स्वाभिमान या अभिमान? – पुष्पा पाण्डेय

आजकल परी देर से घर आने लगी है। शुरू-शुरू में अनिता के पूछने पर नित्य नये बहाने तैयार रहते थे। अनिता समझती थी कि ये बहाने है, लेकिन उसके तेवर देख कुछ बोल नहीं पाती थी। चार साल की परी थी तभी से वह परी को लेकर अपने पति से अलग रहने लगी। अनिता पिता के प्यार की कमी भी पूरी करने की कोशिश करती रही। बचपन तो बीत गया। अनिता के लिए काँलेज और बेटी के अतिरिक्त कोई दुनिया थी ही नहीं। माँ जब-तक थी मायके कभी-कभार जाना होता था,लेकिन माँ के बाद तो फोन से ही काम चल जाता है।

एक ही शहर में रहते हुए भी कई बरसों से परी अपने पापा से नहीं मिली। शुरू- शुरू में कुछ दिन छुट्टी के दिन आते थे परी से मिलने। वैसे अनिता को आना पसंद नहीं था और धीरे-धीरे नहीं के बराबर होता गया।

       जैसे-जैसे परी बड़ी होती गयी, माँ से दूर होती गयी। उसकी मांगे बढ़ती गयी। अनिता परेशान थी कि इसे कैसे विश्वास में लाया जाए? ———–

अनिता चिन्तित हो कमरे में चहलकदमी कर रही थी। रात के दस बज गये। परी फोन भी नहीं उठा रही है। तभी दरवाजे की घंटी बजी। परी को लड़खड़ाते कदमों से अन्दर आते देखकर अनिता के होश उड़ गये। स्थिति ऐसी नहीं थी उस समय बात की जाए। कौन उसे बरामदे तक छोड़ गया था ये भी उसे पता नहीं चला। परी अपने कमरे में चली गयी और अनिता आँखों में आँसू और सिर पर हाथ रख वही बैठक में ही बैठी रही। वह सोचती रही कि क्या मैं जिन्दगी का जंग हार गयी? लेकिन ये जंग थी किससे? लाख कोशिश करने पर भी मैं सिर्फ माँ बनी रही। उसे आज भी याद है जब उसके पिता उससे मिलने आते थे तो वह सारी दुनिया भूल जाती थी। कितना खुश होती थी अपने पिता को देखकर।   जिस रविवार को नहीं आते थे उस दिन कितना रोती थी और मैं खुश रहती थी, बेटी से नहीं मिलने देने का दर्द देकर। 




ये मेरा स्वाभिमान था या अभिमान? मायके वाले ने बहुत समझाया। परी का हवाला भी दिया था। छोटी- छोटी बातों में मेरा पद और पैसा बीच में आ ही जाता था। पति से ज्यादा कमाना क्या गुनाह है? ज्यादा कमाती हूँ तो दफ्तर में समय भी तो ज्यादा देना पड़ेगा, पर इस 

बात को सासु माँ कहाँ समझती थी? बेटा भी तो माँ का लाडला था।

      लेकिन इस सब के बीच मेरी परी? क्या जिसे मैं स्वाभिमान समझती थी वह मेरा अभिमान था? ———-

न जाने कब आँख लग गयी।

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सुबह नौकरानी के आने पर नींद खुली। दरवाजा खोलने के बाद परी के कमरे में अनिता गयी तो गहरी नींद में सोयी थी। अभी चाय बना ही रही थी कि दरवाजे को घंटी बजी।

इस वक्त कौन हो सकता है? सोचती हुई अनिता दरवाजा खोलती है। दरवाज़े पर पति को देखकर अबाक रह गयी।

“मैं परी को लेने आया हूँ। अब पानी सर से ऊपर जा चुका है।”

अन्दर आते हुए पति ने कहा।

“परी के बारे में……”

आगे कुछ कह न सकी।

” कल रात मेरा दोस्त विवेक ही उसे घर छोड़ा था। पता है, बार में बैठी थी। विवेक भी वहीं था। वह इसे पहचानता था। घर का पता मालूम था वरना……”

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“चाय पीओगे?”

“बना रही हो तो बना दो।”

अनिता दो कप चाय बनाकर ले आयी। आज उसे बरसों पहले की सुबह याद हो आई। कितना प्यार से चाय बनाकर वालकाॅनी में  लाते थे। हमेशा कहते थे- 

“ये सुबह की चाय मैं तुझे जीवन भर पिलाता रहूँगा।”

लेकिन……

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चाय खत्म होते ही बोले-

” अभी सोई है तो छोड़ दो। तैयार रहेगी। शाम को आकर ले जाऊँगा।”

” किसे?”

“परी को। वैसे तुम्हारे लिए भी वह दरवाजा कभी बंद नहीं था।”

कहकर एक झटके से निकल गये। अनिता एक हारे हुए जुआरी की तरह अपने अभिमान और स्वाभिमान का मंथन करने लगी।

स्वरचित

पुष्पा पाण्डेय 

राँची,झारखंड।

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