सचिन की माॅं एक अनपढ़, मानसिक रोगी और उद्दण्ड महिला थी जिनका विवाह सचिन के पिता से धोखे में रखकर करवा दिया गया। तब के जमाने में बहू लाने से पहले इतनी जांच पड़ताल नहीं की जाती थी और सचिन के नाना नानी ने भी अपनी बेटी के मानसिक बीमारी को छिपाकर अपनी बला टाल दी थी। सचिन के पिता का परिवार गांव का एक प्रतिष्ठित परिवार था, इसलिये उन्होने भी इस धोखे को चुपचाप सह लिया। सचिन के पिता ने भी अपनी माता के दबाव में अपनी पत्नी के मानसिक रोगी होने के बावजूद स्वीकार कर लिया।
दरअसल वो मानसिक रोगी तो कम थी, हठी और उद्दण्ड ज्यादा थी जो अपनी मर्जी की मालकिन थी। रोज घर में लड़ाई झगड़ा, सामान फेकना पटकना, मार पिटाई उनकी दिनचर्या थी। उनके पास झगड़ा फसाद और झूठ बोलने, चुगलखोरी के लिये दिमाग था लेकिन घर के कामों के लिये नहीं। लोगों ने उन्हे उनके हाल पर छोड़ दिया। वो भी घर की हर जिम्मेदारी से मुक्त आये दिन मायके में ही पड़ी रहती। उनके मायके वालों को भी अपनी बेटी से ही सहानुभूति थी, कभी उन्हे कोई नहीं समझाता कि वो अपनी जिम्मेदारी को समझें और अपना परिवार सम्भाले बल्कि सचिन के पिता और दादी पर ही उन्हे प्रताड़ित करने का इल्जाम लगाया करते।
समय के साथ एक बेटी व बेटा भी हो गया लेकिन उनके व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया बल्कि अब बच्चों की जिम्मेदारी भी सचिन की दादी पर आ गयी। सचिन के पिता भी नौकरी के लिये शहर चले गये, साथ में अपनी माॅं और बच्चों को भी ले गये। सचिन की माॅं उनके घर आती, हफ्ते दस दिन खुशी से रहती और आखिर में लड़ाई करके, बच्चों को मारपीट कर एक बहाना बनाती और घर में रखे रूपये लेकर अपने मायके चली जाती। सचिन के पिता भी अकेले जिम्मेदारी सम्भाल कर थक गये थे तो एक दिन अपने सास ससुर से अपनी पत्नी की गैरजिम्मेदाराना हकरतों पर जब उन्होने बात की तो उन्होने सचिन के पिता को ही अपमानित कर दिया।
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सचिन के पिता अपने अपमान के कारण अपनी पत्नी से पूरी तरह से विमुख हो गये। अब वह कभी भी उनसे कोई सरोकार नहीं रखते थे। मात्र महीने का खर्चा देते थे। धीरे धीरे सचिन के पिता का लगाव शहर में रह रही एक महिला से हो गया जिसके पहले से तीन बच्चे थे, लगभग सचिन की उम्र का एक बेटा और दो बेटियाॅं। सचिन के पिता ज्यादातर वक्त उसी के घर पर बिताने लगे। पहले तो वो अपने घर आते थे और घर की जिम्मेदारी भी उठाते थे पर धीरे धीरे उन्होने उसी महिला के घर पर रहना शुरू कर दिया।
एक कमाने वाला इन्सान एक ही घर की जिम्मेदारी उठा सकता है इसलिये उन्होने उस महिला के परिवार की जिम्मेदारी उठाना शुरू कर दिया। सचिन की दादी खेती से मिलने वाले धन से बच्चों की परवरिश करने लगी और भविष्य के लिये भी धन जोड़ने लगी। धीरे धीरे सचिन के पापा अपने परिवार से पूरी तरह विमुख हो गये और सचिन की माॅं अपने मायके में आराम से हर चिन्ता और जिम्मेदारी से मुक्त जीवन काट रही थी। वहीं बच्चे अपने माता पिता के प्यार के साथ साथ धन की कमी से भी जूझ रहे थे।
परिवार के सभी लोग सचिन के पिता को समझाते लेकिन वो नहीं माने। सचिन जब तब उस महिला के घर अपने पिता से मिलने चला जाता तो उस पर जासूसी का इल्जाम लगाया जाता। सचिन के पिता उस महिला को खुलेआम अपनी पत्नी के रूप में दर्शाते थे, यहाॅं तक परिवार में किसी न्योते में भी वो उस महिला और बच्चों के साथ ही शरीख होते थे। वह महिला और बच्चे अच्छे अच्छे कपड़े पहनते, मंहगे शौक पूरे करते और अच्छा खाते, वहीं सचिन और उसकी बहन तंगहाली में जी रहे थे, ना पहनने को, ना खाने को, शौक
तो बहुत दूर की बात है। रिश्तेदार भी सिर्फ सहानुभूति दिखाते लेकिन कोई आर्थिक मदद नहीं करता। इस दौरान सचिन को पता चला कि उसके पिता ने गांव की सारी जमीन और मकान बेंच दिया है। अब सचिन के पास गांव की खेती से आने वाले धन या राशन का भी सहारा नहीं बचा था। सचिन अखबार बांट कर अपने घर के खर्च में सहयोग करता था और उसकी बहन बच्चों को ट्यूश्न पढ़ाती थी। एक समय आया जब सचिन की दादी इस दुनिया को विदा कह गयी और पीछे छोड़ गयी दो अनाथ बच्चों को, जिनके माता पिता दोनों ही जिन्दा थे लेकिन किसी को उनकी कोई फिक्र नहीं थी।
