“अरे, सुनो!आज दीदी का फोन आया था। रविवार को दीदी और बच्चे सुबह वाली ट्रेन से आ रहे हैं। जरा कामवाली को साथ में लगाकर अच्छे से घर की साफ-सफाई करा लेना। तुम तो जानती ही हो कि दीदी को साफ-सफाई और व्यवस्थित घर कितना पसंद है।
बच्चों से कह देना कि अपना कमरा अपनी बुआ और अपने भाई-बहनों के लिए खाली कर दें और स्टडीज में शिफ्ट हो जाए कुछ दिनों के लिए। मैं भी एक सप्ताह के लिए ऑफिस में छुट्टी के लिए अर्जी दे देता हूँ ताकि सब मिलकर मौज मस्ती कर सकें और ऐसा करेंगे कि दो-तीन दिन के लिए मसूरी चलेंगे ताकि बच्चों और दीदी को अच्छा लगे।कुछ तो बोलो, बस मैं ही बोल रहा हूँ ,तुम खामोश क्यों हो?”राजीव इतने उत्तेजित थे कि एक साँस में बोले ही जा रहे थे।
“आप मुझे मौका दे ही कहाँ रहे हो कुछ बोलने का। मैं सब कर लूँगी। चिंता मत करो पर तुम तो इतने एक्साइटेड हो कि मानो दीदी पहली बार मायके रहने आ रही हैं।” मैं राजीव को छेड़ते हुए हँसने लगी।
“सच! पारुल, पिछले चार सालों का अंतराल ऐसा लग रहा है मानो कि दीदी जाने हमसे कितनी दूर हैं। कभी कोरोना, कभी बच्चों की पढ़ाई के चलते दीदी आ ही नहीं पा रही थीं। ऐसा लग रहा है कि दीदी आयें तो बस सारा समय उनके साथ ही बिता दूँ।” राजीव की आँखें भर आई।
राजीव की आँखों में आँसू देख कर मेरी आँखें भी नम हो गईं। कहीं बरस ही न जायें,यह सोचकर मैंने मुँह फेर लिया।भले ही राजीव मुँह से कुछ न कहें पर कहीं न कहीं दीदी का मायके से दूरी बनाने का कारण काफी हद तक मैं भी हूँ।
जब तक माँ (सासु माँ) जीवित थीं,दीदी बच्चों के साथ हर साल गर्मियों की छुट्टियों आती रहीं पर धीरे-धीरे मैं अपनी सहेलियों, किटी पार्टियों में मशगूल रहने लगी और परिवार से ज्यादा सामाजिक संबंधों को ज्यादा तरज़ीह देने लगी। माँ के रहने तक तो ठीक था।
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माँ मेरे पीछे सब सँभाल लेती थीं पर माँ के जाने के बाद दीदी का आना मुझे खलने लगा। उन आठ-दस दिनों में जब दीदी छुट्टियों में मायके आया करती,मुझे अपनी सहेलियों से दूरी बनाना काफी अखरता था। मैं उनके साथ बाहर घूमना, मौज मस्ती करना काफी मिस करती।
यूँ हम दीदी और उनके परिवार के साथ घूमने जाया करते पर सहेलियों के साथ वाली मटरगश्ती वाला मज़ा मुझे परिवार के साथ न आया करता। मेरी झुंझलाहट और व्यवहार में बेरुखी को दीदी समझने लगी थीं इसलिए धीरे-धीरे उन्होंने मायके आना कम कर दिया और फिर बिल्कुल ही बंद कर दिया।
राजीव चाह कर भी मुझसे कुछ नहीं कह पाते थे क्योंकि मैंने कभी भी खुलकर कुछ नहीं कहा था। अलबत्ता छुट्टियों में राजीव उदास ज़रूर हो जाया करते थे।
पर मैं बहुत खुश थी।कभी किसी सहेली के परिवार के साथ हिल स्टेशन,कभी पूल पार्टी, टैरिस पार्टी इन सभी में खुश और व्यस्त रहने लगी थी कि तभी कोरोना की दर्दनाक लहर चल पड़ी और चपेट में आए मैं और राजीव।
हम दोनों को हॉस्पिटल में एडमिट किया गया पर पीछे बच्चे! साथ-साथ रहने वाली अपनी सहेलियों से मदद की गुहार लगाई तो सभी ने कुछ न कुछ कारण बताकर कन्नी काट ली।
ऐसे में भगवान बन कर दीदी और जीजाजी सामने आए।दीदी दोनों बच्चों को अपने ससुराल ले गई और जीजा जी ने आर्थिक सहायता से लेकर हमारा और घर का ख्याल रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। जहाँ जीजाजी तत्परता से हमें सँभाले हुए थे,वहीं दीदी ने बच्चों का पूरा ध्यान रखा और बच्चों से फोन पर लगातार हमारी बात कराती रहीं।
अपने आपको मेरा खास मित्र कहने वाली सहेलियों ने औपचारिकतावश फोन पर ही मेरा हालचाल पूछा और अपने आप में मस्त- व्यस्त हो गईं।
खोखले रिश्तों पर चढ़ा नकाब उतर चुका था। मौज-मस्ती करने में साथ देने वाले स्वार्थी चेहरों की सच्चाई सामने आ गई थी पर किसी को दोष क्यों देना? सोने की जगह पीतल को मैं ही चुना था तो अपनी भूल की सजा तो मिलनी ही थी।इसी के साथ ही एक प्रण लिया कि हर रिश्ते को एक दायरे में रखकर निभाऊँगी।
“क्यों मैडम? कहाँ खो गईं?”राजीव ने हाथ पर हाथ रखा तो मैं मुस्कुरा दी।
“कहीं नहीं, बस सोच रही थी कि दीदी आने वाली है तो घर में कुछ नमकीन, मठरी और मिठाइयाँ बना लूँ। दीदी को घर का बना नाश्ता खाना और खिलाना बहुत पसंद है न।” मैंने कहा तो राजीव कागज और पेन लाकर बोले,”मोहतरमा! आप बोलती जाइए,बंदा बाजार से सामान लाने की लिस्ट बनाने को तैयार है।”
मौलिक सृजन
ऋतु अग्रवाल
मेरठ
#खोखले रिश्ते