दुल्हन के जोड़े मे सजी रितिका विदाई से पहले अपने पूरे घर को बड़ी हसरत से निहार रही थी। वो घर जो कुछ देर बाद ही उसे छोड़ कर जाना है। अचानक उसकी निगाह हलवाइयों का हिसाब निमटाते पिता पर गई एक दिन मे ही कितनी मायूसी छा गई उनके चेहरे पर अपनी लाडो को जो विदा करना है कितना मजबूत बनता है हर चीज जो देखनी होती है उसे कोई कमी ना रह जाये ये जिम्मेदारी भी तो निभानी पड़ती है , पर दिल ही दिल मे कितना टूटता भी होगा। थोड़ा आगे बढ़ी तो देखा माँ उसकी विदाई की तैयारी मे लगी है
बार बार अपने आंसुओं को पोंछती। जिस बेटी को अपनी कौख मे रखा जन्म दिया बड़ा किया वो आज विदा हो चली है तो माँ का दिल तो रोयेगा ना पर वो भी अभी अपनी जिम्मेदारी निभाने मे लगी थी । तभी उसने देखा एक कोने मे छोटा भाई छुपकर आंसू बहा रहा है । वो भाई जो बात बात पर उससे लड़ता झगड़ता था आज उसकी विदाई पर कैसे ना आंसू बहाये। भाई बहन का रिश्ता ईश्वर ने बनाया ही ऐसा है जिसमे जितनी लड़ाई है उससे ज्यादा प्यार है।
वहाँ से आगे बढ़ रितिका अपने कमरे मे आ गई । कितने प्यार से सजाया है उसने ये कमरा अब ये भी छूट जायेगा हमेशा के लिए । उसकी आँखों से आंसुओं की झड़ी लग गई। हे ईश्वर् क्या रीत बनाई है तुमने ।
“जिस घर की जाई बेटी, उस घर के लिए कर दी जाती पराई बेटी।”
” लाडो विदाई का समय हो गया !” तभी पीछे से उसकी माँ कामिनी जी ने आवाज़ दी। माँ की आवाज़ सुन भाग कर गले लग गई माँ के और जार जार रो दी। इतनी देर से खुद को संभाले कामिनी जी भी बिलख् पड़ी।
” अरे कामिनी बारात वापिस जाने को है तैयारी हुई या नही !” तभी रितिका के पिता सुधीर जी बाहर से ही बोलते हुए आये पर माँ बेटी को गले लगकर रोते देख अपना चश्मा उतार आँसू पोंछने लगे।
” पापा क्या जरूरत थी इतनी जल्दी अपनी लाडो को पराया करने की कुछ दिन और मुझे अपने प्यार की छाँव मे रख लेते !” रितिका पिता की तरफ देखकर बोली।
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” ना लाडो तू पराई नही हुई है बस तुझे एक और घर मिला है कुछ रिश्ते मिले है । ये घर और हम कल भी तेरे अपने थे कल भी रहेंगे समझी । कभी खुद को पराया मत कहना अब ।” पापा ने लाडो के सिर पर हाथ फेर कर कहा। रोती बिलखती लाडो विदा हो गई संसार की रीत निभाने को एक अल्हड़ बेटी से एक जिम्मेदार बहू बनने को।
पीछे गाना बज रहा……
” पापा मैं छोटी से बड़ी हो गई क्यो
पापा मैं छोटी से बड़ी हो गई क्यो
पापा की निगाहो मे ममता की बाहो मे
कुछ दिन और रहती तो क्या बिगड़ जाता.”