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सचिन मात्र पन्द्रह साल का था। अब वह बिल्कुल अंधकार में चला गया था। घर में दिया जलाने के लिये भी तेल नहीं था, खाने की तो बात ही क्या थी। रिश्तेदार पड़ोसी सब यही सोचते कि अब इनका क्या होगा लेकिन किसी ने भी उनकी जिम्मेदारी नहीं ली। आखिर माता पिता दोनों जिन्दा है तो कौन अपने सर पर एक बोझ लेगा। एक दिन सचिन के पिता उसके घर आये और आर्थिक नुकसान की बात कहकर उसकी बहन के नाम जमा तीन लाख रूपये निकलवा लिये। सचिन की बहन अपने पिता की मंशा को नहीं जान पायी।
बाद में पता चला कि उन्ही रूपयों से सचिन के पिता ने उस महिला के नाम पर एक प्लाट खरीदा है जिसका निर्माण जोर शोर से चल रहा था। जहाॅं सचिन और उसकी बहन एक वक्त के खाने को तरस रहे थे वहीं उसके पिता को अपने बच्चों की स्थिति से कोई वास्ता नहीं था। सचिन अपने पिता के पास गया और उनसे कहा कि हम लोगों को आपकी जरूरत है, आप हमारे साथ रहिये चलकर लेकिन उसके पिता ने फिर से साफ मना कर दिया जैसा कि वह हर बार करते थे लेकिन इस बार सचिन ने भी उनके सामने कसम खायी कि आज के बाद वो कभी उनसे वापस लौटने को नहीं कहेगा।
उसके बाद सचिन ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सचिन ने इस कठिन दौर में अपनी पढ़ाई छोड़ दी, घर घर अखबार बांटा, टैक्सी चलायी, लोगों के घर का काम किया। जी जान से मेहनत की। समय बीतता गया। सचिन एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करने लगा। धन जोड़कर उसने अपनी बहन और अपनी शादी भी की और उसकी पत्नी भी नौकरी पेशा लड़की थी इसलिये अब दोनो मिलकर घर की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने लगे। अब सचिन की माॅं सचिन के पास ही रहने लगी थी क्योंकि अब उनकी मनमानियाॅं झेलने वाला उनके मायके में कोई नहीं रह गया था। उनके आचरण में कोई बदलाव नहीं था लेकिन फिर भी सचिन और उसकी पत्नी उन्हे अपने पास ही रखते थे।
एक दिन सचिन को खबर मिली कि उसके पिता को कैंसर हो गया है और शायद ज्यादा दिन के मेहमान नहीं हैं। सचिन अपनी पत्नी और बच्चे के साथ उनके घर पर मिलने गया। जैसे वो लोग भी सचिन का ही इन्तजार कर रहे थे कि सचिन आये और अपने पिता को ले जाये। सचिन ने अपने पिता से कहा कि वह सचिन के साथ चले लेकिन उन्होने साफ मना कर दिया कि जब वह जीवन भर उसके पास नहीं गये तब अब इस समय उसे परेशान करने नहीं जायेंगे लेकिन अन्त में उन्होने जो अपनी इच्छा उसके सामने रखी, जैसे लगा
उसके कान में किसी ने पिघला शीश डाल दिया है। सचिन के पिता ने उससे कहा कि मैं चाहता हूॅं कि तुम और विमल जो कि उस महिला का पुत्र था, वो दोनों ही उनकी चिता को अग्नि दें। सचिन जानता था कि ये जो अन्तिम इच्छा या भीख उसे दी जा रही है वो सिर्फ इसलिये दी जा रही है क्योंकि वो अपना परलोक सुधारना चाहते हैं। सचिन को जीवन भर अपने पिता के वापस आने की उम्मीद थी, लेकिन अपनी आखिरी इच्छा के साथ उन्होने उसकी ये उम्मीद अपने जीते जी तोड़ दी थी।
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“उठो बेटा सचिन, अपने पापा की चिता को आग दे दो।’’
“नहीं, मैं इसका असली हकदार नहीं हूॅं। ये जिसका अधिकार और जिम्मेदारी है, मैने उसके हक में छोड़ता हूॅ।’’
“ये तुम क्या कह रहे हो? ये तुम्हारी जिम्मेदारी है कि उनकी चिता को अग्नि दो, तुम्हारे हांथ लगाने से वो तर जायेंगे।’’
“ये तो उन्हे पहले सोचना चाहिये था और यही बात आपने उनके जिन्दा रहते उनसे क्यों नहीं कही कि अगर वो हम लोगों पर हांथ रख दें तो हम लोग तर जायेंगे। हम लोग भी उनकी जिम्मेदारी थे। मैने बहुत सोच समझकर यह फैसला लिया है। जिसे उन्होने जीवन भर पुत्र होने का अधिकार दिया, आज वही उनके परलोक को सुधारने की जिम्मेदारी भी लेगा। ’’
लोगों ने बहुत समझाया लेकिन सचिन टस से मस नहीं हुआ जैसे उसके पिता नहीं हुये थे।
चिता से कुछ दूरी पर बैठा सचिन चिता को देख रहा था, उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे लेकिन न जाने वह दुख के आँसू थे या क्रोध के। मिले जुले भाव उसे चेहरे पर आ जा रहे थे लेकिन वो अपने फैसले से पूरी तरह संतुष्ट था। आग की लपटें चट चट की आवाज के साथ बढ़ती जा रही थी और उसी आग में उसके जीवन का चलचित्र उसे नजर आने लगा जो आखिरकार अपने पिता के साथ इस आग में भस्म हो रहा था।
#जिम्मेदारी
मौलिक
स्वरचित
अनुराधा श्रीवास्तव