बेटी के घर में माँओं का दख़ल – कल्पना मिश्रा

“आज क्या-क्या खाया? किसने बनाया?”

 “अच्छा, तो तेरी सास क्या कर रही थीं? वो आराम फ़रमाती रहती हैं क्या? “

“क्या? तेरे सास,ससुर भी तेरे साथ पिक्चर /बाज़ार जाते हैं? मतलब? हर जगह पीछे-पीछे लगे रहते हैं, तुझे प्राइवेसी नही देतें?”

“नौकरानी नही है तू, क्यों जुटी रहती है?अबकी बार कह देना मुझे ज़्यादा काम नही आता है “

“अच्छा इस बार कुछ कहें ,तो करारा जवाब दे देना,दबकर बिल्कुल नही रहना”

“पढ़ी लिखी है, चूल्हा चौका कराने के लिए नही पढ़ाया तुझको..”

“तेरी ननद तो जब देखो तब तेरे यहाँ मुँह उठाकर चली आती है ,अपने घर में मन नही लगता है क्या? 

“दामाद जी तेरा ध्यान रखते हैं या नही? मेरी बात कान खोलकर सुन लो, डरकर नही रहना उनसे…तू भी कम पढ़ी लिखी नही है..” 

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सब तो नहीं, परन्तु कुछ माँये ऐसी ही बातें करके अपनी शादीशुदा बेटी की जिंदगी में ज़हर घोलती रहती हैं। उन्हें ज़रा सा भी अंदाज़ा नही होता है कि उनका ये प्यार ,ऐसी सीख उनकी बेटी के हँसते खेलते परिवार को तहस-नहस कर रही है। 

प्यार करना बुरा नही है। सभी माता पिता अपने बच्चों को प्यार करते हैं.. आप भी अपनी बिटिया को खूब प्यार,दुलार दीजिये, पर उसके परिवार में दख़ल बिल्कुल ना दीजिये। अब बाल विवाह नही होते हैं। ठीक ठाक उम्र होती है उनकी ,पढ़ी लिखी समझदार होती हैं वो,,, इसीलिये अपनी ससुराल में उन्हें खुद ही एडजस्ट होने दीजिये। 

अगर वह अपने से बड़ों से अदब से पेश आती है ,उनका सम्मान करती है तो इसका मतलब ये नही कि वह उनसे डर रही है। क्या मायके में पिता, माँ, बड़े भाई, चाचा,बुआ ,बाबा और दादी को उल्टा जवाब देती है ? बद्तमीज़ी से बात करती है ? नही ना? तो ससुराल वालों के प्रति ऐसा द्वेष,ऐसी भावना क्यों? जबकि अपनी बहू से इसके उलट व्यवहार चाहती हैं। ये चाहती हैं कि बहू सबका सम्मान,घर के काम और ज़िम्मेदारी निभाये।

 

पढ़ाई लिखाई करना अलग बात है और घर के काम करना, सबकी की इज़्जत करना अलग बात है। ये बेसिक शिक्षा होती है जो जन्म के बाद से माँ द्वारा दी जाती है जिसे संस्कार कहते हैं, जो स्कूलों में नही मिलती। और पढ़ लिख जाने के बाद तो ये तहज़ीब ज़्यादा ही होना चाहिए।

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आजकल मोबाइल फोन हो गए हैं.. जिनसे फायदे हैं तो कुछ नुकसान भी हैं! लोग रोज़ ही घंटो बातें करते हैं और जब बाते घंटों में होगी तो स्वाभाविक है कि कुछ बातें ऐसी होती हैं जो नही होनी चाहिए। इसीलिए हो सके तो बेटी की ससुराल कम से कम जायें और अपनी शादीशुदा बेटी को रोज़ फोन भी ना करें.. लेकिन यदि करती भी हैं तो सिर्फ़ हाल-चाल लीजिये, दिन भर का ब्योरा नही।

सोचने वाली बात है कि शादी के बाद नयी-नयी जगह ,नया रिश्ता और वहाँ का माहौल..सब कुछ बिल्कुल अलग सा रहता है ! अब सामंजस्य बनाने में समय तो लगेगा ही? उसे कुछ तो उनके अनुरूप अपने को ढालना होगा। हालाँकि दोनों ही पक्ष को एक दूसरे के अनुरूप ढालना चाहिए ..क्योंकि ताली दोनों हाथों से बजती है ,एक हाथ से नही! और ये सब एक दिन में भी नही होता है ,धीरे-धीरे ही संभव होता है। जब हम लोग अपने बच्चों को, घर के नौकरों के साथ एडजस्ट करना सिखाते हैं ,तो परिवार के सदस्यों के साथ एडजस्ट करना क्यों नहीं सिखाते ? घर के सब सदस्य एक साथ, हँसी-खुशी रह रहे हैं, तो फिर उसमें आपत्ति कैसी और क्यों? इससे बड़ी खुशी की क्या बात होगी कि बिटिया अपने ससुराल में खुश है,सुखी है,, और अगर उसके घर में थोड़ी बहुत लड़ाई झगड़ा, दुख तकलीफ़ है भी ,तो खुद इग्नोर करने की कोशिश करें और बेटी को करना भी सिखायें। क्योंकि अच्छी, ख़राब बातें तो हर घर में होती हैं। 

और एक बात, पढ़ाई के साथ-साथ (थोड़ा बहुत ही सही) घर के काम करना भी सिखाइये…क्योंकि अक्सर माँये कहती पाई गयी हैं कि ” हमने अपनी बिटिया को चूल्हा चौका करने के लिए नही पढ़ाया है” 

अपने घर के काम करने से कोई छोटा नही हो जाता है बल्कि किसी से काम करवाने के लिए भी ख़ुद को काम करना आना चाहिए ? वर्ना लोग बेवकूफ़ बनाने में देर नही लगाते।

 हाँ,यदि ससुराल वाले उसे मानसिक, शारीरिक रूप से प्रताड़ित कर रहे हों तो आप उसके साथ डटकर खड़ी भी होइये ,उसे मानसिक संबल भी दीजिए, पर जबरन तिल का ताड़ भी नही बनाइये,अपने घर के रीतिरिवाज़ों को बेटी पर ना थोपें। क्योंकि अक्सर देखा गया है कि जिस घर में लड़की की माँओं का बहुत ज़्यादा दख़ल रहता है,वहाँ बेटियाँ अपने परिवार और अपने पति को मन से कभी नही अपना पाती हैं।

 

कल्पना मिश्रा

कानपुर 

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