Moral stories in hindi : इस बात को लगभग 20 साल गुजर चुके हैं ।जब भी मैं याद करती हूं। मैं एकदम से व्यथित हो जाती हूं। शायद ही उस क्षड़ की व्यथा को मैं अपने शब्दों में बयां कर पाऊं शब्द कम पड़ रहे हैं जो मेरी स्थिति थी मेरी ही क्या मेरे साथ जितने भी सहेलियां थी उन सब की शायद मेरी जैसी ही स्थिति होगी,,,,,
मैंने b.ed करने के लिए फिरोजाबाद के एक कॉलेज में एडमिशन लिया था मैं तथा मेरे साथ बहुत सारी मेरी सहपाठी भी रोज मेरे गृह जनपद यानी इटावा से फिरोजाबाद के लिए रोज अप डाउन करते थे,,,,, मेरा एक महिला महाविद्यालय था इस महाविद्यालय में पढ़ाने के लिए दो शिक्षिकाए भी हमारे साथ इटावा से फिरोजाबाद के लिए रोज हमारे साथ जाया करती थी,,,,,,
कभी सुबह हम 5:40 पर हमारी ट्रेन होती या कभी 8:40 पर होती या कभी भी लेट लतीफ मिल जाए हम किसी भी ट्रेन में बैठ जाया करते,,,,, हमारे साथ कुछ छात्र भी जाया करते थे जो अन्य किसी महाविद्यालय से अपनी ट्रेनिंग ले रहे थे साथ में कुछ रोज सरकारी नौकरी करने वाले भी कर्मचारी हुआ करते थे,,,,,
कुल मिलाकर हम संख्या में बहुत ज्यादा हुआ करते थे और जब भी हम चढ़ते साथ में चढ़ते,,,,, लेकिन मेरा मन हमेशा ही खराब रहता क्योंकि मुझे कभी भी सफर सूट नहीं किया मुझे अजीब तरह की हमेशा से एलर्जी रही है पान गुटका बीड़ी सिगरेट तथा ट्रेन के पटरियों के घर्षण से आने वाली लोहे की बदबू से मुझे बहुत बुरा महसूस होता था ऐसा लगता था
जैसे अभी उल्टी सर दर्द रोज ही रहता था लेकिन मजबूरी थी कि मुझे अपनी डिग्री तो कंप्लीट करनी ही है पुराना दौर था लड़कियों कोदूसरे शहर में अकेला हॉस्टल में नहीं छोड़ने का रिवाज था इसलिए मैं मजबूर होकर ऐसी ही अवस्था में रोज आती और जाती थी,,,, मेरी सभी सहेलियों खुश रहती खाती पीती और मेरा मजाक भी बनाती यह तो बस चुपचाप बैठी रहती मैं हमेशा खिड़की वाली सीट पर ही बैठी थी,,,,,,
ट्रेन में रोज सफर करने कर्मचारी हमें चेहरे से पहचानने लगे थे और उसमें अपना सामान बेचने वाले कभी चने चाय या अन्य पदार्थ बेचते वह भी हमें जानने लगे थे कभी-कभी खेल करने वाले भी आते बच्चे अपना टोपी पहन कर अपनी टोपी को घुमाते तो देखकर हम हंसते और कभी-कभार उनको पैसे भी दे दिया करते थे,,,,
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ऐसे ही एक दिन की बात है। जाते हुए सर्दी के दिन थे फरवरी की गुलाबी ठंड होगी हम सब ने स्वेटर पहनना छोड़ दिया था हम सुबह-सुबह अपनी ट्रेन में बैठ गए मैं खिड़की वाली सीट की तरफ बैठी थी उसी के सामने वाली सीट पर हमारी शिक्षिकाए बैठी थी और एक दो आमने-सामने या इसी कंपार्टमेंट में आगे पीछे मेरी और सखी सहेलियां थी लिहाजा रोज के आने जाने वाले लोगों को यात्री छात्रों को बड़े आसानी से एक-दो घंटे के लिए अपनी सीट दे देते थे और बड़े अच्छे से व्यवहार करते थे,,,
तो हां उस दिन कुछ ऐसा अप्रत्याशित हुआ कि हम सभी के होश उड़ गए,, हुआ यह हमारी ट्रेन सुबह-सुबह जैसे ही इटावा से शिकोहाबाद पहुंची वहीं से एक महिला हमारी वाली कंपार्टमेंट में आईऔर आकर जहां हमारी सीट थी उसी के सामने नीचे जमीन पर बैठ गई महिला की उम्र ज्यादा ना थी सांवला सा रंग था
छोटे-छोटे से बाल थे लेकिन ठंड से कांप रही थी और अपने दोनों हाथों से अपने पूरे बदन को ढकने का प्रयास कर रही थी,,,,, लेकिन उसके बदन पर कुछ भी नहीं था शायद हम या और भी लोगों में से कोई भी उस कंपार्टमेंट में उस निर्वस्त्र महिला को देख नहीं पा रहा था शर्म से हमारी आंखें एक दूसरे को तो बचा ही रही थी हम इधर-उधर देख रहे थे,,,,,
