” क्या छोटी भाभी,आप छोटी-सी बात को तिल का ताड़ क्यों बना रहीं हैं।बच्चा है, खेलते हुए एक खिलौना टूट ही गया तो क्या हुआ?” नैना ने दिव्या को समझाने का प्रयास किया तो वह बिफ़र पड़ी, ” खिलौना..! तुमलोगों ने कभी मंहगे खिलौने देखे भी हैं क्या।ये तो मेरा भाई जापान से लाया जिसे तुम्हारे जाहिल भतीजे ने तोड़ दिया।”
“भाभी, आप होंगी पैसे वाली तो हम भी कोई कम नहीं है।जिसे आप जाहिल कह रहीं हैं,उसकी तो दोनों मासियाँ ही लंदन में…।नैना ऊँची आवाज में अपनी छोटी भाभी को सुनाती जा रही थी जिसे मनोहर बाबू के लिए सुनना असहनीय हो गया।वो चुपचाप अपनी छड़ी लेकर टहलने चले गये।इस वक्त तो उनके दिलो-दिमाग में ऐसा कशमकश चल रहा था कि सुबह की ताज़ी- मनभावन हवा उनके बदन को चुभ रही थीं।पंछियों का कलरव भी उनके मन को शांति देने में निष्फल हो रहा था।
मनोहर बाबू के पिता एक कृषक थें।गाँव में इतनी ज़मीनें थीं कि तीन पुश्त आराम से बैठकर खाये लेकिन बच्चों की पढ़ाई की खातिर उन्हें शहर आना पड़ा और फिर उन्होंने ‘शांति विला’ बनवाया।शांति विला’ की एक -एक ईंट में उनकी मेहनत समाई हुई थी।लेकिन शहर की आबो-हवा उन्हें रास नहीं आया।अक्सर बीमार रहने लगे,बार-बार गाँव जाना उनके लिये संभव न था।तब उनके बड़े बेटे मनोहर ने अपनी बीए की पढ़ाई अधूरी छोड़कर पिता के काम को संभाल लिया।साथ ही,अपने दो छोटे भाई अजय और विजय तथा छोटी बहन नैना की ज़िम्मेदारी भी अपने कंधों पर ले ली।
मनोहर बाबू बाहर का काम देखते और माँ शुभलक्ष्मी घर संभालतीं और बीमार पति की देखभाल करतीं।पति के गिरते स्वास्थ्य को देखकर शुभलक्ष्मी ने अपने एक परिचित की सुशील कन्या स्नेहा के साथ मनोहर का विवाह करा दिया।स्नेहा ने जल्दी ही अपनी व्यवहार-कुशलता से सबको अपना बना लिया।
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डाॅक्टर और दवाइयाँ बदलने के बावज़ूद शुभलक्ष्मी के पति की सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ। एक दिन उन्होंने पत्नी से चाय पीने की इच्छा व्यक्त की।शुभलक्ष्मी चाय का कप लेकर आईं तो देखा कि वो तो…।शुभलक्ष्मी पर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा था।पति के जाने का दुःख,बच्चों की परवरिश,अकेले सब कैसे संभालेंगी, तब स्नेहा अपनी सास का हाथ पकड़कर बोली कि माँजी, चिंता क्यों करती हैं,हम हैं ना।सब ठीक हो जायेगा।
समय के साथ अजय,विजय और नैना बड़े होने लगें।अजय ने ग्रेजुएशन के बाद फ़ाॅमेसी में डिप्लोमा किया तो मनोहर ने उसे केमिस्ट की दुकान खुलवा दी जिससे अच्छी आमदनी होती थी।उसने दो ऐसे स्टाफ़ भी रख लिये थें जो दवाइयों की होम डिलेवरी करते थें।मनोहर ने अपने मित्र की बहन सुगंधा के साथ अजय का विवाह करा दिया।सुगंधा ने केमिस्ट्री ऑनर्स लेकर बीएससी की पढ़ाई की थी,इसलिए कभी-कभी वह शाॅप पर जाकर पति का हाथ बँटा देती थी।विजय ने शहर के ही एक कॉलेज़ से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और एक प्राइवेट फ़र्म में नौकरी करने लगा।नैना बीए के फ़ाइनल ईयर में पढ़ रही थी।
मनोहर बाबू और स्नेहा की कोई संतान नहीं थी।विवाह के तीन बरस बाद उन्होंने डाॅक्टर से परामर्श किया,इलाज भी चला लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ।शुभलक्ष्मी जी सुलझे विचार की महिला थीं, इसलिए उन्होंने दोनों से एक बच्चा गोद ले लेने को कहा, तब स्नेहा बोली, ” ज़रूरत क्या है माँजी, विजय और नैना हैं ना।”