बेटी को विदा कर कामिनी जी और सुधीर जी बिलख पड़े रो तो भाई आदित्य भी रहा था पर उसे मम्मी पापा को भी तो संभालना था। बहन की विदाई बाद एकदम से समझदार और जिम्मेदार जो हो गया था।
उधर रितिका के ससुराल पहुँचते ही वहाँ खुशी का मौहौल हो गया। कितनी अजीब है ना ये रीत एक घर होता सूना एक घर मे होती है रौनक , एक घर से होता है मिलन और दूजे से हो जाती विदाई।
नई बहू का स्वागत हुआ और शुरु हुआ एक नवजीवन जिसमे एक लापरवाह बेटी समझदार बहू बनने चली थी।
” मम्मी जी मेरे पगफरे की रस्म कब होगी कब मै अपने घर जा पाउंगी !” सब मेहमानों की विदाई के बाद रितिका ने सास मधु जी से पूछा।
” बेटा तुम्हारा घर अबसे ये है वो तो तुम्हारा मायका है समझी तुम !” मधु जी हंस कर बोली। कुछ टूटता सा महसूस हुआ रितिका को अपने भीतर चार दिन मे वो घर मायका हो गया । जिस घर पैदा हुई , पली बड़ी हुई वो अब उसका घर नही…. ” नही नही वो घर हमेशा मेरा रहेगा !” रितिका ने मन ही मन मानो खुद को तसल्ली दी !
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दो दिन बाद उसे पगफेरे को जाना था कितनी खुश थी वो रात भर ठीक से सो भी ना पाई और सुबह सबसे पहले उठकर अपने पापा और भाई के लिए नाश्ता बनाने लगी।
” बहू तुम्हारे मायके वाले आ गये !” थोड़ी देर बाद सास ने पुकारा। फिर से कुछ टूटा लाडो के भीतर ना पिता ना भाई बस मायके वाले । उफ़ भगवान क्या घड़ी आती है बेटियों की जिंदगी मे जिसमे उसके अपने जन्मदाता अपना भाई मायके वाले बनकर रह जाते है ।
रितिका पिता भाई के लिए चाय नाश्ता लेकर आई और दोनो के गले लग गई।
” अरे वाह् दीदी तू जल्दी उठना सीख गई वहाँ तो तुझे कितने जतन से उठाना पड़ता था !” आदित्य अपने आंसू को छिपाता हुआ बोला।
” हाँ तो वो इसका घर था ये ससुराल वहाँ तो अपनी मर्जी चलाती ही ना यहाँ इसे एक जिम्मेदार बहू का किरदार निभाना है क्यो समधन जी !” सुधीर जी भी आँखों के कोरों के आंसू हंसी मे छिपा गये।
” समधी जी घर तो अब यही है इसका वो तो मायका है जिसमे मेहमान बनकर जाएगी अब तो ये । वैसे चार दिन से ज्यादा नही छोड़ेंगे हम अपनी बहू को !” मधु जी हँसते हुए बोली।
” जी जैसी आपकी इज़ाज़त !” सुधीर जी हाथ जोड़ बोले। लाडो के दिल का एक और टुकड़ा टूट गया क्योकि उसके जन्मदाता चार दिन पहले बंधे रिश्ते से इज़ाज़त ले रहे है अपनी लाडो को ले जाने की !
ये सच ही है…” अपने घर मे ही मेहमान होना पड़ता है
एक लड़की के लिए दो चुटकी सिन्दूर का सौदा कितना महंगा पड़ता है।”
फिर भी रितिका सब चीजे भुला खुशी खुशी अपने घर को चल दी माँ से मिलने की जल्दी मे रास्ता भी बड़ा बड़ा लग रहा था।
” मम्मी ….!” घर आते ही वो माँ के गले लग झूल गई।
” आ गई लाडो तू कबसे आँखे तरस रही थी !” आरती उतारते हुए कामिनी जी बोली।
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” मम्मी मैं भी तो तरस रही थी अब जल्दी से बढ़िया सा कुछ खिलाओ इतने मैं हाथ मुंह धोकर ये बैग के कपड़े अपनी अलमारी मे लगा कर आती हूँ !” रितिका ये बोलते हुए अपने कमरे की तरफ चल दी।
थोड़ी देर बाद उसने अपनी पसंद का नाश्ता किया और माँ से बाते करने लगी।
