Moral stories in hindi : विवाह के बाद शिल्पी जब पहली बार मायके आई तो माँ ने इत्मीनान से बैठकर बेटी का हाल-चाल पूछा,ससुराल में सब कैसे हैं?,सास-ससुर का स्वभाव वगैरह-वगैरह।शिल्पी ने सब कुछ बताया और फिर बोली कि माँ, मैंने वहाँ एक नई बात देखी है।माँ ने आश्चर्य से पूछा, ” क्या?” तो वह बोली, ” मेरी सास सबसे अंत में खाना खाती है।
कई बार तो कुछ भी नहीं बचता,तब वह पानी पीकर ही रह जातीं हैं परन्तु उससे भी अधिक विचित्र बात यह है कि वे बाबूजी यानि की मेरे ससुर की थाली का बचा हुआ खाना ही खाती हैं।” माँ बोली,” हाँ बेटी, पुराने जमाने में यही रिवाज़ था।औरतें अपने पतियों के खाने के बाद उनकी थाली में ही खा लेती थीं।कहा जाता है कि जूठा खाने से प्यार बढ़ता है।”
” लेकिन माँ, आप तो ऐसा नहीं करती और पापा भी थाली में कभी जूठन नहीं छोड़ते।”
” अब समय बदल चुका है बेटी और हम लोग शहर में रहते हैं।गाँव में ये चलन अभी भी है परन्तु तुझे क्या.., दो दिन बाद तो तुझे शेखर के साथ मुम्बई चले जाना है।छोड़ इन बातों को।” माँ ने कहा तो शिल्पी बोली, ” हाँ, मुझे क्या।” लेकिन मन ही मन उसने कुछ निश्चय किया।
शेखर के साथ वापस जब वह ससुराल गई और सास को ससुर जी की थाली में खाते देखा तो उसने कहा, ” माँजी, कल से आप फ़्रेश थाली में खाना खायेगी और बाबूजी भी जूठन नहीं छोड़ेंगे।”
” नहीं-नहीं बहू, मैं ऐसा नहीं कर सकती।मेरी सास यानि कि तुम्हारी दादी सास भी ऐसा ही करती थी और फिर तुम्हारे बाबूजी भी तो नाराज़ हो जाएँगे।” सीधी और सरल स्वभाव वाली उसकी सास ने जवाब दिया तो वह बोली, ” बाबूजी को मैं समझाऊँगी, पर कल से आप उनकी थाली में नहीं खायेंगी।”
शिल्पी का देवर वहीं खड़ा सास-बहू की बातें सुन रहा था।बोला,” भाभी, माँ का ऐसा करना मुझे भी बहुत बुरा लगता है।हम तो इन्हें समझाते-समझाते थक गये हैं,आप यदि सफल हो गई तो….।”
” तो क्या, आज रात को ही देख लेना।” हँसते हुए उसने कहा।
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रात को सबके खाना खाने के बाद जब ससुर जी ने अपनी थाली शिल्पी की सास को दिया तो शिल्पी ने उन्हें ‘ नहीं ‘ कहने का इशारा किया।उसकी सास भी शायद अब यही चाहती थी, सो अपनी हिम्मत बटोर कर बोली, ” मैं इस थाली में नहीं खाऊँगी।आपने जो खाना छोड़ा है, उसे गऊ माता को खिला दूँगी।” पत्नी की बात सुनकर ससुर जी चिल्लाये, ” तेरा दिमाग तो ठीक है ना।बरसों से चली आ रही परंपरा को तोड़ देगी।”
अब शिल्पी बोली, ” बाबूजी, आप एक बार अपनी थाली देखिये, इसमें आधी रोटी ही बची है और सब्जी के नाम पर आलू के दो टुकड़े।पहले क्या हुआ, मैं नहीं जानती लेकिन इस उम्र में तो माँजी को पूरी डाइट मिलनी ही चाहिए।घर के सभी सदस्यों की थाली में पाँच पकवान हो और माँजी को सिर्फ़ ये रोटी।ये कैसा न्याय है?।”
” पर ये रिवाज़ तो सदियों से चला आ रहा है।” ससुर जी थोड़े नरम स्वर में बोले तो शिल्पी की हिम्मत बढ़ी।बोली, ” बाबूजी, पहले हम चिट्ठी द्वारा समाचार देते थें, टेलीफोन आने के बाद चिट्ठी-पत्री बंद हो गई, फिर मोबाइल फोन आया तो घर के हरेक सदस्य के हाथ में फोन हो गया।ऐसा होगा, ये आपने तो नहीं सोचा था पर हुआ ना।बाबूजी,जो बरसों से चला आ रहा है उसे हमें ही तो बदलना है।अब तो माँजी भी बहू से सास बन गई हैं।अब तो उन्हें उनकी मर्जी का खाना खाने का अधिकार होना ही चाहिए।”
” हाँ बहू , शायद तुम ठीक कहती हो।”
” अभी भी शायद…।” ससुर जी बात पर शिल्पी का देवर हँसते हुए बोला तो सभी हँस पड़े।उस दिन के बाद से शिल्पी की सास भी अपनी थाली में सबके साथ बैठकर खाना खाने लगी और ससुर जी ने भी जूठन छोड़ना छोड़ दिया।
—- विभा गुप्ता