” देर नहीं होगी डाॅक्टर रेणु..,मैं बस अभी दस मिनट में तेरे अस्पताल पहुँचती हूँ…।” हँसते हुए श्रद्धा ने कहा, फ़ोन डिस्कनेक्ट करके उसे अपने हैंडबैग में रखा और गैराज से स्कूटी निकालकर रेणु से मिलने जनता अस्पताल चली गई।
श्रद्धा एक जर्नलिस्ट थी।’वृद्धावस्था की बीमारियाँ और उनके इलाज’ पर वह एक रिपोर्ट तैयार कर रही थी।इसी काम के लिये उसे जनता अस्पताल जा रही थी।डाॅक्टर रेणु जनता अस्पताल में काम करती थी और उसकी सहेली भी थी।इसीलिए उसने रेणु से सुबह के साढ़े दस बजे का अपाॅइंटमेंट फिक्स कर लिया था।
अस्पताल पहुँचते ही रास्ते में ही उसे रेणु मिल गई जो शायद जल्दी में थी। हाथ से इशारा करके पुरुष और महिला वार्ड का रास्ता बताया और उसके हाथ में आई कार्ड देते हुए बोली कि पुरुष वार्ड में बेड नंबर-6 से ज़रूर मिल लेना…बेचारे से मिलने कोई नहीं आता…और वह राउंड पर निकल गई।
श्रद्धा ने पहले महिला वार्ड में प्रवेश किया।सभी मरीजों से बात करके वह प्वाइंट्स नोट करती जा रही थी।फिर उसने पुरुष वार्ड में प्रवेश किया।सबसे बातें करके वह कुछ लिखती जा रही थी साथ ही वृद्धजनों की स्थिति देखकर उसे दुख भी हो रहा था।बेड नंबर 6 का मरीज चादर से अपना मुँह ढ़ाँपे हुए था।बात करने के उद्देश्य से उसने उनके चेहरे से चादर हटाई।मरीज जगा हुआ था।उसने दो-तीन प्रश्न पूछे लेकिन एक का भी जवाब न मिलने उसने गौर-से देखा तो वह चौंक पड़ी।” म…नो…..,आप…।” उसके मुँह-से निकल पड़ा।आप’ शब्द सुनकर वो भी चौंक पड़े, फिर श्रद्धा को पहचानकर उससे अपनी नज़रें चुराने लगे।
कुछ न कहने पर भी श्रद्धा ने उनकी सभी स्थितियों का अनुमान लगा लिया था।अपना काम पूरा करके वह रेणु के केबिन में आकर बैठ गई और टेबल पर रखा पेपरवेट घुमाने लगी।पेपरवेट के साथ-साथ वह भी अपने अतीत के गलियारे में घूमती जा रही थी।
जब से श्रद्धा ने होश संभाला, उसने मनोहर जी को ही अपने पिता के रूप में देखा था पर उसे हैरत होती जब पिता दीदी-भईया को प्यार करते और उससे किनारा कर लेते।पिता के प्यार को तरसता उसका कोमल मन तब आहत हो उठता था।दीदी भी भाई के साथ खेलती, उसके आते ही खेल बंद कर देती है क्यों?
समझदार होने पर एक दिन उसने माँ से अपने सारे क्यों? का उत्तर जान ही लिया।उसकी माँ ने बताया,” मनोहर जी तेरे जनक नहीं है।तेरे पिता तो एक ईमानदार सरकारी कर्मचारी थें।एक बार एक दबंग व्यक्ति ने अपनी फ़ाइल आगे बढ़ाने के लिये उन्हें रिश्वत देनी चाही।उन्होंने उसे भला-बुरा कहकर बाहर कर दिया और दो दिन बाद ही उसने तेरे पिता पर ट्रक चलवा दिया।
तब तू मुश्किल-से डेढ़ बरस की थी, मैं तो बदहवास-सी हो गई थी।कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ।मनोहर जी अपने काम के सिलसिले में तेरे पिता के पास आते रहते थें।उस वक्त तेरे पिता की पेंशन दिलाने में इन्होंने मेरी बहुत मदद की थी। एक दिन इन्होंने मुझसे कहा कि साल भर पहले एक बीमारी के दौरान मेरी पत्नी का स्वर्गवास हो गया है, मेरे दोनों बच्चे अनाथ हो गयें हैं।अगर हम दोनों विवाह कर लें तो दो अधूरे परिवार एक पूरा परिवार बन जायेगा।
मैं इन्हें ना नहीं कह सकी।विवाह के बाद इन्होंने कभी भी बच्चों में भेद नहीं किया था।मुझसे कहते थे कि काजल बिटिया की तरह ही हमारी श्रद्धा बेटी भी खूब पढ़ेगी। काजल और किशोर तो तेरे साथ खेलने के लिये आपस में झगड़ा भी करते थें।इनकी बड़ी बहन से बच्चों..।”
” कौन… विमला बुआ?” श्रद्धा ने आश्चर्य-से पूछा।