मेरी उम्र उस समय लगभग 21-22 की रही होगी,,,, जैसा कि मैंने बताया मुझे कभी सफर सूट नहीं करता तो मुझे उल्टी जैसा फील हो रहा था तो मैं खिड़की की तरफ मुंह करे हुई थी लेकिन यह देखकर मैं बहुत असहज हो गयी थी अब क्या करूं,,,,,, मेरे बैग में भी मेरी दो-चार किताबें के अलावा एक टिफिन था उसके अलावा कोई भी ऐसा वस्त्र नहीं था जो मैं उसे महिला को देती,,,,, अगर देने में सक्षम हो सकते थे तो वो
यात्री थे जिनके बैगों में शायद कपड़े होंगे,,,,,, कंपार्टमेंट की दूसरी तरफ से आवाज आ रही थी जैसे उस महिला को कोई डांट रहा हो,,,,, दिमाग बिल्कुल शून्य पड़ गया था,,,,,, किसी पुरुष की डांटने की आवाज आई,,,,,, उस पुरुष का चेहरा मुझे नहीं दिख रहा था उनके पास एक अंगोछा था वह अंगोछा उस महिला की तरफ फेंकते हुए बोले इसको पहन ले,,,,,,, उस महिला ने उस अगौछा को बांध लिया,,,,, किसी दूसरे अन्य पुरुष ने उसको ऊपर पहनने के लिए बनियान फेंकी,,,,,,
उस महिला ने उस बनियान को पहन लिया,,,, अब उस अनदेखे पुरुष के लिए मेरे मन में कृतिका आ गई,,,, कंपार्टमेंट में तो और भी लोग थे लेकिन जिस पुरुष ने उस महिला की मदद की उसके बदन को ढकने के लिए कपड़े दे दिए उस मां के संस्कारों पर कितना भी गर्व किया जाए काम ही रहेगा,,,,,,
गाड़ी भी चल दी थी शिकोहाबाद स्टेशन से मक्खनपुर एक छोटी से स्टेशन पर गाड़ी रुकी वह महिला वहां उतर गई और सामने लगे पानी की टोटी से पानी पीने लगी मैं खिड़की की तरफ बैठी थी इसलिए मैं उस महिला को देख पा रही थी,,,, जब वह पानी पी रही थी तो मैं बस यह जानना चाहती थी कि यह महिला मानसिक रूप से विक्षिप्त है या बिल्कुल ठीक है।,,,,, लोग कह रहे थे कंपार्टमेंट में कि इन लोगों का मांगने का यह अजीब तरीका है।,,,,,’
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मैं उसको नहीं समझ पाई कि उसकी मनोस्थिति क्या थी,,,,,, जो भी हो लेकिन यह घटना अंदर तक हिला गई,,,,, गाड़ी मक्खनपुर स्टेशन से आगे बढ़ने लगी,,,, मेरे दिमाग में बस वही महिला घूम रही थी,,,,,, साथ में दिमाग में अनेक विचार भी आ रहे थे मैं सोच रही थी क्यों ना मैंने उसको अपना दुपट्टा दे दिया होता,,,,
कॉलेज यूनिफॉर्म के साथ मैंने पिनअप किया हुआ था यह गलती मुझसे कैसे हो गई,,,,, और उस अनजान व्यक्ति के प्रति सम्मान की भावना,,,,,, फिर मैंने सोचा पुराने परिधान कितने अच्छे होते थे जिसमें सभी के पास कुछ ना कुछ अतिरिक्त वस्त्र होता था,,,,,, जरूरत पड़ने पर इसका प्रयोग हो सकता है।,,,, जैसे पुरुषों के पास पगड़ी और गमछा,,,,, महिलाओं के पास बड़ी सी ओढ़नी,,,,,, जिससे किसी के भी बदन को पूरा ढका जा सकता,,,,,, क्योंकि स्त्री और पुरुष का सभ्य समाज में निर्वस्त्र होना बहुत ही शर्मिंदगी भर क्षण होता है।
उस दिन की यह घटना मुझे एक सबक दे गई कि कोई भी घटना अकस्मात ही आती है।,,, परिवर्तन समाज का नियम है जो पहनावा है उसमें तो बदलाव नहीं कर सकते हैं समय के साथ चलना ही पड़ेगा चाहे स्त्री हो या पुरुष लेकिन मैं अपने साथ एक अतिरिक्त वस्त्र जरूर रखती हूं चाहे मेरा स्टॉल हो या मेरी बड़ी सी चुन्नी हो,,,,,,
इस घटना से मुझे यह भी देखने को मिला जहां हम डरे और सहमे हुए थे,,,, क्योंकि स्त्रियां बहुत संवेदनशील होती हैं। कुछ संस्कारी मां के बेटे भी होते हैं। साहस के साथ अपने संस्कारों का स्त्री सम्मान मदद करके परिचय दे रहे होते हैं। मैंने उन दोनों पुरुषों का चेहरा नहीं देखा था सिर्फ आवाज सुनी थी मेरा हृदय उनके प्रति सम्मान से भर गया,,,,,,, समाज को ऐसे ही संस्कारी और साहसी बेटों की आवश्यकता है।,,,
आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार,,,
प्रतियोगिता हेतु
#शर्मिंदगी#
मंजू तिवारी गुड़गांव
स्वलिखित मौलिक रचना, सर्वाधिक सुरक्षित
बहुत ही अच्छी पोस्ट और आज भी ईमानदार पुरुष महिलाओं का पूरा सम्मान करते हैं बशर्ते आप भी उनका सम्मान करें 😊🙏