…..all the world is a stage and every man and woman is merely player…. कितना सही लिखा है ग्रेट शेक्सपियर ने ….इस संसार रूपी रंगमंच पर हर व्यक्ति को नियति द्वारा निर्धारित अलग अलग भूमिकाएं रोल दिए गए हैं अलग अलग किरदार हैं…. पर्दा खुलता है अभिनय शुरू हो जाता है ….चलता रहता है अभिनय ….प्रत्येक अपनी कोशिशों से अपने अभिनय को बेहतर सर्वोत्तम तरीके से या तटस्थ हो निभाते रहते हैं…
कि पर्दा गिर जाता है….किरदार और भूमिकाएं बदल जाती हैं…फिर नए डायलॉग नया अभिनय….फिर से हर कोई परिवर्तित भूमिका को निभाने की कोशिश में जुट जाता है…..
नियति का ये क्रम निरंतर गतिमान रहता है ….आपकी नियति आपके अभिनय पर कभी हंसती कभी सिर पटकती और कभी नई परीक्षाएं उत्पन्न कर मजे लेती रहती है……मानो सब कुछ तय है निर्धारित है …!
सोनाली की नियति में भी विधाता ने शायद सबकी चाकरी करना ही लिखा था…..
बिन मां की बच्ची सोनाली को तो बचपन से कठिन रोल निभाने की आदत सी हो गई हैं…परिवार और समाज के लिए तो वो एक मनहूस बच्ची थी जिसने पैदा होते ही अपनी मां को खा लिया था…पिता भी मां के जाने का गम भुला पाने में असमर्थ हो अपनी दुधमुंही बच्ची को ही कुसुरवार ठहराते थे और दिए गए मां के नए रोल को निभाने से इंकार करते रहे….!
और अपने लिए निर्धारित रोल निभाने के लिए सोनाली के लिए नई मां ब्याह लाए…जिसने सोनाली की मां के रोल को निभाने के बजाय एक नववधू बन घर की मालकिन बन जाने के रोल को निभाने में जी जान लगा दी …!
….स्नेहहीन आंचल और ममत्वहीन पिता के सहमाते हुए सरमाए में सांसें लेती अपने सिकुड़े हाथ पांव फैलाती सोनाली को बेटी का रोल तो नहीं पर किसी कामवाली का ही रोल ज्यादा मिलता रहा वो अपनी यही नियति समझ उसे भी पूरी शिद्दत से निभाती रही…ज्यादातर उसके हर रोल में डायलॉग नहीं के बराबर रहते थे..
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अब तो सोनाली ने निशर्त अपनी यही नियति स्वीकार करते हुए जीना सीख लिया था सबको खिला कर बची खुची रूखी सूखी ही सही दो टुकड़ा रोटी और वही रसोई के एक कोने में हाथ पैर सिकोड़ कर पड़े रहने में ही सुख ढूंढ लिया था उसने ..आगे की जिंदगी भी इसी भूमिका में गुजारने को वो तन मन दोनों से तैयार थी…
शायद मन तैयार हो तो कोई भी परिस्थिति विकट नहीं लगती है।
मूक अभिनय करने की आदत सी हो गई थी तभी तो जब सौतेली मां के अधेड़ भाई ने एकांत में उसके साथ अवांछित हरकत करनी चाही तब भी वो और भी सिकुड़ गई थी पर तभी पिता के आ जाने से कोई अनहोनी घटित नहीं होने पाई थी।
परंतु इंसानी फितरत सुधरती नहीं है बदनीयत पेट भरने के मौके तलाश ही लेती है।
उस अनजानी हरकत ने अचानक मासूम सोनाली के समक्ष जिंदगी के दूसरे पहलू की एक ऐसी भयावह सूरत प्रस्तुत कर दी कि अब तो उसकी बोलती ही बंद हो गई थी ….किसी भी अंजान को देखकर वो सहम सी जाती थी …वो स्कूल कभी नहीं गई थी लेकिन .इंसानी नजरों को पढ़ने का तरीका सीख चुकी थी…
उसकी मां के रोल में आई महिला अब इस बड़ी होती हुई सोनाली से ईर्ष्या दग्घ हो छुटकारे पाने की तरकीबें ढूंढने लगी थी ….अपने ही भाई की बदनीयत खुद के लिए कोई बखेड़ा ना पैदा कर दे वो नहीं चाहती थी।
इसीलिए आनन फानन किसी तरह दूर गांव का एक दुहेजू ढूंढकर उस मूक गाय जैसी बालिका की शादी करवा कर माता पिता ने अपने रोल की इतिश्री कर ली।
सोनाली ने तो कभी अपने लिए कुछ सोचा ही नहीं था वो तो उस भीत कबूतरी की तरह थी जो अपने इसी घर के पिंजरे में रहना चाहती थी इस घर से अलग होना उसके लिए मृत्यु सम था पहली बार उसने विकल होकर शादी नही करने की अभ्यर्थना की थी बाहरी दुनिया उसे शिकारियों से भरी लगती थी….लेकिन नियति का चक्र चल रहा था अपनी गति से …
मानव तो नियति के हाथों का खिलौना मात्र है लाख हाथ पैर पटक लो परिस्थितियों पर बस ही नहीं रह जाता है।
सोनाली की जिंदगी का नया दृश्य आरंभ हो चुका था पर्दा उठ चुका था…नया रोल नया स्टेज नई वेश भूषाएं….सोनाली तो अपनी नियति पहचान चुकी थी मूक रह सबकी इच्छाओं आदेशों का सहर्ष पालन करते रहना अपनी इच्छाओं का त्याग उसे सहज स्वीकार्य हो चुका था…
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अभिनय कला में परिपक्व थी जो भी रोल मिलता शिद्दत से ही करती थी।नियति कैसे भी रंग दिखाए वो उसी रंग में रंगने को तत्पर हो जाती थी… अपने इस नए रोल को निभाने को पूरी तरह तैयार थी…!कुछ और नई यातनाएं कुछ और जहर बुझे ताने सुनने को तैयार थी सजग थी..!