” फिर भी बहू..।” पर स्नेहा अपनी ही बात पर टिकी रही।सुगंधा का बेटा उस परिवार की तीसरी पीढ़ी की पहली संतान था।सब उसे हाथोंहाथ लिये रहते थें।शुभलक्ष्मी की दादी बनने की इच्छा तो पूरी हो गई लेकिन अभी भी कुछ काम तो बाकी थें ही।उम्र बढ़ती जा रही थी और स्वास्थ्य गिरता जा रहा था।विजय की बहू का मुँह देखना चाहती थी तो बड़े बेटे को लड़की देखने को कहा।मनोहर बाबू अपने छोटे भाई के स्वभाव को जानते थें,इसलिए उससे पूछे कि कोई लड़की है तेरी ज़िंदगी है तो बता दे।विजय पहले तो नकार गया।मनोहर बाबू समझ गये,हँसते हुए बोले, ” तो ठीक है,रामेश्वर जी की बेटी के साथ तेरा….।”
” अरे नहीं भईया ..।” विजय बोल पड़ा।मनोहर बाबू हँसने लगें।विजय ने उन्हें बताया कि फ़र्म के मालिक की बेटी है दिव्या।हम एक-दूसरे से…।
” समझ गया।उन्हें बता देना कि हम कल उनसे शादी की बात करने आ रहें हैं।”
दूल्हा-दुल्हन राज़ी थें तो ब्याह में देरी क्यों करनी।पंद्रह दिनों के अंदर ही दिव्या विजय की पत्नी और शुभलक्ष्मी जी की तीसरी बहू बन कर इस घर में आ गई।तीनों बहुएँ को साथ हँसते-बोलते देखकर शुभलक्ष्मी जी खुशी-से फूली न समाती थीं।
साल बीतते-बीतते दिव्या ने खुशखबरी भी सुना दी।उसका पाँचवाँ महीना चल रहा था।स्नेहा अपनी सास से कह रही थी कि दिव्या की गोद-भराई की रस्म भी करनी है।उसकी डिलीवरी अच्छे-से हो जाये तब हम लोग नैना के लिए भी वर तलाशने शुरु कर देंगे।
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ईश्वर की कृपा से दिव्या की गोद-भराई का फ़ंक्शन बहुत अच्छे-से सम्पन्न हो गया था,उसके बाद शुभलक्ष्मी जी की सेहत गिरने लगी।दवाइयाँ खा रहीं थीं ,बहुएँ भी आसपास ही रहतीं थीं पर होनी को कौन टाल सकता था।एक दिन सुबह-सुबह ही मनोहर को अपने पास बुलाईं और बोली, ” बेटा, अब तेरे बाबूजी के पास जा रही हूँ, घर में दीवारें खड़ी न होने देना।” मनोहर बाबू ने तुरंत पत्नी को बुलाया।स्नेहा समझ रही थी कि सास क्या कहना चाहतीं हैं।सास के हाथ पर अपना हाथ रखकर बोली, ” माँजी, दिल पर कोई बोझ नहीं रखिये।नैना मेरी बेटी है और हमेशा रहे…।” उसकी बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि शुभलक्ष्मी जी ने हमेशा के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।उनके जाने से घर मे एक सन्नाटा- सा पसर गया था।नैना भी गुमसुम रहने लगी थी।
दिव्या ने जब एक बच्ची को जन्म दिया तब महीनों से छाई उस घर की उदासी दूर हो गई।नैना भी अपने भतीजे-भतीजी के साथ खेलने में व्यस्त हो गई।
बच्ची के जन्म के बाद न जाने कैसे दिव्या को यह गुमान होने लगा कि वो एक धनाठ्य परिवार की बेटी है।अपनी बेटी के खिलौने और अन्य सामानों को वह किसी को हाथ नहीं लगाने देती।बात-बात पर नैना को घर के सामानों की कमियाँ गिनाती।स्नेहा और सुगंधा तो उसे जवाब नहीं देती लेकिन नैना से तो दिव्या की बहुत बहस होती।
एक दिन बच्ची के लिए दूध बनाना था,स्नेहा ने कहा कि ला, मैं बना देती हूँ।दिव्या तपाक-से बोली, ” आपको क्या पता,आप तो…।”
” भाभी..! बड़ी भाभी का तो लिहाज़ कीजिये।”
” गलत क्या कहा, फ़ैशन में आकर इन्होंने बच्चा जना ही नहीं तो क्या जानेगी।” सुनकर नलिनी के तो तन-बदन में आग लग गई थी, बड़ी मुश्किल से सुगंधा ने उसे संभाला था।उस दिन स्नेहा बहुत रोई थी।
