रंग-मीनाक्षी चौहान

मम्मी जी और बगल वाली आँटी में खूब जमने लगी है। इस नये घर में आये हमें अभी दो हफ्ते ही हुए हैं लेकिन दोनों ऐसे बतियातीं हैं जैसे एक-दूसरे को बरसों से जानतीं हैं। दोनों शाम ढ़लते ही अपनी-अपनी कुर्सियाँ लिये गेट के बाहर डट जातीं। हर दिन अलग-अलग मुद्दों पर गप्प चर्चा चलने लगती। कभी आस-पड़ोस, तो कभी रिश्तेदार, त्योहार, मौसम और ना जाने क्या-क्या। मैं भी कभी-कभार चुपके से ताक-झाँक कर ही लेती हूँ।

सुबह से देख रही हूँ, कल शाम से ही मम्मी जी कुछ गुमसुम सी लग रही हैं।……सब पता है क्यूँ। वही बगल वाली आँटी।…….कल शाम को बातों ही बातों में आँटी ने कुछ इस तरह अपनी बहु की तारीफों के पुल बाँधे। “क्या बताऊँ, गजब की फुर्तीली है हमारी बहु। सुबह जल अर्पित करने तो ऊपर जायेगी, फिर कपड़े सुखाने, पलटने, लेने जायेगी। शाम को खुद ही ऊपर गमलों में पानी भी डालेगी। ऊपर-नीचे दौड़-भाग करने में जरा भी नहीं कतराती।”……..और मम्मी जी चुपचाप मुँह लटकाये बस सुनती रहीं। इनमें से तो क्या, वैसे भी मुझमें उन्हें कोई खूबी नज़र ही नहीं आती। क्या कहती बेचारी ऐसी नकारा बहु के बारे में…….शायद इसीलिये उदास थीं।……..अब मैं अपना काम निपटाने में लगी हुई थी। धुले कपड़े मशीन से निकाल कर पीछे तार पर डालने ही जा रही थी कि तानों से मिलता-जुलता कुछ मम्मी जी के मुँह से निकलता हुआ मेरे कानों में जा घुसा। “अब हमारे यहाँ किसके बस की है सीढ़ियाँ चढ़ना। घुटने ना बजने लग जायेंगे।” समझ गई कल शाम आँटी ने जो हवा भरी थी उसी हवा से इनका मुँह फूला हुआ है।

“मम्मी जी लगता है आप पर किसी का ‘रंग’ चढ़ने लगा है।” बोल दिया मैनें हँसी में। मम्मीजी ने टेढ़ी नजरों से जो देखा, मैं तो दनदनाती हुई कपड़ों की बाल्टी लेकर ऊपर निकल ली।


ऊपर आकर देखा सही में भाभी छत पर ही थीं। पहले भी उन्हें अक्सर छत पर देख चुकीं हूँ। अपने काहिलपन पर सच में शर्म आने लगी। कुछ बोलती पर वो फ़ोन पर बात कर रही थीं। कपड़े सुखाकर नीचे आ गई। फिर गई मैं ऊपर, कपड़े लेकर नीचे आ ही रही थी कि भाभी ने फोन के साथ अपनी छत पर एन्ट्री की। दीवार की आड़ में चुपचाप खड़ी हो कर मैं सुनने लगी। हे भगवान!…….ये वही भाभी हैं कल जिनकी तारीफें करती आँटी अघा नहीं रही थीं। कपड़े समेट कर मैं उड़ती हुई सी नीचे आई। मम्मी जी को भाभी के चुगली पुराण की जो कथा सुनाई, उनका तो मुँह खुला का खुला और आँखें फटी की फटी रह गईं।

कुछ सेकंड के लिए जड़ हो चुकी मम्मी जी में चेतना आते ही बोलीं, ” कपड़े कल से नीचे ही सुखाना।…….’रंग’ बदल गया तो।”

“रंग बदल गया मतलब?” मेरी समझ में नहीं आया तो पूछ लिया।

” खरबूजे को देख कर खरबूजे का।” …….अपनी हँसी को दबाती हुई मैं तो चल दी कपड़ों की तह लगाने।

मीनाक्षी चौहान

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