किस्मत का खेल – आशा झा सखी  : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : किस्मत कब चमक जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। कुछ न मिलते – मिलते भी एक दम भाग्य के सितारे बुलंद हो जाये और भाग्य का सितारा आभा बिखेरने को तैयार हो जाये। जिस चीज को पाने के लिए अथक प्रयास करते रहे और वो अप्राप्त रही, अचानक ही झोली में आ गिरे तो इसे किस्मत की मेहरबानी ही मानी जायेगी।

      कुछ ऐसा ही पूर्णिका के साथ भी हुआ। आज जैसे ही पूर्णिका दिनचर्या के कामों से निवृत होकर सोफे पर बैठी ही थी कि  उसका फोन बजने लगा। फोन उठाकर देखा,तो कोई लैंडलाइन नम्बर दिख रहा था। पता नहीं कौन है, के ख्याल से उसने जैसे ही “हेलो” कहा,वहाँ से एक भारी सी गंभीर आवाज सुनायी दी। क्या मैं पूर्णिका सारस्वत से बात कर रहा हूँ। मैं ज्ञान मंदिर इंटरनेशनल स्कूल से बोल रहा हूँ।

आपका चयन हमारे स्कूल में संस्कृत अध्यापिका के पद पर हो गया है। आप कल आकर अपने दस्तावेजों की एक प्रति जमा कर दे और परसों से आकर विद्यालय में  अध्यापनकार्य प्रारंभ कर दे।पूर्णिका तो प्रसन्नता के मारे कुछ बोल ही नहीं पा रही थी,बड़ी कठिनाई से “जी sir “ही बोल पायी। 

           जैसे ही फोन कटा वो आँख बंद कर सोचने लगी।वो कब से विद्यालयों में साक्षात्कार दे रही थी पर एक बार भी चयनित नहीं हो पायी थी।पर उस दिन वो अपनी परम प्रिय सखी कृतिका के साथ ही गयी थी। वहाँ पर विज्ञान अध्यापिका के लिए रिक्ति निकली थी। वो संस्कृत से स्नातकोत्तर संग प्रशिक्षित है।

तो उसके लिए नहीं थी जगह,पर अपनी सखी का साथ देने अवश्य चली गयी। विद्यालय के द्वार को देखकर ही वो अचंभित हो गयी। कितने विशाल परिसर में ये विद्यालय बना है। कितना शानदार है, काश! वो भी इस विद्यालय में अध्यापन कार्य कर पाती।

    अंदर जाकर पता करने पर साक्षात्कार दाताओं को एक बड़े हॉल में भेज दिया गया। अब अकेली पूर्णिका क्या करती। तो वो बाहर लगे एक पेड़ के नीचे बैठ गयी। तभी वहाँ एक अधेड़ उम्र के एक महानुभाव आकर बोले- आप यहाँ क्या कर रही हैं।साक्षात्कार देने वालों को वहाँ,”हॉल की ओर इशारा करते हुए” बैठने की व्यवस्था है। पूर्णिका- नहीं “sir” जी, मेरे लायक इस विद्यालय में जगह नहीं है।

मैं तो अपनी सखी के साथ आयी हूँ। उसका आज साक्षात्कार है। महानुभाव मुस्कुराते हुए- अच्छा जी।वैसे आपमें ऐसी क्या विशेष योग्यता है जो इतने बड़े विद्यालय में आपके लिए स्थान नहीं है। पूर्णिका– अरे अंकल जी, क्षमा कीजिये “sir”,तभी हाथ के इशारे से रोकते हुए वो बोले – sir नहीं अंकल ही बोलो।पूर्णिका- अंकल जी।क्या आप भी अपनी बेटी को साक्षात्कार दिलाने लाये हैं।

महानुभाव– हम्म्म्म,ऐसा ही समझ लो। हाँ तो तुम कुछ बता रही थी।पूर्णिका-जी यही कि यहाँ पर विज्ञान  शिक्षिका की जगह रिक्त है।उसी के लिए आवेदन आमंत्रित थे,और मैंने तो संस्कृत से स्नातकोत्तर किया है।वैसे मैं भी प्रयासरत हूँ नौकरी के लिए।बहुत जगह साक्षात्कार भी दिया, पर भाग्य की बात है कि अभी तक सफलता नहीं मिली।पर मुझे पूर्ण विश्वास है कि अति शीघ्र मुझे सफलता प्राप्त होगी।

महानुभाव उसके मस्तक पर स्नेहाशीष रखते हुए -ईश्वर ने चाहा तो अति शीघ्रस्य शीघ्रम।वैसे बेटा आपको कोई परेशानी न हो तो क्या हम लोग बात कर सकते हैं? दोनों का ही समय व्यतीत हो जाएगा। पूर्णिका- जी अंकल जी,क्यों नही।वैसे भी मैं अकेले बैठे- बैठे परेशान ही हो रही हूँ। महानुभाव- बेटा नाम क्या है आपका। जी पूर्णिका,उसने उत्तर दिया। अति सुंदर, अति विशिष्ट नाम है आपका।

रखने की कोई खास वजह रही होगी। सुनकर पूर्णिका मुस्कुरा उठी और बोली- वो क्या है अंकल जी, मेरे दो बड़े भाई हैं। घर में सबको  बेटी के बिना आँगन सूना -सूना लगता था। फिर मैं आ गयी तो सबको लगा परिवार पूर्ण हो गया। बस सबने मेरा नाम पूर्णिका रख दिया।

वाह अति सुंदर,वैसे बात तो सही है। बिना बेटियों के घर आँगन सूना- सूना ही रहता है।बेटियाँ ही है जो चिड़ियों सी चहकती हुई परिवार में जीवंतता का अनुभव कराती हैं। आपके पिताजी जी क्या करते हैं बेटा। जी वो बैंक में जॉब करते हैं।

