Moral Stories in Hindi : दमयंती के वैवाहिक जीवन के सात साल हो गये थे। अब तक कोई संतान नहीं हुई थी। मन मातृत्व सुख से वंचित होने के कारण उदास रहा करता था। किसी भी काम में मन नहीं लगता था। सदा संतान की चिंता से चिंतित रहा करती थी। दिनों-दिन उसका स्वास्थ्य खराब हो रहा था।
एक दिन विवेक ने पूछा –” तुम इधर कुछ दिनों से क्यों खोयी- खोयी सी रहा करती हो? तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं लग रही है। ऐसा क्यों? मुझे बताओ भी।”
बिना कोई जवाब दिये वह रसोई घर में चाय बनाने चली गयी। सुबह-सुबह का समय था। करीब सात बजे होंगे। थोड़ी ही देर में चाय लेकर आई और उसकी बगल में चुपचाप बैठ गयी। उनके सामने चाय देती हुई बोली –” इंसान को केवल भोजन पानी की ही जरूरत नहीं होती है। उसके जीवन में और भी बहुत कुछ की आवश्यकता होती है, जो हमारे पास नहीं है। उसका अभाव मुझे बार-बार खटक रहा है।उसकी पूर्ति होगी भी या नहीं। भगवान ही जाने। हमारे वश की तो बात है ही नहीं।”
विवेक उदासी का कारण तो जानता ही था किन्तु अनजान की तरह उससे कहा –” अच्छा तो तुम अपनी आवश्यकताओं को बतलाओ। मैं अवश्य उन्हें पूरा कर दूंगा।”
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दमयंती धैर्य पूर्वक उनकी बातों को सुनती रही और चुपचाप बैठी रही।
दोनों चाय पी चुके थे। बातें करने के लिए उनके पास पूरा समय था लेकिन दमयंती का मन तो बातों से इतर किसी अन्य की तलाश में लगा हुआ था। देवी देवताओं की मन्नतें मांगते हुए बहुत समय बीत गये थे। अब वह कुछ निराश सी हो गयी थी।
विवेक उसे बार-बार समझाया करता–” संतान नहीं है तो क्या हुआ?
ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिनकी संतानें नहीं हैं, तो क्या वे सब अपनी चिंता नहीं करते? क्या वे अपने जीवन के बारे में नहीं सोचा करते? यदि तुमको बच्चे की बहुत जरूरत है तो दुनिया में अनेक ऐसे बच्चे होते हैं जिनके माता-पिता छोड़ चुके होते हैं, उनमें से किसी एक को भी मन माफिक चुनाव करके गोद ले सकती हो।”
लेकिन दमयंती ने उनकी बातों को सिरे से खारिज कर दिया।उनका ऐसा मानना है कि मेरी कोख से पैदा हुआ ही मेरा अपना हो सकता है।
जब कभी दमयंती के घर कोई पड़ोसन अपने नन्हें मुन्ने को अपने साथ लेकर आती तो दमयंती मन ही मन विचार किया करती कि ऐसे ही मेरे भी बच्चे होते तो मेरे आंगन भरे होते। चारों तरफ किलकारियां गूंजती।
एक दिन की बात है अपने बच्चों के साथ पड़ोसन दमयंती के घर आई थी। बच्चे आंगन और घर में घुम रहे थे। कभी कभी किसी सामान को इधर उधर बिखेर देते तो कभी किसी को तोड़ दिया करते। यह सब देखकर दमयंती मन ही मन जल भुन रही थी किन्तु कुछ कह नहीं पाती।
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जब पड़ोसन अपने बच्चों को लेकर चली गयी तो दमयंती ने बहुत ही राहत की सांस ली। उसने स्वयं से कहा –” पड़ोसन के बच्चे तो बहुत ही बिगड़ैल हैं। घर के सारे सामान को इधर उधर फेंक दिया और कुछ को तोड़ फोड़ दिया। कल आयेंगे तो वह उन्हें ऐसा करने से मना कर देगी। राम राम! बच्चे इतना नटखट और बदमाश होते हैं, मुझे तो मालूम ही नहीं था।”
कुछ दिनों के बाद पड़ोसन अपने बच्चों के साथ दमयंती के घर आई। वे सब पहले की तरह ही उछल कूद करते और धूम-धड़ाके मचाते। जितना ही खेलते कूदते उतनी ही अधिक दमयंती मन ही मन जलती रहती किंतु संकोचवश कुछ कह नहीं पाती थी।
पड़ोसन उसके हाव भाव से इस बात को ताड़ गयी थी कि–” मेरे बच्चों को देखकर दमयंती को जलन हो रही है । अब इसके घर कभी भी अपने बच्चों को लेकर वह नहीं आयेगी।”
जब बहुत दिनों तक पड़ोसन नहीं आयी तो इसने अच्छा महसूस किया और भीतर ही भीतर उनके बच्चों के प्रति जो अनादर तथा नफ़रत का भाव भरा हुआ था वह स्थायी भाव के रूप में परिणत हो गया था। जब भी उन बच्चों को दूर दराज से भी देख लेती तो वही ‘ जलन ‘ उसके तन मन को जलाने लगती थी ।
अयोध्या प्रसाद उपाध्याय