शादी के दूसरे दिन से ही रेखा को उसके हिस्से का काम सौंप दिया गया,यह कहकर कि अब तक बहुत हमने किया ,अब तुम्हारी बारी है।सो इसने बिना किसी ना नुकुर के हां में सर हिला दिया।
और लग गई अपने काम में ,सुबह से शाम और शाम से रात यानि ये कह लो कि चारों पहर सबकी सेवा में हाजिर रहती।क्या वो रसोई हो या फिर बिस्तर पर पड़ी सास ननद की तिहमतदारी।
भूल गई की नए जीवन को लेकर उसके भी कुछ सपने थे।और तो और उसने खुद को इन सबके बीच इतना झोंक दिया कि लगा ही नहीं कि हाई एजुकेटेड भी है और कभी वो भी अपने पैरों पर खड़े होकर जीना चाहती थी।
पर इन सबके बावजूद भी कोई खुश न रहता ,हालांकि इसका जिक्र कई बार मां से भी किया तो वो बोली आहिस्ता आहिस्ता सब ठीक हो जाएगा परेशान न हों। आखिर मुझे ही देख लो इतना कुछ तो किया पर क्या मिला अंत में बदनामी फिर ये ससुराल है यहां कितना भी करो कोई खुश नहीं रहता।शायद इसी का नाम ससुराल है कहते हुए उसे दिलासा दिलाती और ससुराल फिर भेज देती।
और ये भी कोई सपोर्ट न पाकर फिर आकर इन्हीं के बीच रम जाती।
कई बार तो अपनों को ही अपनों से बातें करते सुना कि पता नहीं क्यों शादी कर दी जब बेटा ठीक से कमा नहीं सकता था तो दूसरे की जिंदगी क्यों बर्बाद की आखिर उसका तो ख़र्च उठा ही रही है माता जी अब बहू का भी उठाए,फिर अब तो वो पेट से भी है।
आखिर कैसे होगा कुछ समझ नहीं आता।जिसे सुनकर इसे कुछ अजीब सा लगा पर चुप रही क्योंकि कहीं न कहीं बात में सच्चाई भी थी।
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वक्त बीतता गया,वो दो बच्चों की मां बन गई।साथ ही सास के देहांत के बाद अलग भी हो गई।
फिर तो और भी ताने मिलने लगे कि हे भगवान कैसे गृहस्थी चलेगी। कमाई कम खर्च ज्यादा है।
ये सुन वर्षों बाद इसने अपनी पढ़ाई का सदुपयोग किया।और एक छोटी सी नौकरी की।जिससे अब घर बहुत तो नहीं पर ठीक ठाक चलने लगा।
जब ठीक ठाक चलने लगा तो ये भी लोगों को नागवार गुजरने लगा।
यहां तक कि उसी के मुंह पर उसके पति की बुराई लोग करने लगे तब इससे बर्दाश्त नहीं हुआ
और बोली।भले इन्होंने कुछ नहीं किया और फिर जितना हो सकता है करते ही हैं अब भला इस उम्र में क्या कहना। मैं तो पैरलर में खड़ी हूं ना जिम्मेदारियां उठाने के लिए फिर कोई कुछ कहने वाला कौन होता है।
आज हम मिलके जिम्मेदारियां उठा रहे हैं , इसलिए कोई कुछ कहने वाला नहीं होता।
मौलिक रचना
प्रतियोगिता हेतु ‘ जिम्मेदारी ‘
कंचन श्रीवास्तव आरजू