माँ गृहणी हैं। दोनों बड़े भाई मुंबई और पूना में जॉब करते हैं। दादा- दादी अब नहीं हैं। बढ़िया,महानुभाव बोले। वैसे बेटा एक बात समझ नहीं आयी कि आपने सामान्य विषय होते हुए भी उच्च शिक्षा के लिए संस्कृत जैसा विषय क्यों लिया। अब तो इस विषय की कोई प्रसांगिकता नहीं है। आज कल तो अंग्रेजी भाषा का समय है।तभी तो कदाचित तुमको अभी तक कोई नौकरी नहीं मिली।

अंकल जी- संस्कृत ही तो मातृभाषा की जननी है। संस्कार और संस्कृति की पोषक है। मेरा विचार विलुप्त होती भाषा को सरलता से आने वाली पीढ़ी  में रोपित करने का था। इस तरह में अपने स्तर पर राष्ट्र निर्माण में सहयोग दे पाऊँ। अंग्रेजी भाषा तो विदेशी है।

अंग्रेजी भाषा का ज्ञान समय की माँग के अनुरूप अवश्य होना चाहिए। परन्तु विकास अपनी जड़ों से जुड़कर ही किया जा सकता है। ऐसा मेरा व्यक्तिगत विचार हैं। महानुभाव- विचार तो अति सुंदर है आपका। सहमत भी हूँ आपसे। चलो इसी बात पर तुम्हारा भाषा की पकड़ पर एक छोटा सा परीक्षण हो जाये। 

       तुम मुझे संस्कृत में शिक्षिका पद हेतु एक आवेदनपत्र लिख कर दिखाओ। यदि लिख पायी तभी मानूँगा की आपकी भाषा पर पकड़ है। आपने एक विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति हेतु इस विषय का चयन किया। अन्यथा सारी बातें मात्र शब्दों का खेल हैं। पूर्णिका ने अपने बैग से एक कॉपी और पेन निकाला और लिखना आरंभ किया।

तभी वो विद्यालय के पते पर जाकर दो पल रुकी, महानुभाव मुस्कुराकर बोले मान लो इसी विद्यालय के लिए लिखना है। पूर्णिका ने सिर हिला कर सहमति दी और लिखने में व्यस्त हो गयी। दस मिनिट के बाद उसने लिखा हुआ कागज उन महानुभाव की ओर बढ़ा दिया। वो उसे पढ़ते हुए बोले- आपकी हस्तलिपि तो अत्यंत सुंदर है। मान गया कि आपको भाषा का बहुत अच्छा ज्ञान है। अति शीघ्र ही आपकी नौकरी की मनोकामना पूर्ण होगी।

      तभी उन्होंने घड़ी पर नजर डाली और बोले- दो घण्टे व्यतीत हो गए, पता ही नहीं चला। साक्षात्कार समाप्त होने वाले होंगे। तभी पूर्णिका की नजर आती हुई कृतिका की ओर पड़ी और वो बोल पड़ी। मेरी सखी का तो हो गया है। अब मैं चलती हूँ। वैसे आपसे बात करके बहुत अच्छा लगा अंकल जी,नमस्ते।

दोनों सखियाँ हँसते- खिलखिलाते हुए घर की ओर चल पड़ी।पूर्णिका ने रास्ते में उससे साक्षात्कार के बारे में पूछा तो कृतिका यही बोली, मैंने तो अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ दिया है। आगे भाग्य के ऊपर हैं मिलना।वहाँ एक से बढ़कर एक विद्वान लोग आए थे। 

        प्रसन्नता के मारे उसने अपनी माँ को गोल-गोल घुमा दिया और बोली- माँ  मुझे नौकरी मिल गयी। माँ- किस विद्यालय में,कब दिया था साक्षात्कार। पूर्णिका-माँ जिस विद्यालय में कृतिका के साथ गयी थी न, उसी से प्रचार्य जी का अभी फोन आया है। वैसे मैंने साक्षात्कार तो नहीं दिया था,

पर फोन वही से आया है। कल सारे दस्तावेज के संग बुलाया है। अच्छा याद दिलाया,कृतिका से भी उसका परिणाम पूछ लूँ साथ ही ये खुशखबरी भी सुना दूँ। यदि उसका भी हो गया तो बहुत आनंद आयेगा। कृतिका को जैसे ही उसने फोन लगाया वो बोल पड़ी- अभी तुझे ही फोन करने वाली थी।

हम लोग जहाँ साक्षात्कार के लिए गए थे न। मेरा वहाँ चयन हो गया है। परसों से प्रारंभ करना है। पूर्णिका प्रसन्न होते हुए- बहुत -बहुत बधाई तुमको। वैसे एक और खुशखबरी सुनाऊँ। उस विद्यालय से मुझे भी फोन आया है संस्कृत शिक्षिका के लिए।कृतिका-क्या बात है।फिर तो दोनों साथ- साथ चला करेंगे।

वैसे तुमने कब और कहाँ दिया था साक्षात्कार। पूर्णिका- मैंने तो नहीं दिया पर ये एक चमत्कार है। या कदाचित उन अंकल जी की आशीष लग गयी,जो उन्होंने मुझे दी थी। जो भी हो,मैं तो इसे किस्मत मानूँगी कि जिसको पाने के लिए इतने समय से प्रयत्नशील थी, इतने साक्षात्कार देने पर नहीं मिली वो मात्र तेरे साथ जाने और उन अंकल जी की शुभाशीष से मिल गयी। उनके आशीर्वाद से मेरी किस्मत चमक गयी। 

समाप्त

 

आशा झा सखी

जबलपुर (मध्यप्रदेश)

#किस्मत 

 

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