घर में चल रहे महाभारत से तीनों भाई परेशान थें।दिव्या विजय को कहने लगी कि इस घर में मेरा दम घुटता है।अलग रहने के लिये उस पर दबाव डालने लगी।विजय बड़े भाई से तो कह नहीं सकता,अजय से कहता कि भाई, मैं क्या करुँ? तब अजय उसे दिलासा देता कि सब ठीक हो जायेगा।सुगंधा का बेटा यदि दिव्या के किसी चीज़ को हाथ लगा देता तो वह उसे डपट देती और आज तो उसने सुगंधा के बेटे पर हाथ ही उठा दिया तो भला नैना कैसे चुप रहती।उसने छोटी होकर अपनी भाभी को जवाब दिया,यही बात मनोहर बाबू को व्यथित करने लगी।एक पल को तो उन्हें लगा जैसे अपनी माँ को दिया वचन निभाने में असफल हो गये हैं।पार्क में बैठकर ही उन्होंने कुछ विचार किया और घर पहुँचकर रामदिन जो बरसों से उनके यहाँ काम कर रहा था, को बोले कि बड़ी-छोटी मालकिन(सुगंधा)और नैना को मेरे कमरे में भेज दी।
” और मालिक, नई मालकिन को ” रामदिन ने पूछा।
” नहीं, उसे बुलाने की ज़रूरत नहीं है।”
तीनों को मनोहर बाबू के कमरे में जाते देख दिव्या के कान खड़े हो गयें।समझ गई कि मेरी शिकायत होगी।उसने अपनी बेटी को पालने में रखा और मनोहर बाबू के कमरे के बाहर कान लगाकर सुनने लगी।
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मनोहर बाबू कह रहें थें कि तुम तीनों ने घर में क्या कोहराम मचा रखा है।बड़े-छोटे का कोई लिहाज़ नहीं है।और नैना तुम, नई बहू भी तो तुम्हारी भाभी है।उससे ऊँची आवाज़ में बात करना क्या तुम्हें शोभा देता है।
” बड़े भईया, छोटी भाभी को अपने पैसे पर बहुत अभिमान है।हर वक्त हमें नीचा दिखाती रहती हैं।उस दिन तो बड़ी भाभी को भी…।”
” तो क्या हुआ नैना।वो स्नेहा के लिए तो बेटी समान ही है।तुम तो उससे छोटी हो, तुम्हें तो उसका अपमान नहीं करना चाहिए था।अभी वो इस घर के लिए नई है।हमें उसे इतना प्यार और स्नेह देना है कि वो पैसै पर नहीं अपने परिवार पर अभिमान करने लगेगी।देखो बेटा, अभिमान, दंभ और क्रोध से हमेशा सर्वनाश ही होता है।माँ-बाबूजी की इस शांति विला में फिर अशांति न हो, इसका ध्यान तुम सबको रखना है।दिव्या भी इस परिवार की सदस्या है।बड़े छोटों की भूल को और छोटे बड़ों की नादानियों को माफ़ करके चले तभी परिवार रूपी वृक्ष हमेशा हरा-भरा रह सकता है।नैना,तुम अभी जाकर दिव्या से माफ़ी…”
” दिव्या, मैंने एक नया फ़्लैट देख लिया है।हम कल ही उसमें….,अरे, ये क्या! तुम्हारी आँखों में आँसू..” विजय ने आश्चर्य-से दिव्या से पूछा जो बाहर खड़ी मनोहर बाबू की बातें सुनकर रोने लगी थी।
” विजय, मुझे कहीं नहीं जाना है।यहीं रहना है।” कहकर वह दौड़कर अपने कमरे में गई और बच्ची को गोद में लेकर स्नेहा के पैरों पर गिरकर बोली, ” दीदी, अपनी छोटी बहन को माफ़ कर दो।न जाने कहाँ से अभिमान का कीड़ा मेरे सिर पर चढ़ गया था।मैंने आप सबका दिल दुखाया है।मैं बहुत बुरी…।”
” बस-बस दिव्या,इतना रोओगी तो बाढ़ आ जाएगी।रात गई -बात गई ” हँसते हुए स्नेहा ने दिव्या को गले से लगा लिया।
कई महीनों के बाद आज फिर से शांति विला में पहले जैसी रौनक दिखाई दे रही थी।सुगंधा और दिव्या रसोई में थीं, नैना दोनों बच्चों के साथ बच्ची बनी हुई थी और स्नेहा….,यानि कि बड़ी मालकिन बड़े मालिक के साथ बैठकर चाय पीते हुए नलिनी के विवाह के बारे में विचार-विमर्श कर रहीं थीं।
#अभिमान विभा गुप्ता
स्वरचित
परिवार रूपी वृक्ष की जड़े अगर मजबूत हो, प्यार और ममता से उसे सींचा गया हो तो अभिमान की आँधी उसके पत्तों को हिला सकती है लेकिन जड़ों को उखाड़ नहीं सकती।मनोहर बाबू के परिवार में भी हल्का-सा झोंका तो आया लेकिन उन्होंने अपने धैर्य और समझदारी से सब संभाल लिया।