़ कर ना रोती अच्छी लगती हैं और ना हॅंसती हुई ही अच्छी लगती हैं।” संपदा अपनी बुआ के द्वारा बांटे गए ज्ञान से विनया को भी अवगत करा रही थी।

“अच्छा, लेकिन दोनों बुआ तो।” उसे याद हो आया एक दिन किसी बात पर दोनों बहनें गला फाड़ हॅंसी से घर की छत उड़ाने की नाकाम कोशिश कर रही थी और “इंसान हॅंसेगा नहीं तो जिएगा कैसे।” बोलते हुए विनया का असमंजस बरकरार था।

“भाभी हम अपनी तुलना बुआ से कैसे कर सकते हैं। बुआ अनुभवी हैं और बुआ कहती हैं कि हमारी उमर में वो लोग तो घर से भी नहीं निकलती थी। इतनी आजादी कहाॅं थी तब।” संपदा बुआ का पक्ष लेती हुई भर्त्सना भरे स्वर में कहती है।

“इसी का बदला इस घर से ले रही हैं वो दोनों।” विनया बाहर की ओर देखती बुदबुदाती है।

 

“आपने कुछ कहा क्या भाभी।” संपदा पूछती है।

“आं.. हाॅं, लेकिन सुलोचना बुआ तो ऐसी नहीं हैं।” विनया संपदा के सवाल पर खुद को संभालती हुई कहती है।

“बड़की बुआ कहती हैं वो बचपन से ही ऐसी हैं। अपने आप से मतलब रखने वाली। बताइए भाभी ऐसा भी कोई होता है क्या, कितनी गलत बात है ये।” संपदा सुलोचना बुआ के नाम पर भड़कती हुई बोली।

“शायद वो जियो और जीने दो वाले सिद्धांत पर विश्वास करती होंगी। आइए दीदी, आ गया मेरा मायका, स्वीट मायका।” विनया संपदा से कहती हुई उतरती है।

“मम्मी, ननद रानी आ गईं।” दीपिका दरवाजा खोलते ही संध्या को आवाज देती विनया को कस कर गले लगा लेती है।

“आओ बेटा अंदर आओ। ननद–भाभी मिलाप हो गया हो तो तुमदोनों भी अंदर आ जाओ।” संध्या संपदा के सिर पर हाथ फेरती हुई दीपिका और विनया से कहती है।

संपदा हतप्रभ सी दीपिका और विनया को गले मिले देखती हुई संध्या के कहने पर संध्या के साथ बैठक में आ गई। संपदा इस दृश्य को इस तरह देख रही थी जैसे ये सत्य नहीं अपितु चलचित्र में चल रहा कोई दृश्य हो। उसके मानस पटल पर अंजना द्वारा उसकी बुआ का गले लगाना और बुआ के द्वारा अंजना के हाथ को झटक देना स्मरणीय हो उठा। सिर्फ सुलोचना बुआ ही ऐसी थी, जो उसकी मम्मी से प्रसन्नचित्त होकर गले लगती थी। लेकिन दादी और दोनों बुआ के तानों से अंजना ने सुलोचना को भी आलिंगनबद्ध करना बंद कर दिया और शनै:–शनै: मनीष और वो खुद भी तो मम्मी से दूर होते चले गए। इतने दिनों में आज पहली बार उसे अपनी मम्मी के प्रति अपनी बुआ के द्वारा किए गए व्यवहार पर अफसोस हुआ।

“मेरी ननद रानी की ननद रानी आपको भी आगोश में समेट लूॅं क्या।” संपदा के विचारों पर विराम लगाती हुई दीपिका मुस्कुरा कर कहती है।

दीपिका के इस बेबाक कथन पर संपदा अचकचा कर संध्या का चेहरा देखने लगी। उसके घर में तो…ना चाहते हुए भी इस घर में चल रहे हॅंसी मजाक को देखते हुए संपदा अपने घर से तुलना करने लगती।

 