पर्दा खुला तो मुंह दिखाई की रस्म हो रही थी …बहू तो बड़ी प्यारी है…..इतनी मासूम सुंदर बहू कहां से मिल गई तुम्हारे बेटे को…..क्यों बहू तुम्हें अपना दूल्हा पसंद है….बड़ी भाग्यवान हो जो ऐसी सरल सी बहू तुम्हारे घर आई है…!
कटुक्तियां और फब्तियां सुनने की आदी सोनाली पहली बार अपने लिए कही जा रही इन प्रशंसनीय मीठी टिप्पणियों से मानो आज मर्माहत सी हो गई थी….इस रोल के लिए क्या अभिव्यक्ति होगी वो सोच ही रही थी कि
तभी उसकी सास ने आकर सबको डांट लगाते हुए कहा ..अरे थोड़ा तो तरस खाओ मेरी बहू पर ….थकी गई है किसी ने अभी तक कुछ खाने पीने को भी नहीं पूछा आ जा बेटा मेरे साथ आ थोड़ा आराम कर ले कहते हुए बहुत स्नेह से सोनाली का हाथ पकड़ उसकी
सासू मां उसे अपने साथ एक सुंदर से कमरे में ले गई और वहां बिठाते हुए बोली देख बेटा ये छोटा सा तेरा कमरा है इधर आ ये रही तेरी अलमीरा …..खोल कर दिखाया ढेर सारी रंग बिरंगी साड़ियों की लुभावनी पंक्ति उसे विस्मय और हर्ष विकंपित कर गई…..प्रतीत हुआ मानो किसी ने ऊपर आकाश में बिठा दिया हो उसे….ये तो स्वप्न से भी परे था।
पहले बता तू क्या खायेगी!कहते हुए बड़ी सी थाली भर के सुस्वादु भोजन ले आईं और अपने हाथों से उसे खीर खिलाने लगी….
जिंदगी भर जूठन खाने वाली दुत्कार सहने बाली एक कोने में ही पड़ी रहने वाली सोनाली के लिए ये अप्रत्याशित स्थिति असहज हो गई थी…!इसके लिए वो तैयार नहीं थी।
मैं जानती हूं बेटी तू अभी बहुत थक गई है है और इस नए परिवेश में स्वयं को अकेला और अबूझ पा रही होगी शारीरिक और मानसिक दोनो थकान तुझ पर हावी होगी …. ये कई प्रकार के नमकीन है ये देसी घी के लड्डू हैं ये सब डिब्बे यहीं इसी कमरे में रहेंगे जब तेरा मन करे निकाल कर खा लेना किसी से पूछने मांगने या संकोच में भूखा रहने की जरूरत नहीं है
मैं भी अकेली ही हूं बेटा .. तेरे आने से मुझे एक प्यारी सी साथीन मिल गई है मैं बहुत खुश हूं मेरा बेटा हो सकता है तेरे सपनो के राजकुमार से मिलता जुलता ना हो पर दिल का बहुत अच्छा है …. मैं अभी तेरे लिए इलायची वाली चाय ले आती हूं साथ में पियेंगे फिर तू थोड़ा आराम कर लेना …..
वो कहती जा रही थीं और सोनाली हतभ्रभ सी नियति के इस सर्वथा अनूठे अछूते और अपरिचित रंग के लिए अपने आपको तैयार करने में जुट गई थी….ऐसा भी हो सकता है उसके साथ ये तो कभी उसने कभी सोचा ही नहीं था।
लतिका श्रीवास्तव
#नियति