” हाँ..वही..एक दिन के लिये यहाँ आईं, उसी में इन्हें और बच्चों को न जाने क्या पट्टी बढ़ा गईं कि पूरा घर तितर-बितर हो गया।बच्चे मेरी सुनते नहीं और ये तुझे गले लगाते नहीं।वैसे ये दिल के बुरे हैं नहीं बेटी।”
” जानती हूँ माँ..।” श्रद्धा को अपने सवालों का जवाब मिल गया था।अब वह चुपचाप अपनी माँ का हाथ थामकर अपनी मंजिल की ओर बढ़ने लगी थी।
समय अपनी रफ़्तार से चल रहा था।काजल विवाह करके दूसरे शहर चली गई और किशोर इंटर करते ही अपने पिता के व्यवसाय में हाथ बँटाते हुए अपना ग्रेजुएशन पूरा करने लगा।
श्रद्धा जर्नलिज़्म में अपना कैरियर बनाना चाहती थी।उसने माँ से कहा कि बारहवीं के बाद वह बीए न करके पत्रकारिता के तीन वर्षीय कोर्स में एडमिशन लेना चाहती है।उसकी माँ सहर्ष तैयार हो गई।फ़ीस के लिये जब उन्होंने मनोहर जी से कहा तो वे भड़क गये, बोले,” ये सब फ़ालतू काम है।इधर-उधर भटकते रहना अच्छे घर की बेटियों को शोभा नहीं देता।चुपचाप बीए करे और शादी करके अपने घर चली जाये।”
श्रद्धा की माँ को मनोहर जी ऐसी उम्मीद नहीं थी।वह पति से इस बात पर बहस करना चाहती थी लेकिन श्रद्धा ने कहा,” माँ, मेरे लिये अपने संबंध खराब न करो.., कल दीपक मामा मिले थें।उनसे…।”
” जानती हूँ…भईया मना नहीं करेंगे लेकिन…।”
” लेकिन क्या माँ..तुम्हारी बेटी हूँ…आत्मसम्मान है मुझमें।नौकरी मिलते ही मामा के पैसे वापस हो जाएँगे।” हँसते हुए श्रद्धा ने कहा तो उसकी माँ की आँखों में आँसू आ गये।
काॅलेज़ में ही एक सेमिनार के दौरान श्रद्धा की मुलाकात शिशिर से हुई।शिशिर उससे एक साल सीनियर था लेकिन ब्रांच एक होने के कारण अक्सर ही दोनों की मुलाकात हो जाती थी।दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे थें और जीवन-साथी बनना चाहते थें।फ़ाइनल एग्ज़ाम से कुछ दिन पहले शिशिर ने श्रद्धा को अपने माता-पिता से मिलाया।दोनों को ही श्रद्धा बहुत पसंद आई।उन्होंने हँसते हुए श्रद्धा से कहा,” श्रद्धा बेटी…तुम्हें ज़ाॅब मिल जाये तो ले लेना.. शिशिर का इंतज़ार मत करना..इसका क्या…।”
” पापा..आप भी ना..।” फिर सब हँस पड़े।श्रद्धा ने ऐसा खुशहाल परिवार पहली बार देखा था।
फ़ाइनल का रिजल्ट आने से पहले ही श्रद्धा के पास दो न्यूज़ चैनल का ऑफ़र आ गया था।शिशिर से सलाह करके उसने एक को ओके कर दिया।
मनोहर जी घर में बहू ला चुके थें।अब श्रद्धा को विदा करना चाहते थें।अपने मित्र के बेटे को उन्होंने पसंद कर लिया था लेकिन जब श्रद्धा ने शिशिर से विवाह करने की बात कही तो उनके क्रोध की सीमा न रही।अपनी पसंद का कोर्स किया और अब विवाह में भी अपनी मरज़ी….।उन्होंने साफ़-साफ़ शब्दों में अपना फ़ैसला सुना दिया,” शिशिर से विवाह करने के बाद तुम्हारा इस घर से कोई संबंध नहीं रहेगा।”
श्रद्धा की माँ तो रोने ही लगी थी, पति के पैर पकड़कर बोली,” इतने कठोर तो मत बनिये…।”
महीने भर बाद श्रद्धा और शिशिर ने कोर्ट-मैरिज़ कर ली।माँ को बस आशीर्वाद देने की ही अनुमति मिली थी।इसके बाद श्रद्धा अपनी माँ से नहीं मिली।बस फ़ोन करके माँ का हालचाल पूछ लेती थी। बेटे के जन्मोत्सव पर खबर देने के बाद मनोहर जी के घर से कोई नहीं गया था।माँ की मृत्यु की खबर भी…..।और आज..इतने सालों बाद इस हाल में…।
” ये तू पेपरवेट क्यों घुमा रही है…।” रेणु की आवाज़ सुनकर श्रद्धा अचकचा गई।
” तेरा रिपोर्ट तैयार हो गया…अरे हाँ..बेड नंबर-6 से बात की..।” रेणु ने पूछा।
” आँ…हाँ…।अच्छा.., तू उन्हें स्पेशल- वार्ड में शिफ़्ट करा दे।मैं कल आकर मिलती हूँ।” कहकर श्रद्धा वहाँ से निकलने लगी कि रेणु ने उसे रोक लिया और धीरे-से पूछा,” वो तेरे कौन हैं?”