” बेटा कितने दिन रहने की इज़ाज़त मिली है समधन जी से ?” अचानक कामिनी जी बोली।
” चार दिन को मम्मी !” कहने को रितिका बोल गई एक बार फिर एक बेटी के भीतर कुछ टूट सा गया । कल तक माँ बाप को बता कर कही जाने वाली उनकी लाडो आज उनके ही घर किसी और की इज़ाज़त से आई है । उसने चुपके से आँखों के कोर पोंछ लिए।
शाम को मोहल्ले की कुछ औरते रितिका से मिलने आई।
” अरे ये क्या ना कोई बनाव ना श्रृंगार ऐसे ही बैठी है !” एक आंटी उसे देख बोली।
” आंटी मैं पहले भी तो ऐसे ही रहती थी यहां !” रितिका आश्चर्य से बोली।
” अरे तब ये तेरा घर था अब तेरी शादी हो गई पहली बार मायके आई है तो सज धज कर रह तुझसे मिलने कोई ना कोई आता रहेगा ऐसे अच्छा नही लगता बेटा । तू मेहमान है यहाँ की अब !” आंटी हँसते हुए बोली। पर रितिका को तो बस उनके आखिरी शब्द सुनाई दिये ” तू मेहमान है यहाँ की अब !” सच मे अब ये मेरा घर नही । मेहमान बन गई हूँ मैं यहाँ की अब ऐसा लगा एक बेटी पूरी तरह टूटने लगी है ।
चार दिन यूँही बीत गये अब आई उसकी विदाई की घड़ी । नमन ( पति) उसे लेने आये हुए थे। हंसी खुशी बाते करते करते आँख नम हो गई सबकी क्योकि दूसरी बार जो लाडो को विदा करना था।
” बेटा सब सामान रख लिया ना कभी कुछ छूट जाये फिर अपने घर मे परेशान होगी !” कामिनी जी ने विदाई से पहले पूछा।
” मम्मी ये भी तो मेरा अपना घर है कुछ रह भी गया तो क्या हुआ ?” रितिका आश्चर्य से बोली।
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” ना बेटा ये मायका है तुम्हारा अगर कुछ रह गया तो समधनजी को बुरा भी लग सकता आखिर असली घर तो तुम्हारा अब वही है !” कामिनी जी उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोली। अब एक बेटी पूरी तरह टूट कर बिखर गई थी। चार दिन मे अपना घर मायका जो बन गया था। अभी तक औरो से सुन रही थी तो संभाल रखा था खुद को पर आज तो माँ ने भी बोल दिया उसकी आँखों से आंसुओं की झड़ी बह निकली अब वो आँसू विदाई के थे या अपने घर के मायका बनने के । सबसे गले लग अपने टूटे बिखरे टुकड़े समेट एक बेटी चल दी अपने मायके से ससुराल क्योकि एक जिम्मेदार बहू का फर्ज भी तो निभाना था। क्योकि जग की रीत यही है “
हर बेटी को अपने घर से मायके का सफर तय करना ही पड़ता है।
भले कितना टूटे बिखरे पर फिर से सम्भलना ही पड़ता है।
कल तक जो थी मां बाप की अल्हड़ सी लाडो रानी
उसे एक रात मे ही जिम्मेदार बहू बनाना पड़ता है।”
दोस्तों एक बेटी के लिए कितना मुश्किल होता है ना अपने घर से मायके का सफर तय करना । बार बार टूटती है वो जब जिस घर को कल तक अपना घर बोलने वाली को उसी घर के लिए मायका शब्द सुनना पड़े और अपने माता पिता को मायकेवाले। लेकिन टूटने के बाद भी उसे खुद को समेटना पड़ता है क्योकि अब बेटी के साथ साथ वो बहू भी है जिसे अपनी जिम्मेदारी निभानी है। ईश्वर ने ये हुनर भी तो सिर्फ बेटियों को दिया है।
” जिस आंगन पैदा हुई , वो आंगन छूटा जाये रे
लाडो देखो कैसे चुपचाप , नीर बहाए रे।
अब इस आंगन होगा , किसी और से इज़ाज़त ले आना
एक बेटी के लिए कितना मुश्किल ये स्वीकार कर पाना ।”
#जिम्मेदारी
आपकी दोस्त
संगीता