माँ – बाप जिसे लाडो से पालते हैं ,वहीं एक दिन हो जाती पराई है “घर की बगिया में खिली नन्ही कली दूसरे की बगिया का फूल बनने चली जाती हैं “। राधिका का भी अरमा था कि कब वो बड़ी होएगी और पढ़ाई से उसे निजात मिलेगी । क्योंकि उसे पढ़ना पसंद नहीं था ,वो अपनी माँ की तरह सब काम अपने तरीक़े से करना चाहती थी । पढ़ाई ना करने की वजह से उसके पिता ने उसकी शादी जल्दी कर दी । राधिका माँ-बाप की लाड़ली थी इसलिए उसकी शादी बड़ी धूम-धाम से की गई ।
लेकिन राधिका का अरमा शादी के बाद बस यादों तक ही सिमट गए ।घर से फ़ुरसत मिले तो वो कुछ करती । उसकी सास बीमार रहती थी इसलिए जल्द ही उसने घर की ज़िम्मेदारी ले ली और उसका सपना बस एक फ़साना बन कर रह गया ।ज़िंदगी यूँही ज़िम्मेदारी के सहारे कटती रही ,जल्द ही वो जुड़वा बच्चों की माँ बन गयी
बच्चों के आने से उसका ख़ालीपन दूर हुआ और इन दोनो में ही अपनी ख़ुशी ढूँढने लगी।
एक दिन अचानक नरेश ने घूमने का प्रोग्राम बनाया मैं बहुत खुश आख़िर शादी के इतने सालों बाद कोई बात मुकम्मल होने जा रही थी रोहन, प्रीता और हम दोनों हमारा छोटा सा सुखी परिवार । जैसे ही हम कार में बैठे वैसे ही मैंने गाने चला दिए और ठंडी हवा के झोंके संग भावनाओं में बह चली ।
आज मौक़ा मिला है तो मैं खुल के जीना चाहती थी । बचपन से ही मैं कार चलाना चाहती थी लेकिन कभी सीख नहीं पायी इसलिए गो कार्टिंग के ज़रिए अपना छोटा सा अरमा पूरा करना चाहती थी । तो बस फिर मैं और मेरे हाथ में गाड़ी का स्टेरिंग बच्चे भी ये देख हैरान थे ! “मम्मा क्या हुआ आज तो आप रॉकट की तरह कार को उड़ा रही है “ बस कर दो आ जाओ पर आज मैं कहा किसी की सुनने वाली थी ।
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सब थके हुए थे इसलिए घर जाते ही सो गये ,लेकिन मैं आज के दिन को याद कर एक सुकून सा महसूस करने लगी । तभी मैंने सोचा कि क्यों ना एक डायरी बनाई जाए जिसमे मैं वो लिखू जो मैं करना चाहती हूँ , फिर मैंने अपनी “डियर डायरी में लिखा मैं क्या चाहती हूँ ?और क्या-क्या कर चुकी हूँ “! तभी धीरे से आवाज़ हुई राधिका सो जाओ ! सुबह ऑफिस जाना है ,अगले ही पल बत्ती बुझा मैं भी सो गई और अपनी ज़िम्मेदारी से जुड़ गई ।
“हम इंसान भी घड़ी के सुई काटे की तरह बस भागे ही जा रहे है । ज़िंदगी को जीना भूल बस गुज़ारे चले जा रहे हैं” ।कुछ समय के लिए मेरे पति को ऑफिस के काम से दूसरे शहर जाना पड़ा यह सुन मैं दूसरे कमरे में चली गई। नरेश ने मेरे पास आ बालों को सहलाते हुए पूछा “क्या तुम मेरे बग़ैर ख़ुद को और घर को संभल लोगी , मैने भी झट से हामी भर दी कौन सी बड़ी बात है रोज यही करती हूँ ।
बच्चों की पढ़ाई घर का काम बाहर का काम सब में इतनी व्यस्त हो गई कि अपने आप को ही भूल गई । दो महीने सच में कैसे बीत गए पता ही नहीं चला , पर इनके वापस आने से जीवन में एक संतुष्टि थी ।