” पिता…।” वह तेजी-से बाहर चली गई।अतीत की दबी परतें खुलती हैं तो बहुत तकलीफ़ होती है।
रात को डाइनिंग टेबल पर श्रद्धा ने पिता के बारे में बताया।उसके ससुर बोले कि कल चलकर यहाँ ले आते हैं पर वह बोली, “अभी बीमार हैं, स्वस्थ होते ही ले आऊँगी।” कमरे में आकर शिशिर के सीने लगकर वह जी भर के रोई।
अपने काम से समय निकालकर श्रद्धा एक बार अस्पताल अवश्य चली जाती और पिता से भी मिल लेती।मनोहर जी के स्वास्थ्य में सुधार आ गया था परन्तु वो अपने व्यवहार पर इतने शर्मिंदा थें कि चाहकर भी बेटी से नज़रें नहीं मिला पा रहें थें।मगर एक दिन उन्होंने श्रद्धा का हाथ पकड़ लिया और फूट-फूटकर रोने लगे जैसे कह रहें हों, मैं बहुत शर्मिंदा हूँ..मुझे माफ़ कर दो..।श्रद्धा की आँखें भी नम थी।रोते-रोते उनके गले से निकले अस्पष्ट शब्दों को श्रद्धा ने समझ लिया था।उनके हाथों को अपने हाथ में लेते हुए वह बोली,” पापा…आप शर्मिंदा न होइये।जो कुछ हुआ, उसमें आपका कोई दोष नहीं था।कभी-कभी अनजाने में इंसान से कुछ गलतियाँ हो जाती हैं।हाँ..भाई की गलती है।उन्हें आपके साथ ऐसा सलूक नहीं करना चाहिए था।आपने तो उन्हें सब कुछ सौंप दिया और वे बेटे का फ़र्ज़ कैसे भूल गये? उन्हें तो मैं….।अब चलिये…आप मेरे साथ अपने नाती से मिलने चल रहें हैं।”
शिशिर के माता-पिता ने अपने समधी जी का खुले दिल से स्वागत किया।बारह वर्ष का नितिन अपने नाना के साथ खूब बातें करता, नानी के बारे में पूछता।मनोहर जी भी खुश होकर नितिन को सबकुछ बताते।
एक महीने के बाद श्रद्धा बोली,” पापा…, अब आपको घर चले जाना चाहिए…भईया-भाभी परेशान हो रहें होंगें।”
मनोहर जी कुछ नहीं बोले।अगले लिये श्रद्धा उन्हें लेकर घर गई तो किशोर के बेटे ने दरवाज़ा खोला।अपने दादा को देखकर वह लापरवाही-से बोला,” मैडम…, इस ओल्डमैन की जगह यहाँ नहीं…ओल्डएज़ होम….है।यू कैन…।” श्रद्धा ने अपने लड़खड़ाते पिता को संभाला और गुस्से-से किशोर को देखा जो सोफ़े पर बैठकर बेहयाई-से सबकुछ देख रहा था।वह पिता को लेकर घर आ गई।
समय अपने पंख लगाकर उड़ता रहा।श्रद्धा के बालों पर अब सफ़ेदी चढ़ आई थी।शिशिर अब ऑफिस में ही बैठकर काम करता था।फ़ील्ड वर्क करना छोड़ दिया था।नितिन भी एमबीए करने मुंबई चला गया था।
एक शाम श्रद्धा चाय पीते हुए शिशिर से कुछ बातें कर रही थी कि अचानक काॅलबेल बजी।शिशिर ने दरवाज़ा खोला, सामने लाचार-बीमार किशोर को पत्नी संग देखा तो दोनों चौंक पड़े।
किशोर हाथ जोड़कर बोला,” श्रद्धा…उस दिन के व्यवहार के लिये मैं बहुत शर्मिंदा हूँ।पापा का अपमान किया था, आज बेटों द्वारा तिरस्कृत होकर खुद सज़ा भुगत रहा हूँ।मैं उनसे माफ़ी माँगना…।” बात अधूरी रह गई जब उसने सामने की दीवार पर अपने पिता की तस्वीर पर माला चढ़ी देखी।
” हे भगवान!..ये कब हुआ..कैसे हुआ…अब मैं क्या करुँ .. कहाँ जाऊँ…।”
श्रद्धा बोली,” भाई…समय रहते पिता की अहमियत को समझ लेते, अपने तीखे शब्द-बाणों से उनका कलेजा छलनी न करते तो आज आपको यूँ शर्मिंदगी का बोझ उठाना न पड़ता।अब आप पछतावा करे या अपने कर्मों पर शर्मिंदा हों…पापा तो अब…।” कहते हुए उसने दोनों को बाहर का रास्ता दिखा दिया।
विभा गुप्ता
# शर्मिंदा स्वरचित