रजनी की नई नई शादी हुई थी।
रजनी भी नौकरी करती थी। उसके पति भी एक आफिसर थे।
रजनी ने ससुराल में जाकर देखा कि सभी औरतें घर बाहर का काम करती हैं। पर पति और बाकी पुरुष केवल बाहरी काम करते।,घर के अंदर जब भोजन करना हो या सोना हो तभी आते।
रजनी भी अकेले ही काम में जुटी रहती। सासूमां बाहर फुर्सत मिलने पर गप्पे हांकती। वो तो अच्छा था कि वह और उसके पति दूसरे शहर में नौकरी करते थे। छुट्टियां होने पर ही जाते थे।पर यदि रजनी बीमार हो गई।
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या उसे कोई तकलीफ़ हो गई तो उसके पति उसकी कोई मदद नहीं करते थे। वो उससे कहते, तुम दवा खा लो,जब ठीक हो जाना तो उठ कर सबके लिए चाय बना देना। उसके आंखों से आंसू बहने लगते। मां पिता की दुलारी तीन भाइयों में अकेली बहन बड़े ही नाजों से पली थी। मजाल है कि एक गिलास पानी भी अपने हाथ से लिया हो। यहां आते ही उसे चूल्हे चौके में झोंक दिया गया।
कुछ दिनों बाद रजनी उसके पति और सासूमां तीनों शहर आ गये।
रजनी सब काम निपटा कर खाना खिला कर अपने स्कूल चली जाती। शाम को थकी हारी वापस लौटती। फिर से रसोई में जुट जाती। ना तो सास जी और ना ही पतिदेव कोई भी मदद नहीं करता।
एक दिन रजनी आटा गूंथ रही थी। सासूमां ने आकर कहा।दुलहिन, बच्ची पानी मांग रही है दे दो। वो रसोई की डेहरी पर खड़ी थीं। रजनी ने आटा गूंथते हुए आवाज लगाई,सुनिए, बेटी को पानी दे दीजिए।
सासूमां गुस्से से बोल पड़ीं।
” हमारे यहां लड़कों से काम नहीं कराया जाता। कोई मरद अंदर घर का काम नहीं छूता। तुम हमारे बेटवा से कैसे कह दी पानी देने को , और हां उसका नाम जो तुम पटर पटर करके लेती रहती हो, वो नाम भी आज से नहीं लेना, हमारे यहां बेटे का नाम हम नहीं लेते तो तुम कैसे लेती हो।
रजनी ने व्यथित होकर कहा, अम्मा जी, मैं कहां नाम लेती हूं,अब यदि किसी का नाम राम से शुरू होता है तो लेना ही पड़ेगा।
नहीं हरगिज़ नहीं। उसे उसके गांव या और किसी नाम से बुलाओ। हमारे यहां पति और बड़े बेटे का नाम नहीं लेते ना ही कोई काम करने को कहते हैं।
रजनी ने अपने आटा से सने हुए हाथों को धोया और पानी पकड़ाया। उसका मातृ भक्त पति खामोशी से सब सुनता रहा। क्यों कि मां की बात काटने का किसी में साहस नहीं था।
नारी जीवन की यही तो कहानी है।
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मन में सोचते हुए रजनी अपने मायके के ख्यालों में गुम हो गई।
उसके बाबू जी भी तो अम्मा के साथ ऐसा ही करते थे। सब बच्चे पढ़ाई करते। अम्मा घर का सब काम अकेले ही करती,सबके कपड़े धोती, कपड़े मशीन पर ही सिलती। बाजार से पूरा सामान खरीदने की जिम्मेदारी मां पर रहती। बाबू जी बस खाना खाते और आफिस चले जाते।
चाहे अम्मा जितना भी बीमार हो, ब्लडप्रेशर बढ़ने के कारण धड़ाम से गिर कर बेहोश हो जाती हो,पर फिर उठ कर काम करने लगती।
हां, महीने के चार दिन उनकी भक्ति सिर चढ़कर बोलती तो वो किसी तरह खाना बनाते। मां को और रजनी को उन चार दिनों के अछूत समय में रसोई और पानी छूने की इजाजत नहीं थी।
बाकी दिन चाहे मरते रहो पर चार पांच बार चाय, नाश्ता और खाना जरूर चाहिए।
रजनी ने मन ही मन में कहा, बाबू जी आज आपकी करनी आपकी बेटी को भुगतना पड़ रही है। मां भी तो किसी की बेटी थी वो भी बिना मां के।
मां से बताया तो मां ने भी यही कहा,, हां बिटिया, हमारे घर के पुरुष घर का काम नहीं करते यही प्रथा चली आ रही है।
बेटों को राजकुमार बना कर रखा जाता है।
रजनी ने सोचा,काश, कभी उसके पति एक कप चाय बना कर पिलाते, उसके दिल की हसरत कभी पूरी नहीं हुई। क्यों कि उन्हें बचपन से ही घुट्टी पिलाई गई थी,” मर्द काम नहीं करते” ।
सुषमा यादव प्रतापगढ़ उ प्र
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित
#पुरुष
धीरे-धीरे बदलाव आरहा है अभी तो शहरों मे टल रहा है धीरे-धीरे गावों मे भी आ जाएगा ।
Teaching to heart this story
Pata nahi kis ganv mai reh rahi ho abhi ye nahi chalta jahan aurat kam karti hai sab maid rakhe hai kabhi sochna ek mard padhlikh kar bhi ek ganv ki anpadh ko shadi kar leta hai ek mahila padh likh jai to lakho ko chod deti hai phir handsome aur Amir dekhti hai