यूँही वक़्त गुजरा और बच्चे बड़े हो गए।सब अपने-अपने काम में इतने व्यस्त हो गए कि अपनों के लिए समय निकालना भूल गए । आज भी जब सब काम पे चले जाते है , तो मैं अकेली इस घर की ज़िम्मेदारी उठाती रह जाती हूँ । आख़िर कब तक ये ज़िम्मेदारी उठाऊँ ! बच्चों को भी समझना चाहिए । यही सोच मैंने अपने बेटे की शादी कर दी बहू आयी तो घर मैं रौनक़ आ गयी ,अपनी ज़िम्मेदारी उसे दे आज़ाद हो जाऊँगी यही सोच रोहन की शादी की थी लेकिन सोचा हुआ कब पूरा होता है ?? बहू भी आयी तो वो भी नौकरी करने वाली ।बहू की भी छुट्टी ख़त्म हुई और उसने भी काम पे जाना शुरू कर दिया । आज घर का सारा काम नौकर करता है पर फिर भी उनसे काम करवाना टेडी खीर है एक पल के लिए ढील दे दो तो सब तबाह है ।
कुछ समय बाद घर में पोती हुई,मैं बहुत खुश थी कि हमारे परिवार में इज़ाफ़ा हो रहा है । उसके नाम करण की विधि थी ,तो बेटा-बहू बोले “मम्मा हमे तो पता नहीं हैं क्या करना है ?? तो आप देख लेना “।
ऐसा नहीं होता बेटा…. तुम्हें पता होना चाहिए,कल को कैसे कुछ करोगे ! ठीक है माँ ऑफिस से आकर देखता हूँ ।
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लेकिन वो पल कभी नहीं आया ,सब कुछ मुझे ही करना पड़ा । खैर सब कुशलमंगल तरीक़े से हुआ और पोती का नाम आमना रखा गया । सब के ऑफिस जाने के बाद मैं और आमना घर में रह जाते । उसे देख मुझे प्रीता का बचपन याद आ जाता वो भी अपनी बुआ की तरह नटखट है ।अब आमना आठ वर्ष की हो गई थी ।उसे पढ़ना लिखना बहुत पसंद था उसे देख मैं यही सोचती कि काश मैंने भी पढ़ाई में मन लगाया होता तो …..अचानक से आज बरसों बाद मुझे मेरी डियर डायरी मिली जिसकी हालत भी मेरी तरह जर्जर हो गई थी ,तभी आमना स्कूल से आयी और मेरे हाथ से डायरी ले पार्क जाने की ज़िद करने लगी ।चलों दादी ! काफ़ी दिन हो गए है मुझे झूला झूलना है …
थोड़ी देर में मैं उसे नीचे ले आयी और वो झूला झूलने लगी । मैं भी पास की एक बेंच पे बैठ गई और साथ में बैठी महिला से बात करने लगी । इसी एक पल में ही आमना आँखो से ओझल हो गई । सब जगह ढूँढ लिया पर वो कहीं नहीं दिखी । अब मैं अपने बेटे-बहू से क्या कहूँगी कि…..“ मैं अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा सकी “तभी ढलते सूरज की रोशनी संग आमना सामने से भागी-भागी आयी । दादी दादी “बेटी तू कहाँ चली गई थी ?? मेरी तो जान ही निकल गई थी” ….सॉरी दादी मैं तो आप के लिए काला खट्टा लेने गई थी आपको पसंद है ना ….
तुम्हें कैसे पता मुझे ये पसंद है
मेरी प्यारी दादी आपकी प्यारी डायरी से मुझे पता चला ।
मैंने मुस्कुराते हुए उसे गले लगाया और फिर हम दोनो ने मिल के काला खट्टा खाया और घर वापस आ अपनी डायरी में ये वाक्या भी लिखा ।
शाम को जब सब घर आए तो मैंने सब को आप बीती बताई ,तो नरेश हँस के कहने लगे अब तुम बूढ़ी हो गई हो ! अब तुम्हारे बसकी कुछ नहीं रहा…. शीशे में खुद को निहारते हुए “नहीं मैं अभी बूढ़ी कहाँ हुई हूँ “
अभी कहां दादी जब मेरी शादी होएगी तब आप बूढ़े होओगे ।लेकिन आज तो मेरी जान ही निकल गई थी और मैं ये भी जान गई कि एक औरत की ज़िम्मेदारी कभी ख़त्म नहीं होती फिर चाहे वो उम्र का कोई भी पड़ाव हो । जब तक है ज़िम्मेदारी के संग है ।
#जिम्मेदारी
स्वरचित रचना
स्नेह ज्योति