“क्या सोचने लगी आप।” कहती हुई दीपिका संपदा को गले से लगा लेती है।

“भाभी, आपलोग हमेशा इस तरह ही क्या”… संध्या और दीपिका के अंदर जाते ही संपदा विनया से सवाल करती है।

“हाॅं दीदी, जब तक जादू की झप्पी ना मिले, अपनों के साथ का मजा कहाॅं आता है।” विनया कहती है।

“अजीब हैं आपलोग भी। ऐसे में घर की बहू का मन बढ़ जाएगा। फिर पछताने से कुछ नहीं होगा भाभी।” फुसफुसाते हुए संपदा कहती है।

विनया को उसके विचारों पर हॅंसी आ गई थी। अपने घर की बहू के सामने ही वो बहुओं के बारे में विचार प्रकट कर रही थी। इस समय संपदा एक निरीह तोता ही तो लग रही थी, जिसे जो रटा दिया गया, बिना सोचे समझे बोल जाया करता है। संपदा का खुद का कोई विचार या कोई मंतव्य भी होगा, ऐसा इतनी देर में एक बार भी विनया को नहीं लगा। ये कुछ ऐसा ही था जैसे बीच में चमकता हुआ एक मणि है और उसके इर्द गिर्द काले स्याह अंधकारमय बादलों को इस तरह बिछा दिया गया है, जिससे मणि की रौशनी बाहर ना आ सके और मणि तक कोई पहुॅंच ना बना सके साथ ही मणि कभी भी अपने गुण को ना पहचान सके और बिना मकसद , बिना किसी लक्ष्य के एक कोने में पड़ा रहे, कुछ ऐसा ही संपदा के लिए विनया को महसूस हो रहा था। 

विनया संपदा के लिए खुद के अंदर एक छटपटाहट अनुभव करती है। उम्र में लगभग समान होने के बाद भी दोनों के विचार में कितना फर्क था। कभी–कभी इसका दोषी वहाॅं के वातावरण और परिस्थिति को ठहराया जाता है और कभी–कभी हम इतने ढल जाते हैं कि बदलना ही नहीं चाहते। विनया संपदा को बताना चाहती थी वो जिस जमाने में जी रही है, वो उसकी बुआ का समय था, अब बहुत कुछ बदल चुका है, उसे बुआ के वक्त के अनुसार नहीं, अपने युग के अनुसार ढल जाना चाहिए। लेकिन वो ये भी जानती थी कि कहने से या बताने से कुछ नहीं बदलना है जब तक कि संपदा खुद इन चीजों का अनुभव ना करे। विनया चाहती थी कि संपदा व्यवहारिक रूप से बदले। इसलिए उसने अपनी माॅं और भाभी को मदद करने के लिए कहा था और दोनों विनया की खुशी के लिए सहर्ष तैयार हो गई थी।

“क्या कह रही हैं दीदी, मन नहीं बढ़ता है। जादू की झप्पी देने वाले का मान बढ़ जाता है।” विनया हॅंस कर संपदा का हाथ अपने हाथ में लेती हुई कहती है।

“क्या बात है, आप दोनों की गुटर गूं चल ही रही है। आप दोनों की बातें तो खत्म ही नहीं हो रही हैं ऐसा लग रहा है जैसे कई जन्म के बिछड़े अब जाकर मिले हो। घर पर तो दिन भर आप दोनों की बातें चलती ही होंगी। अभी हमसे दो चार बातें कर लीजिए संपदा जी।” पास्ता और कॉफी टेबल पर रख कर संपदा के बगल में बैठती हुई दीपिका कहती है।

“बेटा संपदा, इसकी बात का बुरा मत मानना। हमारा घर तो इससे ही गुलजार रहता है।” संध्या दीपिका का स्वभाव बताती हुई संपदा से कहती है।

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10 thoughts on “अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 10) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi”

  1. Very nice story. Actually found such a story after very long time but the episode is so small and left unsatisfied. Kindly send along episode

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  2. बहुत ही बढ़िया लेख पढ़ने को मिला हैं,बहुत समय बाद। अंतरमन की भावनाओ को बहुत ही सुंदर शब्दो में लिखा गया हैं।

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