Short Moral Stories in Hindi : सात साल से बिस्तर पर पड़े रहने के बाद आज गोपाल जी अपने परिवार को छोड़कर चल बसे। पत्नी तो पहले ही जा चुकी थी। तीन बेटे- बहू थे।
गोपाल जी पक्षाघात के शिकार हुए और शरीर का दाहिना हिस्सा बेकार हो गया। दोनों बेटे- बहू आये और कुछ दिन साथ रहने के बाद वो अपने-अपने काम पर चले गए। छोटा बेटा पिता की दवाई की दुकान को चला रहा था। छोटी बहू के जिम्मे ससुर जी की सेवा का दायित्व आया। बहू सेवा तो करने लगी, लेकिन ससुर को इस बात के लिए दबाव डालने लगी कि ये हबेलीनुमा घर और दूकान मेरे नाम कर दें।
पुस्तैनी जमीन में भले ही सबको हिस्सा मिले। गोपाल जी मजबूर थे। यदि वे नहीं देते हैं तो बहू देखभाल में कमी करेगी और यदि दे देते हैं तो अन्य पुत्रों के साथ अन्याय होगा, लेकिन अब सेवा की कीमत तो देनी ही पड़ेगी। उसके बाद भी उलाहनों का दौर चलता ही रहा। कहते हैं न कि अपने कर्म का फल यहीं मिल जाता है।
गोपाल जी ने भी तो अन्याय किया था। अपने ही सगे भाई के साथ।
गोपाल जी का एक छोटा भाई था- दामोदर। वह गोपाल से काफी छोटा था।
दामोदर दुनियारी से अनजान था। काफी सीधा- साधा कोल्हू के बैल की तरह। जिस काम में लगा दिया जाता था उसी में लगे रहता था। गोपाल के पिता समय से थोड़े पहले ही दुनिया से चले गये थे। जाते समय उन्होने दामोदर को गोपाल के हाथों सौप गये।
गोपाल और उनकी पत्नी हमेशा यही सोचते रहे कि-
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रोजगार चलायगें हम और आधे का मालिक वो कैसे बन सकता है? धीरे-धीरे वह उपेक्षित होता गया। कभी खाना मिलता कभी नहीं भी मिलता। एक दिन तो गोपाल ने पूरी सम्पत्ति अपने नाम करा ली और दामोदर को समझ में भी नहीं आया। अपनी भाभी की उपेक्षा और तानों से तंग आकर दामोदर एक दिन घर छोड़कर चला गया। बहते पानी की धारा की तरह जहाँ शाम होती किसी के दरवाजे पर रूक जाता। कुछ-न- कुछ तो खाने को मिल ही जाता था।
अपने रिश्तेदारों के घर कुछ-कुछ दिन रहने लगे। जिसे मजदूर की जरूरत रहती थी वो इन्हें खुशी-खुशी रखते थे और इधर गोपाल का कहना था कि वह मानसिक असंतुलन के कारण घर छोड़कर चला गया है। कुछ दिनों में तो लोग उसे पागल ही कहने लगे। शारीरिक श्रम जितना होता था उतना दामोदर करता था और बदले में भोजन और कभी-कभी पुराने कपड़े की मांग करता था। इसी तरह उसका जीवन यापन होने लगा। भोजन नहीं मिलने पर वह किसी कुटिया या आश्रम में भी चला जाता था।
बीच-बीच में घर भी आता था, लेकिन कुछ हफ्तों में ही अनजान डगर पर निकल जाता था।
इधर गोपाल जी का परिवार फल फूल रहा था। भाई का घर तो बसने नहीं दिए, लेकिन उनका घर बेटे-बहुओं से भर गया।
अन्ततः कर्म कभी पीछा नहीं छोड़ता है और अब गोपाल जी बिस्तर पर पड़े-पड़े मौत का इंतजार करने लगे। सम्पत्ति शरीर का कष्ट दूर नहीं कर सकती।
आज जब उनकी मौत हुई तो दामोदर को जैसे ही पता चला, वह भाई के श्राद्ध में शामिल होने के लिए पहुँच गया।उसे भाई- भाभी से कोई शिकायत नहीं थी। वो यही समझता था कि मैं पढाई नहीं किया इसलिए भैया-भाभी गुस्सा करते थे।
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दामोदर ने विधिवत भाई का श्राद्ध-कर्म सम्पन्न किया। अंतिम दिन घर के सभी पुरुष सदस्य गंगा स्नान को गये। गंगा-स्नान के बाद दामोदर वहीं धूप में जमीन पर लेट गया और फिर कभी उठा ही नहीं। भाई के बच्चों ने उसका भी अंतिम क्रिया-कर्म पिता के समान ही विधिवत किया। सभी यही कहते रहे कि- दामोदर, ने कभी कोई पूज-पाठ, धर्म-कर्म, दान- पुण्य आदि नहीं किया उसकी मौत इतनी शानदार हुई। गंगा किनारे अपनों के बीच।बिना किसी कष्ट के। उसका मन तो निर्मल था। एक अबोध बालक की तरह छल-कपट, प्रपंच से अछूता था, तो फिर क्यों न अंतिम यात्रा शानदार होती?
स्वरचित
पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।